NCERT Solutions for Class 8 Hindi Vasant Chapter 9 कबीर की साखियाँ

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कबीर की साखियाँ NCERT Solutions for Class 8 Hindi Vasant Chapter 9

Class 8 Hindi Chapter 9 कबीर की साखियाँ Textbook Questions and Answers

पाठ से

प्रश्न 1.
‘तलवार का महत्त्व होता है, म्यान का नहीं’-उक्त उदाहरण से कबीर क्या कहना चाहते हैं ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘तलवार का महत्त्व होता है, म्यान का नहीं’–इस उदाहरण से कबीर कहना चाहते हैं कि म्यान वैसे ही है जैसे किसी की जाति होती है। यह ऊपरी आवरण है अर्थात् थोपी गई विशेषता है। तलवार से आशय है-ज्ञान। ज्ञान ही किसी व्यक्ति की असली पहचान होता है। व्यक्ति का बाहरी दिखावा भी म्यान की तरह है, जिसे लोग बाहरी पहनावे एवं कर्मकाण्ड से दर्शाते हैं। असली शक्ति तो मन का चिन्तन एवं शुद्ध आचरण है।

प्रश्न 2.
पाठ की तीसरी साखी-जिसकी एक पंक्ति है-“मनुवाँ तो चहुँ दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं’ के द्वारा कबीर क्या कहना चाहते हैं ?
उत्तर:
इस पंक्ति के द्वारा कबीर कहना चाहते हैं कि चित्त की एकाग्रता ही सच्ची भक्ति है। जिसका मन चंचल है, कभी स्थिर नहीं रहता, किसी एक भाव पर नहीं टिकता, वह ईश्वर की सच्ची भक्ति नहीं कर सकता। जिसका मन इधर-उधर भटकता रहता है, वे पूजा या उपासना करने का ढोंग करते रहते हैं।

प्रश्न 3.
कबीरदास घास की निन्दा करने से क्यों मना करते हैं ? पढ़े हुए दोहे के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘घास’ से कबीर जी का आशय है-छोटे लोग, दबे-कुचले या प्रताड़ित लोग जो किसी भी डाँट-फटकार का विरोध करने की स्थिति में नहीं होते। कबीर ऐसे लोगों की निन्दा करने से मना करते हैं। कबीर ने अपने एक और दोहे ‘दुर्बल को न सताइए’ में भी ऐसी ही बात कही है। यदि आप समर्थ हैं तो असमर्थ लोगों की निन्दा मत करो। ऐसा करने से कोई बड़ा नहीं हो सकता। जिन्हें छोटा समझा जाता है, अगर वे विरोध करेंगे या पलटकर जवाब देंगे तो वह और अधिक दुःख का कारण बनेगा।

प्रश्न 4.
मनुष्य के व्यवहार में ही दूसरों को विरोधी बना लेने वाले दोष होते हैं। यह भावार्थ किस दोहे से व्यक्त होता है ?
उत्तर:
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन सीतल होय।
या आपा को डारि दे, दया करै सब कोय।।

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पाठ से आगे

प्रश्न 1.
“या आपा को डारि दे, दया करै सब कोय।”
“ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोय।”
इन दोनों पंक्तियों में ‘आपा’ को छोड़ देने या खो देने की बात की गई है।
‘आपा’ किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ? क्या ‘आपा’ स्वार्थ के निकट का अर्थ देता है या घमंड का ?
उत्तर:
‘आपा’ का अर्थ अहंकार या घमण्ड है। ‘आपा’ छोड़ने का मतलब है-घमण्ड का परित्याग करना।
‘आपा’ स्वार्थ के निकट का अर्थ नहीं देता है। स्वार्थ उस घमण्ड का एक भाग जरूर है। जहाँ घमण्ड या अहंकार होगा, वहाँ स्वार्थ खुद चला आएगा।

प्रश्न 2.
आपके विचार में आपा और आत्मविश्वास में तथा आपा और उत्साह में क्या कोई अंतर हो सकता है ? स्पष्ट करो।
उत्तर:
‘आपा’ होने पर यह विश्वास मजबूत हो जाता है कि जो कुछ भी हूँ, मैं ही हूँ अर्थात् आत्मविश्वास (भले ही गलत दिशा में हो) के बिना आपा या अहंकार मजबूत नहीं हो सकता।

‘उत्साह’ काम करने में जोश की भावना को कहते हैं। इसका ‘आपा’ अर्थात् घमण्ड से कोई संबंध नहीं है। उत्साह एक सकारात्मक सोच की भावना है। इसके द्वारा व्यक्ति अच्छे काम करने के लिए अग्रसर होता है।

प्रश्न 3.
सभी मनुष्य एक ही प्रकार से देखते-सुनते हैं पर एक समान विचार नहीं रखते। सभी अपनी-अपनी मनोवृत्तियों के अनुसार कार्य करते हैं। पाठ में आई कबीर की किस साखी से उपर्युक्त पंक्तियों के भाव मिलते हैं, एकसमान होने के लिए आवश्यक क्या है ? लिखिए।
उत्तर:
उपर्युक्त भाव वाली साखी-
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन सीतल होय।
या आपा को डारि दे, दया करै सब कोय ॥

एक समान होने के लिए मन शांत और शीतल होना चाहिए। अहंकार को छोड़ देना चाहिए। फिर सभी मनुष्य एक जैसे लगेंगे। कोई भी वैरी नहीं होगा। सब समान आचरण करेंगे।

प्रश्न 4.
कबीर के दोहों को ‘साखी’ क्यों कहा गया है ? ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
कबीर के दोहे ज्ञान के ‘साक्षी’ हैं, गवाह हैं। इनमें जीवन की कोई न कोई सीख या शिक्षा दी गई है। इसलिए इन्हें ‘साखी’ कहा गया है।

भाषा की बात

प्रश्न 1.
बोलचाल की क्षेत्रीय विशेषताओं के कारण शब्दों के उच्चारण में परिवर्तन होता है, जैसे-वाणी शब्द बानी बन जाता है। मन से मनवा, मनुवा आदि हो जाता है। उच्चारण के परिवर्तन से वर्तनी भी बदल जाती है। नीचे कुछ शब्द दिए जा रहे हैं, उनका वह रूप लिखिए जिससे आपका परिचय हो। ग्यान, जीभि, पाऊँ, तलि, आँखि, बैरी।
उत्तर:
ग्यान-ज्ञान; जीभि-जिह्वा, जीभ; पाऊँ-पाँव; तलि-तले; आँखि-आँख; बैरी-वैरी।

सप्रसंग व्याख्या

1. जाति न पूछो साध की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥1॥

प्रसंग- यह दोहा संत कवि कबीरदास जी द्वारा रचित है। कबीर जी ने इस दोहे में ज्ञान का महत्त्व बताया है और जाति आदि के महत्त्व को नकारा है।

व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि साधु का महत्त्व केवल ज्ञान से होता है। इसलिए किसी साधु की जाति आदि पूछना बेकार है। अगर पूछना है तो उसका ज्ञान पूछ लीजिए। पता कर लीजिए कि साधु ज्ञानी है या नहीं। अगर मोल करना है तो सिर्फ तलवार का करो। म्यान का मोल करने से क्या लाभ ? सज्जनों का भी ज्ञान ही महत्त्वपूर्ण होता है। जाति बड़ी होने से कोई व्यक्ति बड़ा नहीं हो जाता।

विशेष-

  • ‘तलवार’ ज्ञान का और ‘म्यान’ जाति का प्रतीक है।
  • कबीर जी ने जाति-पांति के दिखावे का विरोध किया है।

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2. आवत गारी एक है, उलटत होई अनेक।
कह कबीर नहिं उलटिए, वही एक ही एक ॥2॥

प्रसंग- कबीर दास जी ने इस ‘साखी’ में दुर्वचन के बदले दुर्वचन बोलने का विरोध किया है।

व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि जब कोई किसी को गाली देता है तो वह एक ही होती है। जब कोई पलटकर गाली के बदले गाली देने लगता है तो वह अनेक हो जाती हैं क्योंकि परस्पर गाली देने का यह सिलसिला आगे बढ़ने लगता है। इस सिलसिले का कोई अंत नहीं है। कबीरदास जी कहते हैं कि यदि गाली को नहीं उलटते हैं अर्थात् अगर पलटकर गाली का जवाब गाली से नहीं देते है तो वह गाली सिर्फ एक ही बनी रहती है और आपसी विचार आगे नहीं बढ़ता है।

विशेष-

  • ‘कह कबीर’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • विवादों से दूर रहने की शिक्षा दी गई है।
  • सरल खड़ी बोली का प्रयोग किया है, जिसमें सधुक्कड़ी (साधुओं में प्रयोग की जाने वाली) भाषा का भी समावेश है।

3. माला तो कर में फिरै, जीभि फिरै मुख माँहि।
मनुवाँ तो चहुँ दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं ॥3॥

प्रसंग- जो लोग माला फेरकर भगवान का नाम लेने का ढोंग करते हैं, कबीर ने उनका विरोध किया है। इस दोहे में कबीर ने एक तरह से मन की एकाग्रता पर बल दिया है।

व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि माला तो हाथ में घूमती रहती है। जाप करने वाले उसके एक-एक दाने को घुमाते रहते हैं। जीभ जाप करते समय मुँह में घूमती रहती है। मन एक जगह टिकता नहीं। वह इधर-उधर बेकार की बातों में उलझा रहता है। उसका जाप से कोई तालमेल नहीं होता है। इसे भगवान का स्मरण नहीं कहा जा सकता। यह तो पूरी तरह से ढोंग है। भगवान का ध्यान करने के लिए मन को एकाग्र करना जरूरी है।

विशेष-

  • ‘मुख माँहि’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • माला फेरने को कबीरदास जी ने ढोंग बताया है।
  • मन की एकाग्रता ही सच्ची ईश्वर-आराधना है।

4. कबीर घास न नीदिए, जो पाऊँ तलि होई।
उड़ि पड़े जब आँखि मैं, खरी दुहेली होई ॥4॥

प्रसंग- कबीरदास जी ने इस साखी में विनम्र और प्रतिरोध न करने वाले व्यक्ति की निन्दा करने से मना किया है।

व्याख्या- छोटे कहलाने वाले व्यक्तियों को प्रायः कुछ बड़े लोग डाँटते-फटकारते रहते हैं। ऐसा व्यवहार करना उचित नहीं है। अगर पाँव के नीचे दबी हुई हो तो भी हमें घास की अर्थात् छोटे कहलाने वाले लोगों की निन्दा नहीं करनी चाहिए। हमें उनके साथ शालीन एवं सम्मानजनक व्यवहार करना चाहिए। उसी घास का एक तुच्छ तिनका अगर उड़कर आँख में गिर जाए तो बहुत पीड़ा होगी अर्थात् वह छोटा व्यक्ति अगर पलटकर जरा-सी भी बात कह देगा तो हमें बहुत तकलीफ होगी।

विशेष-

  • कबीर ने सबके साथ शालीन व्यवहार करने की सलाह दी है।
  • छोटा समझकर कभी किसी का निरादर या उपेक्षा करना ठीक नहीं है।
  • ‘घास’ छोटे या विरोध न करने वाले साधारण व्यक्ति का प्रतीक है।

5. जग में बैरी कोई नहीं, जो मन सीतल होय।
या आपा को डारि दे, दया करै सब कोय ॥5॥

प्रसंग- इस साखी में कबीरदास जी ने अहंकार को शत्रुता का मुख्य कारण माना है। शीतल मन वाले व्यक्ति के मन में कभी अहंकार की भावना नहीं आ सकती।

व्याख्या- जिस व्यक्ति का मन शांत एवं शीतल है, उसका संसार में कोई भी दुश्मन नहीं हो सकता। मनुष्य का घमण्ड ही उसके शत्रुओं की संख्या बढ़ाता है। यदि कोई व्यक्ति इस अहंकार को पूरी तरह छोड़ दे तो उस पर सब लोग दया करने लगेंगे। उसके प्रति सबके मन में अपनेपन और आदर की भावना उत्पन्न हो जाएगी।

विशेष-

  • कबीर ने अहंकार को शत्रुता का मूल कारण माना है।
  • ‘आपा’ का प्रयोग अहंकार के लिए किया गया है।

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कबीर की साखियाँ Summary

पाठ का सार

‘साखी’ शब्द मूलतः साक्षी से बना है। कबीर ने साखियाँ ‘दोहा’ छन्द में प्रस्तुत की हैं। इन दोहों में कबीर ने जीवन की विभिन्न ‘सीख’ या ‘शिक्षा’ प्रस्तुत की है।

शब्दार्थ : साध-साधु, सज्जन; तरवार-तलवार; आवत-आते समय; गारी-गाली; उलटत-उलटना, पलटकर कहना; कर-हाथ; माँहि-में, भीतर; मनुवाँ-मन; दहुँ-दस; दिसि- दिशाओं में सुमिरन-स्मरण, याद करना; नाहिं-नहीं; न नीदिए-निंदा मत कीजिए; पाऊँ-पाँव; तलि-तले, नीचे होइ-होगी; उड़ि-उड़कर; खरी-सही, सच्ची; दुहेली-दुःख, कठिन; सीतल-शीतल, शांत; आपा-घमण्ड, अहंकार; डारि-डाल दीजिए, छोड़ दीजिए; सब कोय-सब कोई, हर आदमी।

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