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CBSE Class 12 Hindi फीचर लेखन
(ख) फ़ीचर लेखन
(जीवन-संदर्भो से जुड़ी घटनाओं और स्थितियों पर) फ़ीचर’ का संबंध खबरों से नहीं होता जबकि इन्हें छपने का स्थान अखबारों में ही प्राप्त होता है। ये निबंध से भिन्न होते हैं। किसी पुस्तक को पढ़कर, आँकड़े इकट्ठे करके लेख लिखे जा सकते हैं, पर ‘फ़ीचर’ लिखने के लिए अपने आँख, कान, भावों, अनुभूतियों, मनोवेगों और अन्वेषण का सहारा लेना पड़ता है। फ़ीचर बहुत लंबा नहीं होना चाहिए। लंबा, अरुचिकर और भारी फ़ीचर तो फ़ीचर की मौत है। फ़ीचर को मजेदार, दिलचस्प और दिल पकड़ होना चाहिए। लेख लिखना आसान है पर फ़ीचर लिखना उससे कठिन काम है। – ‘फ़ीचर’ एक प्रकार का गद्यगीत है जो नीरस और गंभीर नहीं हो सकता।
‘फ़ीचर’ ऐसा होना चाहिए जिसे पढ़कर पाठक का हृदय प्रसन्न हो या पढकर दिल में दःख का दरिया बहे। फ़ीचर का महत्त्व इस बात में है कि में रोचकता और असर से कहे। लेख हमें शिक्षा देता है, फ़ीचर हमारा मनोरंजन करता है। फ़ीचर में हमें अपनी मनोवृत्ति और अपनी समझ के अनुसार किसी विषय का या व्यक्ति का चित्रण करना पड़ता है। इसमें हास्य और कल्पना का विशेष हाथ रहता है। ‘फ़ीचर’ ऐतिहासिक और पौराणिक भी हो सकते हैं।
हर वर्ष होली, दीवाली, दशहरा, मेलों, राखी आदि के अवसर पर पुरानी बातों को दुहराकर फ़ीचर लिखे जाते हैं। इनमें विचारों की एक बंधी हुई परंपरा का निर्वाह किया जाता है। फ़ीचर तो धोबी, माली, खानसामा, घरेलू नौकर, चौकीदार, रिक्शावाला, रेहड़ी वाला, चपड़ासी आदि पर भी लिखे जा सकते हैं। ‘फ़ीचर’ चाहे कैसे हों, उन्हें लिखने के लिए दिल और दिमाग दोनों का प्रयोग होना चाहिए। अच्छा आरंभ और खूबसूरत अंत करने पर फ़ीचर की सफलता निर्भर करती है।
फ़ीचर के कुछ उदाहरण
प्रश्न 1.
गुम होती चहचहाहट
उत्तर:
एक समय था जब सुबह-सवेरे नींद चिड़ियों की चहचहाहट से खुलती थी। घर के बाहर लगे शिरीष के घने पेड़ पर तथा दीवार के छेदों में चिड़िया के अनेक घोंसले थे। तरह-तरह के पक्षी रहते थे वहाँ। सुबह-सुबह उन की चहचहाहट से वातावरण संगीतमयी हो जाता था। बीच-बीच में कौवों की काँव-काँव भी सुनाई दे जाती थी पर अब तो बाहर आँगन में या छत पर भी जा कर कहीं नहीं दिखाई देते वे पक्षी जिनके मधुर कलरव को सुनते-सुनते हम बड़े हुए। मानव-सभ्यता जिन पक्षियों के साथ बढ़ रही थी उसे आज पश्चिमी सभ्यता ने हमसे दूर कर दिया। चौड़ी होती सड़कें दोनों ओर किनारे लगे पेड़ों को निगल गईं। वह प्यारी-सी भूरी सफ़ेद काली चिड़िया, जिसे ।
हम गौरैया कहा करते थे, जब अपने झुंड में एक साथ ची-ची किया करती थी तो हम उसे रोटी के टुकड़े फेंक-फेंककर अपने नाश्ते … में सहभागी बनाया करते थे और वे भी बेखटके उछल-उछल कर हमारे पास तक आ जाती थी। पता नहीं अब कहाँ खो गई-दिन भर फुर-फुर्र इधर से उधर मुँडेरों पर उड़ने वाली चिड़िया। वैज्ञानिकों का मनाना है कि जब से मोबाइल का चहुँदिश बोलबाला हुआ है तब से हमारी प्यारी गौरैया की चहचहाहट घुटकर रह गई है। मोबाइल फोन सिगनल की तरंगें वायुमंडल में यहाँ-वहाँ फैली रहती हैं जिस कारण ये नन्हें-नन्हें पक्षी स्वयं को उस वातावरण ढाल नहीं पाते। इनकी प्रजनन क्षमता कम हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप ये धीरे-धीरे सदा के लिए हमारी आँखों से ओझल होती जा रही हैं।
मुझे आज भी याद है अपने बचपन के वे दिन जब हम अपने आँगन के एक कोने में मिट्टी के कटोरे में पानी भरकर रख दिया करते थे। ढेरों चहचहाती चिड़ियाँ चोंच में पानी भर-भर कर पीया करती थीं। कोई-कोई तो पानी में घुस कर पंखों को फड़फड़ा कर डुबकियाँ भी खाती थीं। हमें तो यह देख तब अलौकिक आनंद आ जाया करता था। कभी-कभी वे मिट्टी में उलटी-सीधी होकर, पंखों . से मिट्टी उड़ा-उड़ा कर धूल स्नान किया करती थीं। बारिश के दिनों में वे आँगन में कपड़े सुखाने के लिए बाँधी प्लास्टिक की रस्सी
यों की तरह सज कर बैठ जाया करती थीं। कभी-कभी उनके साथ छोटे-छोटे बच्चे भी आया करते थे जिन्हें ये उड़ना
सिखाया करती थीं। रात को हमारी माँ हमें सोने से पहले रोज़ वही कहानी सुनाया करती थी-‘एक थी चिड़िया और एक था चिरैया, जिन में गहराआपसी प्यार था जो आपस में कभी नहीं लड़ते थे।’ अब तो वह मनोरंजक दृश्य आँखों से ओझल हो गया है। उनकी यादें ही रह गई हैं। नई पीढ़ी तो कभी-कभार चिड़िया-घर में । उन्हें देख अपने साथ आए बड़ों से पूछा करेगी-‘वह क्या है ?’ यह आज का बनावटी जीवन पता नहीं हमें अभी प्रकृति से कितना दूर ले जाएगा? शायद आने वाली पीढ़ी इस चहचहाहट को केवल मोबाइल की रिंग-टोन पर ही सुन पाएगी या फ़िल्मों में ही चिड़िया को ची-चीं करते देख पाएगी।
प्रश्न 2.
क्यों न परहेज़ करें हम पॉलीथीन से
उत्तर:
बहुत कुछ दिया है विज्ञान ने हमें-सुख भी, दुख भी। सुविधा से भरा जीवन हमारे लिए अनिवार्यता-सी बन गई है। बाजार से सामान खरीदने के लिए हम घर से बाहर निकलते हैं। अपना पर्स तो जेब में डाल लेते हैं पर सामान घर लाने के लिए कोई थैला या टोकरी साथ लेने की सोचते भी नहीं। क्या करना है उसका? फालतू का बोझ। लौटती बार तो सामान उठाकर लाना ही है तो जाती बार बेकार का बोझा क्यों ढोएँ।
जो दुकानदार सामान देगा वह उसे किसी पॉलीथीन के थैले या लिफाफे में भी डाल देगा। हमें उसे लाने में आसानी-न तो रास्ते में फटेगा और न ही बारिश में गीला होने से गलेगा। घर आते ही हम सामान निकाल लेंगे और पॉलीथीन डस्टबिन में या घर से बाहर नाली में डाल देंगे। किसी भी छोटे कस्बे या नगर के हर मुहल्ले से प्रतिदिन सौ-दो सौ पॉलीथीन के थैले या लिफ़ाफ़े तो घर से बाहर कूड़े के रूप में जाते ही हैं। वे नालियों में बहते हुए नालों में चले जाते हैं और फिर वे बिना बाढ़ के मुहल्लों में बाढ़ का दृश्य दिखा देते हैं।
पानी में उन्हें गलना तो है नहीं। वे बहते पानी को रोक देते हैं। उनके पीछे कूड़ा इकट्ठा होता जाता है और फिर वह नालियों-नालों के किनारों से बाहर आना आरंभ हो जाता है। गंदा पानी वातावरण को प्रदूषित करता है। वह मलेरिया फैलने का कारण बनता है। हम यह सब देखते हैं, लोगों को दोष देते हैं, जिस मुहल्ले में पानी भरता है उस में रहने वालों को गँवार की उपाधि से विभूषित करते हैं और अपने घर लौट आते हैं और फिर से पॉलीथीन की थैलियाँ नाली में बिना किसी संकोच बहा देते हैं। क्यों न बहाएँ-हमारे मुहल्ले में पानी थोड़े ही भरा है।
पॉलीथीन ऐसे रसायनों से बनता है जो ज़मीन में 100 वर्ष के लिए गाड़ देने से भी नष्ट नहीं होते। पूरी शताब्दी बीत जाने पर भी पॉलीथीन को मिट्टी से ज्यों-का-त्यों निकाला जा सकता है। जरा सोचिए, धरती माता दुनिया की हर चीज़ हज़म कर लेती है पर पॉलीथीन तो उसे भी हज़म नहीं होता। पॉलीथीन धरती के स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है। यह पानी की राह को अवरुद्ध करता है, खनिजों का रास्ता रोक लेता है। यह ऐसी बाधा है जो जीवन के सहज प्रवाह को रोक सकता है। यदि कोई छोटा बच्चा या मंद बुद्धि व्यक्ति अनजाने में पॉलीथीन की थैली को सिर से गर्दन तक डाल ले फिर उसे बाहर न निकाल पाए तो उसकी मृत्यु निश्चित है।
हम धर्म के नाम पर पुण्य कमाने के लिए गायों तथा अन्य पशुओं को पॉलीथीन में लिपटी रोटी-सब्जी के छिलके, फल आदि ही डाल देते हैं। वे निरीह पशु उन्हें ज्यों-का-त्यों निगल जाते हैं जिससे उनकी आँतों में अवरोध उत्पन्न हो जाता है और वे तड़प-तड़प कर मर जाते हैं। ऐसा करने से हमने पण्य कमाया या पाप? जरा सोचिए नदियों और नहरों में हम प्रायः पॉलीथीन अन्य सामग्रियों के साथ बहा देते हैं जो उचित नहीं है। सन 2005 में इसी पॉलीथीन और अवरुद्ध नालों के कारण वर्षा ऋतु में आधी मुंबई पानी में डूब गई थी।
हमें पॉलीथीन से परहेज करना चाहिए। इसके स्थान पर कागज़ और कपड़े का इस्तेमाल करना अच्छा है। रंग-बिरंगे पॉलीथीन तो वैसे भी कैंसरजनक रसायनों से बनते हैं। काले रंग के पॉलीथीन में तो सबसे अधिक हानिकारक रसायन होते हैं जो बार-बार पुराने पॉलीथीन के चक्रण से बनते हैं। अभी भी समय है कि हम पॉलीथीन के भयावह रूप से परिचित हो जाएँ और इसका उपयोग नियंत्रित रूप में ही करें।
प्रश्न 3.
रिक्शा…..ओ रिक्शावाले
उत्तर:
बड़ी जानी-पहचानी आवाज़ है यह-‘रिक्शा….. ओ रिक्शावाले’। हर सड़क पर, हर गली-मुहल्ले में और छोटे-बड़े शहर में यह आवाज़ हमें प्रायः सुनाई दे जाती है। कुछ कम दूरी तय करने तथा छोटा-मोटा सामान ढोने के लिए सबसे उपयोगी साधन है रिक्शा-यदि हमारे अपने पास साइकिल, स्कूटर, मोटरसाइकिल, कार आदि न हो तो रिक्शा ऐसा साधन है जो, सस्ती की सस्ती और आराम का आराम। इसमें बस एक ही कष्टकारी पक्ष है कि आदमी को आदमी ढोने पड़ते हैं। रिक्शा चलाने वाले का शारीरिक कष्ट सवारियों के सुख का कारण बनता है।
भूख मनुष्य से क्या-क्या नहीं करवाती? रिक्शा चलाने वालों से बोझा खिंचवाती है। दुबले-पतले, बेकारी की मार को झेलने वाले, अपने और अपने परिवार का पेट भरने के लिए रिक्शा चलाने वाले हर राज्य के हैं पर कुछ विशेष राज्यों के मेहनती लोग अपेक्षाकृत दूसरे संपन्न राज्यों में जाकर यह कार्य बड़ी संख्या में करते हैं। वे वहाँ रहते हैं; दिन-रात मेहनत करते हैं, धन कमाते हैं, कुछ स्वयं खाते हैं और अधिक अपने घरों में रहने वाले को भेज देते हैं ताकि वहाँ उनकी रोटी चल सके। बहुत कम रिक्शावाले अपने परिवारों को अपने साथ दूसरे राज्यों में लाते हैं और सपरिवार रहते हैं। वे कमर कसकर मेहनत करते हैं पर बहुत सीधा-सादा खाना खाते हैं। फटा-पुराना पहनते हैं और पैसा बचाते हैं ताकि अपनों के कष्ट दूर कर सकें। अधिकतर रिक्शा चालकों के पास अपन रिक्शा नहीं होता। वे किराये पर रिक्शा लेकर सवारियाँ ढोते हैं और उनसे पैसे लेते हैं।
हमारी एक मानसिकता बड़ी विचित्र है। घर में जब कोई भिखारी भीख माँगने आता है तो हम अपने परलोक को सुधारने के लिए बिना मोलभाव किए उन्हें कुछ पैसे देते हैं, रोटी-सब्जी देते हैं और कभी-कभी तो पुराने कपड़े भी दे देते हैं। उन्होंने कोई परिश्रम नहीं कम्मेपन के प्रतीक हैं। कई हटे-कटटे भिखारी साध बाबा का वेश धारण कर लोगों को डराते भी हैं और पैसे भी ऐंठते हैं पर किसी भी रिक्शा में बैठने से पहले हम रिक्शा वाले से चार-पाँच कम कराने के लिए अवश्य बहस करते हैं।
उस समय हम यह नहीं सोचते कि ये उन मुफ्तखोर भिखारियों से तो लाख गुना अच्छे हैं। ये परिश्रम करके खाते हैं। यदि उन परिश्रम न करनेवालों को हमें दे सकते हैं तो इन परिश्रम करने वालों को क्यों नहीं दे सकते। सुबह-सवेरे कुछ रिक्शा चालक छोटे-छोटे बच्चों को स्कूल छोड़ने जाते दिखाई देते हैं। वे बच्चों के साथ कभी बच्चे बने होते हैं . और कभी उनके अध्यापक। बच्चे ऊँचे स्वर में गाते जाते हैं, साथ में रिक्शा चलाने वाले भी गाते हैं। वे रोते बच्चों को चुप कराते हैं और शरारती बच्चों को डाँटते-डपटते हुए स्कूल तक ले जाते हैं।
रिक्शा चलाने वालों का जीवन बड़ा कठोर है। कमज़ोर शरीर और शारीरिक श्रम का सख्त काम। बरसात के दिनों में ये स्वयं तो रिमझिम बारिश अपने ऊपर झेलते हैं पर सवारियों को सूखा रखने का पूरा प्रबंध करते हैं। कुछ रिक्शा चालकों का सौंदर्य बोध उनकी रिक्शा से ही दिखाई दे जाता है। तरह-तरह की देवी-देवताओं और फ़िल्मी हस्तियों की तस्वीरें, रंग-बिरंगे प्लास्टिक के रिबन, सुंदर रंग-रोगन आदि से वे अपनी रिक्शा को सजाते-सँवारते हैं और बार-बार उसे कपड़े से साफ़ करते रहते हैं। … कभी-कभार कुछ रिक्शावाले सवारियों से झगड़ा भी कर लेते हैं। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। इससे मानसिक शांति भंग होती है और कार्य में बाधा उत्पन्न होती है।
प्रश्न 4.
मेरे स्कूल का माली
उत्तर:
मेरे स्कूल का माली है श्रीपाल। लगभग 40-50 वर्ष का दुबला-पतला छोटे कद का श्रीपाल अपनी उम्र से कुछ बड़ा लगता है। अभावों में पला वह खानदानी माली है। कहते हैं कि उसके पिता भी हमारे स्कूल में माली थे और उनके पिता देश की स्वतंत्रता से पहले किसी राजा । के राजमहल में यही कार्य करते थे। श्रीपाल पढ़ा-लिखा तो नहीं है पर. उसे अपने काम की बहुत अच्छी समझ है। उसकी समझ का परिणाम ही तो मेरे स्कूल में चारों तरफ़ फैली हरियाली और फूलों की इंद्रधनुषी छटा है। – कोई भी ऐसा नहीं जो मेरे स्कूल में आया हो और उसने यहाँ उगे पेड़-पौधों और फूलों की प्रशंसा न की हो। श्रीपाल का सौंदर्य बोध तो बड़ी उच्च कोटि का है।
उसे रंग-योजना की अच्छी समझ है। वह फूलों की क्यारियाँ इस प्रकार तैयार करता है कि हरे-भरे घास के मैदानों में तरह-तरह के रंगों की अनूठी शोभा बरबस यह सोचने को विवश कर देती है कि कितना बड़ा खिलाड़ी है रंगों का हमारा माली जो ईश्वर के रंगों को इतनी सोच-समझ कर व्यवस्था प्रदान करता है। उसकी पेड़-पौधों की कलाकारिता स्कूल के प्रवेश द्वार से ही अपने रंग दिखाना शुरू कर देती है। चार भिन्न-भिन्न रंगों की सदाबहार झाड़ियों से उसने स्कूल का पूरा नाम ऊँचाई से नीचे की ओर ढलान पर इतने सुंदर ढंग से तैयार किया ही है कि सड़क से गुजरने वाले हर व्यक्ति की नज़र उस पर अवश्य जाती है और वह मन ही मन प्रायः लोग मानते हैं कि कैक्टस तो काँटों का झुरमुट होते हैं पर श्रीपाल ने स्कूल में कंकर-पत्थरों से रॉकरी बनाकर उस पर कैक्टस इतने सुंदर ढंग से लगाए हैं कि बस उनका कैंटीला सौंदर्य देखते ही बनता है। सौ-डेढ़ सौ से अधिक प्रकार के कैक्टस हैं उस रॉकरी में। कई तो फुटबॉल जितने गोल-मटोल और भारी-भरकम हैं। कई मोटे-मोटे तने वाले कैक्टस बड़े ही आकर्षक हैं।
हमारे स्कूल का परिसर बहुत बड़ा है और उस सारे में श्रीपाल की कला फूलों और पौधों के रूप में व्यवस्थित रूप से बिखरी हुई है। श्रीपाल की सहायता के लिए तीन माली और भी हैं पर वे सब वही करते हैं जो श्रीपाल उनसे करने के लिए कहता है। श्रीपाल बहुत मेहनती है। वह सर्दी-गर्मी, धूप-वर्षा, धुंध-आँधी आदि सब स्थितियों में खुरपा हाथ में लिए काम करता दिखाई देता है। वह परिश्रमी होने के साथ-साथ स्वभाव का बहुत अच्छा है।
उसने स्कूल के सारे विद्यार्थियों को इतने अच्छे ढंग से समझाया है कि वे स्कूल में लगे . फूलों की सराहना तो करते हैं पर उन्हें तोड़ते नहीं हैं। वैसे स्कूल प्रशासन ने भी जगह-जगह ‘फूल न तोड़ने’, ‘पौधों की रक्षा करने’ आदि की पट्टिकाएँ जगह-जगह पर लगाई हुई हैं। श्रीपाल सदा स्कूल की ड्रेस पहनता है तथा सभी से नम्रतापूर्वक बोलता है। उसे ऊँची आवाज़ में बोलते, लड़ते-झगड़ते कभी नहीं देखा। वास्तव में ही उसके कारण हमारा स्कूल फूलों की सुगंध से महकता रहता है।
प्रश्न 5.
चाँद-तारों को छूने की तमन्ना थी कल्पना चावला की
उत्तर:
कौन नहीं चाहता चाँद-तारों को छूना? माँ की गोद में मचलता नन्हा-सां बच्चा भी चाँद को पाने की इच्छा करता है। बड़े-बूढों को भगवान चाँद-तारों के उस पार प्रतीत होते हैं। पर चाँद-तारों को पाना आसान नहीं है, बस हम तो इनकी कल्पना ही कर सकते हैं पर करनाल की कल्पना ने इस कल्पना को साकार करने का प्रयत्न किया था। भले ही वह चाँद-तारे नहीं पा सकी पर उन्हें पाने की राह पर तो आगे अवश्य बढ़ी थी। प्रायः जिस उम्र में लड़कियों की आँखों में गुड़ियों के सपने सितारों की तरह झिलमिलाते हैं, कल्पना ने आँखों में चाँद-सितारों के सपने सजाना शुरू कर दिया था। अमेरिकी एजेंसी नासा में अपने सहयोगियों के बीच केसी के नाम से प्रसिद्ध कल्पना चावला हरियाणा के
करनाल नगर के ऐसे परिवार में जन्मी जिसका कठिन परिश्रम में अटूट विश्वास था। आँखों में चाँद-सितारों पर जाने के सपने और विरासत में मिली श्रम पर आस्था के दुर्लभ संगम ने उन्हें अंतरिक्ष में जाने वाली भारतीय मूल की प्रथम महिला का खिताब दिला दिया। हरियाणा के नगर करनाल से कोलम्बिया का यह सफर न तो आसान था और न ही इसके लिए कोई छोटा रास्ता था। करनाल के टैगोर बाल-निकेतन स्कूल से स्कूली शिक्षा, दयाल सिंह कॉलेज से उच्च शिक्षा, पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज से एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग की शिक्षा, टेक्सास यूनिवर्सिटी से एयरोस्पेस इंजीनियरिंग की मास्टर्स डिग्री और कोलराडो यूनिवर्सिटी से फिलॉसफी इन एयरोस्पेस इंजीनियरिंग की डॉक्टरेट की उपाधि के बीच कल्पना के कड़े संघर्ष की कल्पना की जा सकती है।
कल्पना का काम जितना चुनौती भरा था उसमें उनके पास काम के अतिरिक्त कुछ भी सोच पाने का अवसर बहुत कम था। शायद इसी कारण वह अपने हमपेशा ज्याँ पियरे हैरिसन की तरफ आकर्षित हुईं। विवाह के बाद जब कल्पना ने नासा में नौकरी की तो कैलिफोर्निया में फ्लाइंग प्रशिक्षक के तौर पर काम कर रहे हैरिसन भी अपनी नौकरी छोड़कर उनके सपनों की खातिर उनके साथ चले आए। कल्पना के मित्र बताते हैं कि शादी के बीस वर्ष बाद भी यह युगल निहायत प्रेम भरा जीवन जी रहा था और दोनों को उड़ानों से वापसी के समय रनवे पर एक-दूसरे का बेसब्री से इंतजार करते देखा जा सकता था।
कल्पना को भारतीय और रॉक संगीत का बहुत शौक था। चाय पीना, पंछियों की ओर निहारना और पूर्णमासी की रातों में खुले आकाश के नीचे घूमना जैसे शौक उनकी उपलब्धियों के साथ मिलकर उन्हें असाधारण व्यक्तियों के दर्जे में ला खड़ा करते हैं। अंतरिक्ष को अपना घर कहने वाली कल्पना अंतरिक्ष में 376 घंटे व्यतीत कर चुकी थीं। उन्होंने पृथ्वी की कुल 252 परिक्रमाएँ की थीं। जिंदगी और मौत के मात्र 16 मिनट के फासले से विधाता ने अपनी यह अमूल्य धरोहर हमसे वापस ले ली जो उसने मात्र 41 सालों के लिए हमें दी थी। टैक्सास की जमीन से दो लाख फीट की ऊँचाई पर जब अंतरिक्षयान की प्लेटें टूटकर गिरी थीं तो हमारा यह सितारा टूटा और सदा के लिए हमसे बिछुड़ गया।
प्रश्न 6.
गायब होती रौनकें
उत्तर:
पिछले कुछ दशकों में हमारे देश में आर्थिक परिवर्तन बड़ी तेजी से हुए हैं। इसका प्रभाव जन-सामान्य पर पड़ा है। घरों के अंदर एक क्रांति आई है, जो सुख-सुविधाएँ पहले राजाओं को नसीब नहीं थीं, अब आम आदमी के बूते में हैं। औरतों के लिए तो नई तकनीक चमत्कार है क्योंकि जहाँ पुरुषों का बाहर का काम लगभग वैसा ही रहा है, औरतों का घर में काम बहुत सरल हो गया है। पर सुखों के बावजूद अब चेहरों पर से रौनक गायब हो गई है।
शहर हो या गाँव उनका प्रबंध बिगड़ रहा है। बढ़ते मकानों, बढ़ती आबादी, बढ़ते वाहनों और घरों तक सेवाएँ पहुँचाने के चक्कर में शहरों का कबाड़ा होना शुरू हो गया है। कल तक आपको अपने शहर की जो सड़क अच्छी लगती थी, जो नदी कलकल करती मोहक लगती थी, जो बाग महकता रहता था अब या तो रहा ही नहीं या खराब हो गया है। सड़कें चौड़ी होनी थीं इसलिए पटरियों और उन पर लगे पेड़ काट दिए गए। जहाँ पेड़ों की छाया और चिड़ियाँ होती थीं वहाँ बिजली, टेलीफ़ोन और तरह-तरह की तारों के गुच्छे नज़र आते हैं। बागों में घास की जगह पक्के फर्श बन गए। शहरों में मिट्टी तो ईंटों-पत्थरों के नीचे छिपती ही चली जा रही है। कंकरीट के जंगल खड़े होते जा रहे हैं। प्रकृति के नाम पर कैक्टस के गमले रह गए हैं।
अगर कोई संदर भवन थे तो वे विज्ञापन बोर्डों से ढक गए। गलियों तक में चलना दूभर हो गया क्योंकि वे स्कूटरों, साइकिलों से भरी रहती हैं। जिन शहरों में कूड़ा उठाने का सही प्रबंध नहीं वहाँ तो जीवन नर्क में रहने जैसा हो गया है। घर अच्छा तो क्या, बाहर तो गंद ही गंद। अमेरिकी आर्किटेक्ट क्रिस्टोफर चार्ल्स बेर्नीयर की तो शिकायत है कि अब मकानों को इस तरह दीवारों में बंद किया जा रहा है मानो हर कोई दूसरे से भयभीत हो। हम सब चूहे के बिलों की तरह अपने चारों ओर दीवारें खड़ी करते जा रहे हैं।
यह भय अब शहर की सड़क से घुसकर कमरों में पहुँचने लगा है। अच्छा घर भी बंद कमरों वाला होने लगा है। एअरकंडीशनर की दया से हर व्यक्ति अपने दरवाजे बंद रखता है। सड़क पर गाड़ी, बंद दफ़्तर पर शीशे के दरवाजे, दुकान में घुसने से पहले परिचय-पत्र दिखाओ यानी हर व्यक्ति अपनी ही कैद में है।
इस कैद ने ही रौनक छीनी है। मानसिक तनाव, अकेलापन लगातार बढ़ रहा है। हर शहर में लाखों लोग बिलकुल अकेले हैं। शहर का आर्किटेक्चर, उसका प्रबंध, उसकी भागदौड़ ऐसी है कि हर कोई दूसरे से अकेले मिलने से भी कतरा रहा है। यह दुनिया को कहाँ ले जाएगा-उसकी कल्पना आज नहीं की जा सकती है पर समझा जा सकता है।
इसका हल यही है कि हम बराबर चाले का हाल पूछे, उसके दुःखदर्द में सम्मिलित हों। शहर के साथ होने वाले छल का विरोध करें, घर से आजादी पाएँ। शहर आपके लिए हो, आप शहर के लिए। चलिए बराबर वाले दरवाज़े को थपथपाइए शायद मुसकराता चेहरा मिल जाए। जब तक हम स्वयं पहल नहीं करेंगे तब तक पराए हमारे अपने नहीं. हो सकते। किसी पराए को अपना बनाने के लिए हमें उन्हें अपना बनाना होगा। संवादहीनता अभिशाप है। सब से मिलो तभी गायब होती रौनकें फिर से लौटेंगी।
प्रश्न 7.
मोर्चे पर सैनिकों के साथ एक दिन (Delhi C.B.S.E, 2016):
उत्तर:
सैनिक देश की रक्षा एवं सुरक्षा करते हैं। वे मोर्चे पर अपनी जान हथेली पर रखकर दिन-रात पहरेदारी करते हैं। सैनिकों के शौर्य . एवं वीरता को सुनकर मेरे मन में इच्छा हुई कि मैं भी इस पवित्र स्थल को जाकर देखू। मैंने मोर्चे पर सैनिकों के साथ एक दिन गुजारा।
मैं सैनिकों के शौर्य, वीरता एवं साहस को देखकर हैरान रह गया। मुझे यह देखकर अत्यंत आश्चर्य हुआ कि सैनिक किस प्रकार हँसते हँसते देश पर कुर्बान हो जाते हैं। सैनिक रात-दिन खतरों का सामना करते हैं किंतु फिर भी देशभक्ति की भावना से प्रेरित होकर वे दुश्मनों के छक्के छुड़ा देते हैं। मोर्चे पर सैनिकों के साथ एक दिन मेरे जीवन का स्वर्णिम दिन था। उस दिन मैंने निश्चय किया कि मैं भी एक सैनिक बनकर देश की रक्षा करूँगा।
प्रश्न 8.
भूकंप क्षेत्र से (Delhi C.B.S.E, 2016)
उत्तर:
गत वर्ष नेपाल में भीषण भूकंप आया था। अचानक धरती में इतनी ज्यादा कंपन हुई जिसके कारण चारों तरफ़ तबाही-ही-तबाही दिखाई दे रही थी। नेपाल ही नहीं भारत में भी कई स्थलों पर भारी नुकसान हुआ। इस भूकंप से लाखों लोग बेघर हो गए तथा हज़ारों लोग मारे गए। इससे जानमाल की भारी क्षति हुई। चारों तरफ केवल रोने-चिल्लाने की आवाजें सुनाई पड़ रही थी। अनेक लाशें मलबे के नीचे दबी-कुचली दिखाई दे रही थीं। बड़ा ही वीभत्स दृश्य वहाँ सब तरफ़ दिखाई दे रहा था। सैनिकों एवं वीर जवानों ने इस त्रासदी में लोगों की खूब सेवा की। उन्होंने घायलों को हस्पताल पहुंचाया। अनेक लोगों को मलबे के नीचे से निकाला तथा उनकी जान बचाई। उन्होंने पीड़ित लोगों तक खान-पान की वस्तुएँ पहुँचाईं।
प्रश्न 9.
‘चुनाव प्रचार का एक दिन’ (A.I. C.B.S.E, 2016)
उत्तर:
चुनाव का बिगुल बजते ही प्रचार-प्रसार का दौर प्रारंभ हो जाता है। नेता अपने समर्थकों के साथ गली-मोहल्लों में चुनाव प्रचार हेतु निकल पड़ते हैं। नेता सफ़ेद कपड़े धारण कर गली के प्रत्येक घर में जाता है और लोगों से हाथ जोड़कर वोट देने की अपील करता है। वह किसी के साथ हाथ मिलाता है तो किसी के चरण छूकर आशीर्वाद लेता है। वह एक दिन में समर्थकों के साथ हज़ारों लोगों के घर-घर जाकर प्रचार करता है। लोगों से झठे वादे करता है।
समर्थक बडे-बडे बैनर हाथों में लेकर नेता की जय-जयकार करते हैं। नारे लगाते हैं तथा लोगों से उसकी विजय का पताका फहराने की अपील करते हैं। नेता मंच पर खड़ा होकर जब किसी सभा को संबोधित करता है तो आकर्षक मुद्रा एवं शैली में लोगों से हज़ारों वादे करता है। उनके क्षेत्र में सभी तरह की सुविधाएँ देने का वादा करता है। …. इतना ही नहीं चलते-चलते भी लोगों से हाथ जोडकर वोट देने की अपील करता है। यदि कोई उन्हें कछ बरा-भला भी कह ज शांत बने रहने का नाटक करते हैं। वे प्रायः आपे से बाहर नहीं होते। वे मीठी और सभ्य भाषा में ही बोलने की चेष्टा करते हैं।
प्रश्न 10.
भीड़भरी बस के अनुभव (A.I. C.B.S.E., 2016)
उत्तर:
मैंने गत मास दिल्ली से चंडीगढ़ बस में सफर किया। उस दिन बस में बहुत भीड़ थी। बस यात्रियों से खचाखच भरी हुई थी। बस में इतनी भीड़ थी कि पैर रखने की भी जगह नहीं थी। लोग एक-दूसरे के ऊपर गिर पड़ रहे थे। जब भी बस में ब्रेक लगते लोग … आपस में टकरा जाते थे। बीच-बीच में कई बार तो कुछ लोगों में कहासुनी भी हुई किंतु कुछ लोगों ने उन्हें समझा-बुझाकर शांत कर दिया। बस लोगों से ऐसे सटी थी कि हवा भी पार नहीं हो सकती थी। गर्मी से लोगों का बुरा हाल था। सब लोग गर्मी के कारण कराह रहे थे। मुझे गर्मी से बहुत घबराहट हो रही थी। बड़ी मुश्किल से राम-राम जपते हुए संध्या के समय हम चंडीगढ़ पहुँचे। वास्तव में भीड़ भरी बस का यह अनुभव बहुत ही कड़वा सिद्ध हुआ।
प्रश्न 11.
स्वच्छ भारत : स्वस्थ भारत (Outside Delhi 2017)
उत्तर:
स्वच्छता स्वास्थ्य का प्रतीक है। जहाँ स्वच्छता होती है वहाँ स्वास्थ्य भी अच्छा होता है। स्वच्छ भारत स्वस्थ भारत की परिकल्पना आधुनिक युग की सोच है। यदि भारत स्वच्छ रहेगा तभी भारत स्वस्थ बन पाएगा। इसके विपरीत यदि देश में चारों तरफ गंदगी, कूड़े के ढेर होंगे तो हम स्वस्थ होने की कल्पना भी नहीं कर सकते। यह अभियान देश के कोने-कोने में चलाया जा रहा है कि हमने भारत को स्वच्छ बनाना है। बुजुर्ग ही नहीं युवा वर्ग भी इस अभियान में बढ़चढ़कर भाग ले रहे. हैं।
जहाँ भी गली-मोहल्ले, गाँव, शहर, पार्क में कूड़ा-कर्कट, गंदगी मिले वहाँ स्वच्छता अभियान चलाया जाना चाहिए। जब देश का प्रत्येक आदमी आत्मिक रूप से इस अभियान से जुड़ गया तब वास्तव में यह अभियान सफल हो जाएगा। यदि हमें अपने स्वास्थ्य को ठीक रखना है तो अपने चारों तरफ के वातावरण को स्वच्छ रखना हमारा परम कर्तव्य होना चाहिए। जब …. प्रत्येक देशवासी अपने चारों ओर का वातावरण स्वच्छ बनाने में अपनी कर्मनिष्ठा से और ईमानदारी से कर्म करेगा तब भारत अवश्य ही स्वस्थ होगा। अतः यह सत्य है कि स्वच्छ भारत तो स्वस्थ भारत।
प्रश्न 12.
‘वन रहेंगे : हम रहेंगे (Outside Delhi 2017)
उत्तर:
वन जीवन का प्रतीक है। वन है तो जीवन है। वन नहीं तो जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वनों से हमें अनेक बहुमूल्य एवं जीवनोपयोगी वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। वनों से हमें ऑक्सीजन प्राप्त होती है। यही वातावरण को शुद्ध बनाते हैं। यदि वन नहीं रहेंगे तो हमारा जीवन भी नष्ट हो जाएगा। वनों के न रहने से जीवन भी डगमगा जाएगा। वनस्पतियाँ नष्ट हो जाएंगी। वर्षा का संतुलन बिगड़ जाएगा। ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने से भयंकर परिस्थितियाँ बन जाएंगी।
नदियाँ अपने स्थान पर नहीं । रहेंगी। वातावरण का संतुलन बिगड़ जाएगा। वातावरण संतुलन बिगड़ने से जीवन का भी संतुलन बिगड़ जाएगा। यदि वातावरण ही जीवनोनुकूल न होगा तो जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वनों पर हमारा जीवन निर्भर है। यदि वन रहेंगे तो हम रहेंगे। वन नहीं रहेंगे तो हम भी नहीं रहेंगे।