CBSE Class 12

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 1 Bricks, Beads and Bones The Harappan Civilisation (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 1 Bricks, Beads and Bones The Harappan Civilisation (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 1 Bricks, Beads and Bones The Harappan Civilisation (Hindi Medium)

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अभ्यास-प्रश्न
(NCERT Textbook Questions Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
हड़प्पा सभ्यता के शहरों में लोगों को उपलब्ध भोजन सामग्री की सूची बनाइए। इन वस्तुओं को उपलब्ध कराने वाले समूहों की पहचान कीजिए।
उत्तर:
शहरों में रहने वाले हड़प्पा सभ्यता के लोगों की भोजन सामग्रियाँ हैं-

  1. पेड़-पौधों के उत्पाद,
  2. अंडे, मांस और मछली,
  3. विभिन्न प्रकार के अनाज; जैसे-गेहूँ, जौ, चावल, सफ़ेद चना, दालें और तिलहन आदि
  4. दूध, दही, घी एवं संभवत: शहद। पुरातत्वविदों ने हड़प्पा से प्राप्त जले हुए अनाज के दानों, बीजों और हड्डियों आदि की सहायता से वहाँ के लोगों की खान-पान की आदतों का पता लगाया है।

हड़प्पा के लोग अधिक मात्रा में पेड़-पौधों के उत्पादों और जानवरों से प्राप्त उत्पादों का सेवन करते थे तथा भेड़-बकरी, गाय, भैंस आदि को दूध के लिए पालते थे तथा मछली, हिरन, सांभर बारहसिंगा और सूअर को मांस के लिए पालते थे। पूर्व और प्रौढ़ हड़प्पाई लोगों द्वारा इसी भोजन का उपयोग किया जाता था। गुजरात के लोग दुधारू पशुओं को ज्यादातर पालते थे। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा आदि की खुदाई से कछुओं की भी हड्डियाँ प्राप्त हुई हैं। सेलखड़ी की बनी नींबू की पत्ती से स्पष्ट है कि लोग नींबू, खजूर, अनार और नारियल जैसे फलों की भी जानकारी रखते थे। बड़े-बड़े घरों में अन्न के भंडार थे। अनाज के संरक्षण से पता चलता है कि हड़प्पा में अन्न का आगमन और निर्गमन शासन द्वारा नियंत्रित रहा होगा। यही नहीं, अनाज विनिमय का एक सबसे महत्त्वपूर्ण साधन रहा होगा।

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प्रश्न 2.
पुरातत्वविद हड़प्पाई समाज में सामाजिक-आर्थिक भिन्नताओं का पता किस प्रकार लगाते हैं? वे कौन-सी भिन्नताओं पर ध्यान देते हैं?
उत्तर: 
पुरातत्त्वविद किसी संस्कृति विशेष के लोगों की सामाजिक एवं आर्थिक भिन्नताओं का पता लगाने के लिए अनेक विधियों का प्रयोग करते हैं। इनमें से दो प्रमुख विधियाँ हैं-शवाधानों का अध्ययन और विलासिता की वस्तुओं की खोज। |

1. शवाधानों का अध्ययन-
शवाधानों का अध्ययन सामाजिक एवं आर्थिक भिन्नताओं का पता लगाने का एक महत्त्वपूर्ण तरीका है। हड़प्पाई शवाधानों का अध्ययन करते हुए पुरातत्त्वविदों को अनेक भिन्नताएँ दृष्टिगोचर हुईं। उल्लेखनीय है कि हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न पुरास्थलों से जो शवाधान मिले हैं, उनसे स्पष्ट होता है कि मृतकों को सामान्य रूप से गर्ते अथवा गड्ढों में दफनाया जाता था। किंतु सभी शवाधान गर्तों की बनावट एक जैसी नहीं थी। अधिकांश शवाधान गर्तो की बनावट सामान्य थी, किंतु कुछ सतहों पर ईंटों की चिनाई की गई थी। गर्गों की बनावट में पाई जाने वाली विविधताओं से लगता है कि संभवतः हड़प्पाई समाज में भिन्नताएँ विद्यमान थीं। ईंटों की चिनाई वाले गर्त उच्चाधिकारी वर्ग अथवा संपन्न वर्ग के शवाधान रहे होंगे। शवाधान गर्गों में शव सामान्य रूप से उत्तर-दक्षिण दिशा में रखकर दफनाए जाते थे। कुछ कब्रों में शव मृदभांडों और आभूषणों के साथ दफनाए गए मिले हैं और कुछ में ताँबे के दर्पण, सीप और सुरमे की सलाइयाँ भी मिली हैं। कुछ शवाधानों से बहुमूल्य आभूषण एवं अन्य सामान मिले हैं, तो कुछ से बहुत ही सामान्य आभूषणों की प्राप्ति हुई है। हड़प्पा में एक कब्र में ताबूत भी मिला है।

एक शवाधान में एक पुरुष की खोपड़ी के पास से एक ऐसा आभूषण मिला है जिसे शंख के तीन छल्लों, जैस्पर (एक प्रकार का उपरत्न) के मनकों और सैकड़ों छोटे-छोटे मनकों से बनाया गया था। कालीबंगन में छोटे-छोटे वृत्ताकार गड्ढों में राखदानियाँ तथा मिट्टी के बर्तन मिले हैं। कुछ गड्ढों में हड्डियाँ एकत्रित मिली हैं। इनसे स्पष्ट होता है कि हड़प्पाई समाज में शव का अंतिम संस्कार विभिन्न तरीकों से, कम-से-कम तीन तरीकों से, किया जाता था। शवों का सावधानीपूर्वक अंतिम संस्कार करने और आभूषण एवं प्रसाधन सामग्री उनके साथ रख देने जैसे तथ्यों से स्पष्ट होता है कि हड़प्पावासी मरणोपरांत जीवन में विश्वास करते थे। उल्लेखनीय है कि संभवतः हड़प्पाई लोग शवों के साथ बहुमूल्य वस्तुएँ दफनाने में विश्वास नहीं करते थे।

2. विलासिता की वस्तुओं का पता लगाना-
सामाजिक एवं आर्थिक भिन्नताओं के अस्तित्व का पता लगाने की एक अन्य विधि ‘विलासिता’ की वस्तुओं का पता लगाना है। शवाधानों से उपलब्ध होने वाली पुरावस्तुओं का अध्ययन करके पुरातत्त्वविद उन्हें दो वर्गों अर्थात् उपयोगी और विलास की वस्तुओं में विभक्त कर देते हैं। प्रथम वर्ग अर्थात् उपयोगी वस्तुओं के अंतर्गत दैनिक उपयोग की वस्तुएँ; जैसे–चक्कियाँ, मृभांड, सूइयाँ, झाँवा आदि आती हैं। इन्हें पत्थर अथवा मिट्टी जैसे सामान्य पदार्थों से सरलतापूर्वक बनाया जा सकता था। इस प्रकार की वस्तुएँ सामान्यतः सभी हड़प्पाई पुरास्थलों से प्राप्त हुई हैं। विलासिता की वस्तुओं के अन्तर्गत वे महँगी अथवा दुर्लभ वस्तुएँ सम्मिलित थीं जिनका निर्माण स्थानीय स्तर पर अनुपलब्ध पदार्थों से अथवा जटिल तकनीकों द्वारा किया जाता था।

ऐसी वस्तुएँ मुख्य रूप से हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे महत्त्वपूर्ण नगरों से ही मिली हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हड़प्पाई समाज में विद्यमान विभिन्नताओं का प्रमुख आधार आर्थिक घटक ही रहे होंगे। उदाहरण के लिए, कालीबंगन में मिले साक्ष्य से पता लगता है कि पुरोहित दुर्ग के ऊपरी भाग में रहते थे और निचले भाग में स्थित अग्नि वेदिकाओं पर धार्मिक अनुष्ठान करते थे। इस प्रकार पुरातत्त्वविद हड़प्पाई समाज की सामाजिक-आर्थिक भिन्नताओं का पता लगाने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण बातों जैसे विभिन्न लोगों की सामाजिक स्थिति, आर्थिक स्थिति, नगरों अथवा छोटी बस्तियों में निवास, खान-पान एवं रहन-सहन और शवाधानों से प्राप्त होने वाली बहुमूल्य अथवा सामान्य वस्तुओं आदि पर विशेष रूप से ध्यान देते हैं।

प्रश्न 3. 
क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि हड़प्पा सभ्यता के शहरों की जल-निकास प्रणाली, नगर-योजना की ओर संकेत करती है? अपने उत्तर के कारण बताइए।
अथवा हड़प्पा सभ्यता की जल-निकासी प्रणाली नगर-नियोजन की ओर संकेत करती है।” इस कथन की उदाहरण सहित पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
हड़प्पाई नगरों को स्थापना वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित ढंग से की गई थी। हम इस कथन से पूर्णरूप से सहमत हैं कि हड़प्पा सभ्यता
के नगरों की जल निकास प्रणाली नगर-योजना की ओर संकेत करती है। अपने उत्तर की पुष्टि में हम निम्नलिखित कारण प्रस्तुत कर सकते हैं

  1. प्रत्येक घर में पकी ईंटों से बनी छोटी नालियाँ होती थीं जो स्नानघरों तथा शौचालयों से जुड़ी होती थीं। इनके द्वारा घर का | गंदा पानी पास की गली में बनी हुई मध्य आकार की निकास नालियों तक पहुँच जाता था।
  2. मध्य आकार वाली नालियाँ बड़ी सड़कों के साथ-साथ बने हुए नालों में मिलती थीं। सामान्यतया नालियाँ लगभग 9 इंच
    चौड़ी और एक फुट गहरी होती थीं, किंतु कुछ इससे दुगुनी बड़ी होती थीं।
  3. नालियाँ पकी ईंटों से बनी तथा ढकी होती थीं। उनमें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर हटाने वाले पत्थर लगे होते थे ताकि आवश्यकतानुसार उन्हें हटाकर नालियों की सफाई की जा सके।
  4. ऐसा लगता है कि पहले नालियों के साथ गलियों का निर्माण किया गया था और फिर उनके अगल-बगल घरों को बनाया गया था, क्योंकि घरों की नालियों को गलियों से जोड़ने के लिए प्रत्येक घर की कम-से-कम एक दीवार का गली के साथ सटा होना आवश्यक था।
  5. बड़े नाले ईंटों से अथवा तराशे गए पत्थरों से ढके हुए होते थे। कुछ स्थलों में टोडा-मेहराबदार नाले भी मिले हैं। उनमें से एक लगभग 6 फुटा गहरा है जो संपूर्ण नगर के गंदे पानी को बाहर ले जाता था।
  6. मल-जल निकासी के मुख्य नालों पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर आयताकार हौदियाँ बनी होती थीं। नालियों के मोड़ों पर तिकोनी ईंटों का प्रयोग किया जाता था।
  7. घरों का कूड़ा-करकट नालियों में नहीं अपितु घरों के बाहर रखे गए ढके हुए कूड़ेदानों में डाला जाता था।
  8. जल निकासी प्रणालियाँ केवल बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं थीं। अनेक छोटी बस्तियों में भी इनके अस्तित्व के प्रमाण | मिले हैं। उदाहरण के लिए लोथल में निवास स्थानों का निर्माण कच्ची ईंटों से किया गया था, किंतु नालियाँ पकी ईंटों से बनाई गई थीं।

प्रश्न 4.
हड़प्पा सभ्यता में मनके बनाने के लिए प्रयुक्त पदार्थों की सूची बनाइए। कोई भी एक प्रकार का मनका बनाने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनके बनाने के लिए कई प्रकार के पदार्थ प्रयोग में लाए जाते थे-कार्जीलियन, जैस्पर, स्फटिक, क्वाटर्ज तथा सेलखड़ी जैसे
पत्थर, ताँबा, काँसा तथा सोने जैसी धातुएँ तथा फयॉन्स और पकी मिट्टी आदि। कुछ मनके दो या दो से अधिक पत्थरों को मिलाकर भी बनाए जाते थे। कुछ मनकों पर सोने का टोप होता था। ज्यामितीय आकारों को लिए, भिन्न-भिन्न रंग-रूप देकर उन मनकों को तैयार किया जाता था। मनकों पर अलग-अलग तरह के कृतियाँ और रंगों का इस्तेमाल होता था।

तकनीकी दृष्टि से मनकों पर अलग-अलग तरीकों से कार्य किया जाता था। सेलखड़ी जैसे मुलायम पत्थर से मनके बनाने का काम आसानी से ही हो जाता था। सेलखड़ी के चूर्ण से लेप तैयार करके साँचे में डालकर विभिन्न प्रकार के मनके तैयार किए जाते थे। कठोर या ठोस पत्थरों से मनके बनाने की प्रक्रिया जटिल थी। ऐसे पत्थरों से मात्र ज्यामितीय आकारों के मनके ही बनाए जाते थे। पुरातत्त्वविदों के अनुसार अकीक का लाल रंग एक जटिल प्रक्रिया द्वारा अर्थात् पीले रंग के कच्चे माल और उत्पादन के विभिन्न चरणों में मनकों को आग में पकाकर प्राप्त किया जाता था। सर्वप्रथम बड़े पत्थर को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ा जाता था। उनमें से बारीकी से शल्क निकाले जाते थे फिर मनके बनाए जाते थे। मनकों को अंतिम रूप देने के लिए घिसाई फिर पॉलिश फिर उनमें छेद किए जाते थे।

प्रश्न 5.
दिए गए चित्र को ध्यान से देखिए और उसका वर्णन कीजिए। शव किस प्रकार रखा गया है? उसके समीप कौन-सी वस्तुएँ रखी गई हैं? क्या शरीर पर कोई पुरावस्तुएँ हैं? क्या इनसे कंकाल के लिंग का पता चलता है?
उत्तर:
इस शव को देखने से पता चलता है कि शव को उत्तर-दक्षिण दिशा में रखकर दफनाया गया है। शव के साथ कुछ दैनिक उपयोग की वस्तुएँ रखी गई हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि हड़प्पा निवासी मरणोपरांत जीवन में विश्वास करते थे। शव के पास कुछ बर्तन रखे गए हैं। इनमें से एक पानी का जग है और दूसरे ढके हुए बर्तन में संभवतः खाने की सामग्री रखी गई होगी। शव के पास ही एक छोटी-सी तिपाई दिखाई देती है। इसके ऊपर की प्लेट को देखकर लगता है कि इसे खाना परोसने के लिए रखा गया होगा।

मृत शरीर पर कुछ पुरावस्तुएँ भी दिखाई देती हैं। यद्यपि ये स्पष्ट नहीं हैं। लगता है कि मृत चित्र 1.1: एक हडप्पाई शवाधान ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ शरीर को कुछ आभूषण पहनाए गए होंगे। मृत शरीर की पुरावस्तुओं से उसके लिंग का पता लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए हार, कंगन, भुजबंद, अंगूठी आदि स्त्री-पुरुष दोनों धारणा करते थे, किंतु चूड़ियाँ, करधनी, बाली, बुंदे, नथुनी और पाजेब जैसे आभूषणों का प्रयोग केवल महिलाएँ ही करती थीं।

निन्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)

प्रश्न 6.
मोहनजोदड़ो की कुछ विशिष्टताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मोहनजोदड़ो, सिंधु के लरकाना जिले में स्थापित था। सिंधी भाषा के अनुसार मोहनजोदड़ो का अर्थ है-“मृतकों अथवा प्रेतों का टीला”। यह नाम मोहनजोदड़ो के पतन के बाद इसे दिया गया। 5000 वर्ष पहले यह एक विकसित शहर था। यह सात बार स्थापित होकर पुनः नष्ट हुआ। इस पुरास्थल की खोज हड़प्पा के बाद ही हुई थी। संभवतः हड़प्पा सभ्यता का सर्वाधिक अनोखा पक्ष शहरी केंद्रों का विकास था। ऐसे ही केंद्रों में एक महत्त्वपूर्ण केंद्र मोहनजोदड़ो था। इसकी खुदाई से निम्नलिखित विशिष्टताएँ प्रकट हुई हैं
सुनियोजित नगर

  1. मोहनजोदड़ो एक विशाल शहर था जो 125 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ था। यह शहर दो भागों में विभक्त था। शहर के पश्चिम में एक दुर्ग या किला था और पूर्व में नीचे एक नगर बसा हुआ था।
  2. दुर्ग की संरचनाएँ कच्ची ईंटों के ऊँचे चबूतरे पर बनाई गई थी। इसमें बड़े-बड़े भवन थे, जो संभवतः प्रशासनिक अथवा धार्मिक केंद्रों के रूप में कार्य करते थे।
  3. दुर्ग के चारों ओर ईंटों की दीवार थी, जो दुर्ग को निचले शहर से अलग करती थी। दुर्ग में शासक और शासक वर्ग से संबंधित लोग रहते थे।
  4. निचले शहर का क्षेत्र दुर्ग की अपेक्षा कहीं अधिक बड़ा था। इसमें रिहायशी क्षेत्र होते थे, जिनमें सामान्य जन अर्थात् शिल्पी आदि रहते थे। निचले शहर के चारों ओर भी दीवार बनाई गई थी। निचले शहर में अनेक भवनों को ऊँचे चबूतरों पर बनाया गया था।
  5. नगर में प्रवेश करने के लिए परकोटे अर्थात् बाहरी चारदीवारी में कई बड़े-बड़े प्रवेशद्वार थे।
  6. नगर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में प्रवेश करने के लिए आंतरिक चारदीवारी में प्रवेशद्वार थे।
  7. नगर में अलग-अलग दिशाओं में ऊँची दीवार से घिरे हुए कई सेक्टर थे।
  8. प्रायः सभी बड़े मकानों में रसोईघर, स्नानागार, शौचालय और कुएँ होते थे। सभी बड़े मकानों का नक्शा लगभग एक जैसा था-एक चौरस आँगन और चारों तरफ कई कमरे।
  9. घरों के दरवाजे और खिड़कियाँ प्रायः सड़क की ओर नहीं खुलते थे। बड़े घरों में सामने के दरवाजे के चारों ओर एक कमरा अर्थात् पोल बना दिया जाता था ताकि सामने के मुख्यद्वार से घर के अंदर ताक-झाँक न की जा सके।

सुव्यवस्थित सड़कें एवं नालियाँ
मोहनजोदड़ो की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ इसकी सुव्यवस्थित सड़कें एवं नालियाँ थीं।

  1. सड़कें पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण की तरफ बिछी होती थीं और नगर को अनेक खंडों में विभक्त करती थीं।
  2. सड़कों का निर्माण इस प्रकार किया जाता था कि स्वयं हवा से ही उनकी सफाई होती रहती थी।
  3. मोहनजोदड़ो की सड़कों की चौड़ाई 13.5 फुट से 33 फुट तक थी। नालियाँ प्रायः 9 फुट से 12 फुट तक चौड़ी होती थीं।
  4. नालियाँ पकी ईंटों से बनी तथा ढकी हुई होती थीं। उनमें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर हटाने वाले पत्थर लगे होते थे ताकि आवश्यकतानुसार | नालियों की सफाई की जा सके।
  5. मल-जल की निकासी के लिए मुख्य कनालों पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर आयताकार हौदियाँ बनी होती थीं।
  6. एक टोडा-मेहराबदार नाला संपूर्ण नगर के गंदे पानी को बाहर ले जाता था।

विशाल स्नानागार, अन्नागार एवं भवन

  1. मोहनजोदड़ो का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक भवन स्नानागार है। इसका जलाशय दुर्ग के टीले में है। उत्तम कोटि की पकी ईंटों से बना स्नानागार स्थापत्यकला का सुंदर उदाहरण है। इस संरचना के अनोखेपन तथा दुर्ग क्षेत्र में कई विशिष्ट संरचनाओं के साथ, इसके मिलने से ऐसा लगता है कि इसका प्रयोग धर्मानुष्ठान संबंधी स्नान के लिए किया जाता होगा, जो आज भी भारतीय जनजीवन का आवश्यक अंग है।
  2. मोहनजोदड़ो की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता दुर्ग में मिलने वाला विएल अन्नागार है। इसमें ईंटों से बने सत्ताईस खंड (Blocks) थे, जिनमें प्रकाश के लिए आड़े-तिरछे रोशनदान बने हुए थे। अन्न भंडार के दक्षिण में ईंटों के चबूतरों की कई कतारें थीं। इन चबूतरों में से एक चबूतरे के मध्य भाग में एक बड़ी ओखली का बना निशान मिला है।
  3. मोहनजोदड़ो के दुर्ग क्षेत्र में विशाल स्नानागार की एक तरफ एक लंबा भवन (280 x 78 फुट) मिला है। इतिहासकारों के मतानुसार यह भवन किसी बड़े उच्चाधिकारी का निवास स्थान रहा होगा। महत्त्वपूर्ण भवनों में एक सभाकक्ष भी था, जिसमें पाँच-पाँच ईंटों की ऊँचाई की चार चबूतरों की पंक्तियाँ थीं। ये ऊँचे चबूतरे ईंटों के बने थे और उन पर लकड़ी के खंभे खड़े किए गए थे। इसके पश्चिम की ओर कमरों की एक कतार में एक पुरुष की प्रतिमा बैठी हुई मुद्रा में पाई गई है।

कुशल एवं व्यवस्थित नागरिक प्रबंध-
मोहनजोदड़ो का नागरिक प्रबंध अत्यधिक कुशल एवं व्यवस्थित था। यद्यपि यह कहना कठिन है कि हड़प्पा सभ्यता के शासक कौन थे; संभव है वे राजा रहे हों या पुरोहित अथवा व्यापारी। कांस्यकालीन सभ्यताओं में आर्थिक, धार्मिक एवं प्रशासनिक इकाइयों में कोई स्पष्ट भेद नहीं था। एक ही व्यक्ति प्रधान पुरोहित भी हो सकता था, राजा भी हो सकता था और धनी व्यापारी भी। किंतु इतना अवश्य कि मोहनजोदड़ो का नागरिक प्रबंध कुशल हाथों में था। प्रशासन अत्यधिक कुशल एवं उत्तरदायी था। सुनियोजित नगर, सफाई और जल-निकास की उत्तम व्यवस्था, अच्छी सड़कें, रात्रि के समय प्रकाश की व्यवस्था, यात्रियों की सुविधा के लिए सरायों की व्यवस्था, उन्नत व्यापार, माप-तौल के एकरूप मानक, सांस्कृतिक विकास, विकसित उद्योग-धंधे, संपन्नता आदि सभी इसके प्रबल प्रमाण हैं।

प्रश्न 7.
हड़प्पा सभ्यता में शिल्प उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल की सूची बनाइए और चर्चा कीजिए कि ये किस | प्रकार प्राप्त किए जाते होंगे?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के लोगों की शिल्प तथा उद्योग संबंधी प्रतिभा उच्चकोटि की थी। मिट्टी और धातु के बर्तन बनाना, मूर्तियाँ,
औजार एवं हथियार बनाना, सूत एवं ऊन की कताई, बुनाई एवं रंगाई, आभूषण बनाना, मनके बनाना, लकड़ी का सामान विशेष रूप से कृषि संबंधी उपकरण, बैलगाड़ी तथा नौकाएँ बनाना आदि उनके महत्त्वपूर्ण व्यवसाय थे। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चन्हुदड़ो, लोथल, धौलावीरा, नागेश्वर बालाकोट आदि शिल्प उत्पादन के महत्त्वपूर्ण केंद्र थे। चन्हुदड़ो की छोटी-सी बस्ती (7 हेक्टेयर क्षेत्र में विस्तृत) लगभग पूरी तरह शिल्प उत्पादन में लगी हुई थी।
शिल्प उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चा माल-
विभिन्न प्रकार के शिल्प उत्पादनों के लिए अनेक प्रकार के कच्चे माल की आवश्यकता थी। उदाहरण के लिए, चिकनी मिट्टी, पकी मिट्टी, ताँबा, टिन, काँसा, सोना, चाँदी, शंख, सीपियाँ, कौड़ियाँ, विभिन्न प्रकार के पत्थर; जैसे-अकीक, नीलम, स्फटिक, क्वार्ज, सेलखड़ी आदि, मिट्टी के बर्तन, सुइयाँ, फयान्स, तकलियाँ मनके, सुगंधित पदार्थ, कपास, सूत, ऊन, विभिन्न प्रकार की लकड़ियाँ, हड्डियाँ, घिसाई, पालिश और छेद करने के औजार आदि विभिन्न शिल्प उत्पादनों के लिए आवश्यक थे।
कच्चा माल प्राप्त करने के स्रोत–
विभिन्न शिल्प उत्पादों के लिए आवश्यक कच्चा माल अनेक उपायों द्वारा प्राप्त किया जाता था। कुछ कच्चा माल स्थानीय स्तर पर उपलब्ध था, किंतु कुछ जलोढ़क मैदान के बाहर से मँगवाना पड़ता था। इस प्रकार हड़प्पा सभ्यता के लोग शिल्प उत्पादनों के लिए उपमहाद्वीप और बाहर से कच्चा माल अनेक उपायों द्वारा प्राप्त करते थे।

  1. वस्त्र निर्माण के लिए सूत कपास से प्राप्त किया जाता था। कपास की खेती की जाती थी। ऊनी कपड़ों के निर्माण के लिए ऊन भेड़ों से प्राप्त किया जाता था।
  2. ईंटों, मिट्टी के बर्तनों, मूर्तियों एवं खिलौनों के लिए चिकनी मिट्टी स्थानीय रूप से उपलब्ध हो जाती थी। चोलीस्तान (पाकिस्तान) और बनावली (हरियाणा) से मिलने वाले मिट्टी के हल साक्षी हैं कि वहाँ उत्तम कोटि की चिकनी मिट्टी मिलती थी।
  3. हड्डयाँ विभिन्न पशुओं से प्राप्त की जाती थीं। मछलियों की हड्डियाँ मछुआरों से, पक्षियों की हड्डियाँ तथा जंगली पशुओं | की हड्डियों शिकारियों से अथवा स्वयं शिकार करके प्राप्त की जाती थीं।
  4. लकड़ी के हलों, विभिन्न वस्तुओं, औज़ारों एवं उपकरणों के निर्माण के लिए लकड़ी आस-पास के जंगलों से प्राप्त की | जाती थी। बढ़िया किस्म की लकड़ी मेसोपोटासिया से मँगवाई जाती थी।
  5. सुगंधित द्रव्यों को बनाने के लिए फयान्स जैसे मूल्यवान पदार्थ मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त किए जाते थे।
  6. हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने उन-उन स्थानों में अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं जिन-जिन स्थानों से आवश्यक कच्चा माल सरलतापूर्वक उपलब्ध हो सकता था। उदाहरण के लिए, इन्होंने नागेश्वर और बालाकोट में, जहाँ से शंख सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता था, अपनी बस्तियाँ स्थापित की थीं।
  7. वे कार्नीलियन मनके गुजरात से, सीसा दक्षिण भारत से और लाजवर्द मणियाँ कश्मीर और अफगानिस्तान से लेते थे।
  8. उन्होंने सुदूर अफगानिस्तान में शोर्तुघई में अपनी बस्ती स्थापित की क्योंकि यह स्थान नीले रंग के पत्थर यानी लाजवर्द मणि के सबसे अच्छे स्रोत के निकट था। इसी प्रकार लोथल जो कार्नीलियन (गुजरात में भडौंच), सेलखड़ी (दक्षिणी राजस्थान और उत्तरी गुजरात से) एवं धातु (राजस्थान से) के स्रोतों के निकट स्थित था।
  9. सिंधु सभ्यता के लोग कच्चे माल वाले क्षेत्रों में अभियान भेजकर भी वहाँ से कच्चा माल प्राप्त करते थे। इन अभियानों का प्रमुख उद्देश्य स्थानीय लोगों के साथ संपर्क स्थापित करना होता था। वे अभियान भेजकर राजस्थान के खेतड़ी क्षेत्र से ताँबा और दक्षिण भारत से सोना प्राप्त करते थे।
  10. हड़प्पाई लोग संभवतः अरब प्रायद्वीप के दक्षिण-पश्चिमी छोर पर स्थित ओमान से भी ताँबा मँगवाते थे। हड़प्पाई पुरावस्तुओं और ओमानी ताँबे दोनों में निकल के अंशों का मिलना दोनों के साझा उद्भव का परिचायक है। व्यापार संभवतः वस्तु विनिमय के आधार पर किया जाता था। वे बड़ी-बड़ी नावों एवं बैलगाड़ियों पर अपने तैयार माल को पड़ोस के इलाकों में ले जाते थे तथा उनके बदले धातुएँ तथा अन्य आवश्यक सामान ले आते थे। इन क्षेत्रों से जब-तब मिलने वाली हड़प्पाई पुरावस्तुओं से ऐसे संपर्को का संकेत मिलता है।

प्रश्न 8.
चर्चा कीजिए कि पुरातत्वविद किस प्रकार अतीत का पुनर्निर्माण करते हैं?
उत्तर:
जैसा कि हम देखते हैं कि विद्वानों को हड़प्पा में पाई गई लिपियों को पढ़ने में सफलता नहीं मिली। ऐसे में पुरातत्वविदों के लिए
पुरावस्तुएँ ही हड़प्पा संस्कृति के पुनर्निर्माण में सहायक रही हैं; जैसे-मिट्टी के बर्तन, औजार, आभूषण, धातु, मिट्टी और पत्थरों की घरेलू वस्तुएँ आदि। कुछ अजलनशील कपड़ा, चमड़ा, लकड़ी और रस्सी आदि लुप्त हो चुके हैं। कुछ चीजें ही बचीं हैं; जैसे–पत्थर, चिकनी मिट्टी, धातु और टेराकोटा आदि। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि शिल्पियों द्वारा कार्य करते हुए कुछ प्रस्तर पिंड और अपूर्ण वस्तुओं को उत्पादन के स्थान पर काटते या बनाते समय फेंक दिया जाता था, जिन्हें पुन: निर्मित नहीं किया जा सकता था। यही पुरावस्तुएँ हमारे लिए उपयोगी साबित हुई हैं। नहीं तो हमें संस्कृति के महत्त्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी अधूरी ही प्राप्त होती।। पुरातत्वविदों ने उन्हीं पुरावस्तुओं के आधार पर मानव जाति के क्रमिक विकास को चिहनित किया है। उनका वर्गीकरण धातु, मिट्टी, पत्थर, हड्डियों आदि में किया गया है।

पुरातत्वविदों ने दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रभाव मौसम और उन तत्कालीन कारणों को माना जो उन्हें आभूषणों और औज़ारों आदि पर दिखाई दिए। पुरातत्वविद पुरा वस्तुओं की पहचान एक विशेष प्रकार की प्रक्रिया द्वारा करते हैं। जैसे किसी संस्कृति विशेष में रहने वाले लोगों के बीच क्या सामाजिक और आर्थिक भिन्नताएँ थीं। जैसे हड़प्पा सभ्यता कालीन मिस्र के पिरामिडों में कुछ राजकीय शवाधान प्राप्त हुए, जहाँ बहुत बड़ी मात्रा में धन-संपत्ति दफनाई गई थी। पुरातत्वविदों ने कुछ घटनाओं को अनुमानित भी किया है। उदाहरणस्वरूप पुरातत्वविदों ने हड़प्पाई धर्म को अनुमान के आधार पर आँका है। अर्थात् कुछ विद्वान वर्तमान से अतीत की ओर बढ़ते हैं। कुछ नीतियाँ पात्रों के संबंध में और पत्थर की चक्कियों के बारे में युक्तिसंगत रही हैं तो कुछ धार्मिक प्रतीकों के संबंध में शंकाग्रस्त रहीं; जैसे-कई मुहरों पर रुद्र के चित्र अंकित हैं। पुरावस्तुओं की उपयोगिता की समझ हम आधुनिक समय में प्रयुक्त वस्तुओं से उनकी समानता के आधार पर ही लगाते हैं।

उदाहरणस्वरूप कुछ हड़प्पा स्थलों पर मिले कपास के टुकड़ों के विषय में जानने के लिए हमें अप्रत्यक्ष साक्ष्यों जैसे मूर्तियों के चित्रण पर निर्भर रहना पड़ता है तथा कुछ वस्तुएँ पुरातत्वविदों को अपरिचित लगीं तो उन्होंने उन्हें धार्मिक महत्त्व की समझ ली। कुछ मुहरों पर भी अनुष्ठान के दृश्य, पेड़-पौधे अर्थात् प्रकृति की पूजा के संकेत मिलते हैं तथा पत्थर की शंक्वाकार वस्तुओं को लिंग के रूप में दर्शाया गया है। पुरातत्त्वविदों ने कोटदीजी सिंधु नदी के तट पर 39 फीट नीचे मानव जीवनवृत्ति के अवशेष प्राप्त किए हैं। कौशांबी के निकट चावल और हड़प्पाकालीन मिट्टी के बर्तन मिले हैं। लोथल से बाँट, चूड़ियाँ और पत्थर के आभूषण भी प्राप्त हुए हैं। काले और लाल रंग की मिट्टी के बर्तन, आकृतियाँ और अवशेष मिले हैं। पुरातत्वविदों ने विभिन्न वैज्ञानिकों की मदद से मोहनजोदड़ो और हड़प्पा पर कार्य किए हैं। कई अन्वेषण, व्याख्या और विश्लेषण से निष्कर्ष निकाले हैं, जिनमें कुछ असफल भी रहे।

प्रश्न 9.
हड़प्पाई समाज में शासकों द्वारा किए जाने वाले संभावित कार्यों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
हडप्पा सभ्यता के राजनैतिक संगठन के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी कहना कठिन है। हमें ज्ञात नहीं है कि हड़प्पा के शासक कौन थे; संभव है वे राजा रहे हों या पुरोहित अथवा व्यापारी। कांस्यकालीन सभ्यताओं में आर्थिक, धार्मिक एवं प्रशासनिक इकाइयों में कोई स्पष्ट भेद नहीं था। एक ही व्यक्ति प्रधान पुरोहित भी हो सकता था, राजा भी हो सकता था और धनी व्यापरी भी। हंटर महोदय यहाँ के शासन को जनतंत्रात्मक शासन मानते हैं किंतु, पिग्गाट और व्हीलर के मतानुसार सुमेर एवं अक्कड़ के समान हड़प्पा में भी पुरोहित राजा शासन करते थे। कुछ विद्वानों के अनुसार हड़प्पा साम्राज्य पर दो राजधानियों-हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से शासन किया जाता था।

कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार संभवत: संपूर्ण क्षेत्र अनेक राज्यों, रजवाड़ों में विभक्त था और उनमें से प्रत्येक की एक अलग राजधानी थी; जैसे-सिंधु में मोहनजोदड़ो, पंजाब में हड़प्पा, राजस्थान में कालीबंगन और गुजरात में लोथल। कुछ अन्य विद्वानों के मतानुसार हड़प्पा सभ्यता में अनेक राज्यों का अस्तित्व नहीं था अपितु यह एक राजा के नेतृत्व में एक ही राज्य था। हड़प्पा सभ्यता के शासन का स्वरूप चाहे जो भी हो, इतना तो निश्चित है कि प्रशासन अत्यधिक कुशल एवं उत्तरदायी था। हड़प्पाई समाज में शासकों द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों को किया जाता होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि शासक राज्य में शांति व्यवस्था को बनाए रखने तथा आक्रमणकारियों से अपने राज्य की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी होता था। हड़प्पा सभ्यता के सुनियोजित नगर, सफाई तथा जल निकास की उत्तम व्यवस्था, अच्छी सड़कें, उन्नत व्यापार, माप-तौल के एकरूप मानक, सांस्कृतिक विकास, विकसित उद्योग-धंधे, संपन्नता आदि सभी इस तथ्य के प्रबल प्रमाण हैं कि हड़प्पा के शासक प्रशासनिक कार्यों में विशेष रुचि लेते थे। संभवतः हड़प्पा के शहरों की योजना में भी राज्य का महत्त्वपूर्ण भाग रहा होगा।

इतिहासकारों का विचार है कि प्राचीन विश्व में जहाँ-जहाँ नियोजित वस्तुओं के प्रमाण मिलते हैं वहाँ-वहाँ इस बात का पता चलती है कि सड़कों की योजना का विकास धीरे-धीरे नहीं हुआ अपितु एक विशेष ऐतिहासिक समय में इसका निर्माण हुआ और अनेक विषयों में बस्ती को फिर से बसाने के कारण ऐसा किया गया। इतिहासकारों का विचार है कि हड़प्पा के शहरों की ईंटों का एक जैसा आकार या तो ‘कड़े प्रशासनिक नियंत्रण के कारण था या इसलिए कि लोगों को व्यापक पैमाने पर ईंट बनाने । के लिए नियुक्त किया गया होगा। इसी प्रकार, हड़प्पा के विभिन्न स्थानों पर एक ही प्रकार के ताँबे, काँसे और मिट्टी के बर्तन मिलने से भी यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है। इसी प्रकार यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि विभिन्न नगरों की योजना भी राज्य द्वारा बनाई गई होगी और विभिन्न स्थलों पर सड़कों और नालियों के निर्माण का कार्य भी राज्य ने किया होगा। उल्लेखनीय है कि हड़प्पा के शहरी केंद्रों की योजना का अध्ययन करने पर वहाँ की नागरिक व्यवस्थाओं की देख-रेख और एक विशाल जल और निकास व्यवस्था का पता चलता है। निकास के लिए प्रत्येक गली में नाली बनी होती थी।

गली में बनी यह नाली पूरे शहर नियोजन का एक भाग थी। घर अपने-अपने ढंग से अलग-अलग इस कार्य को नहीं कर सकते थे। इसका स्पष्ट तात्पर्य है कि प्रशासन द्वारा स्वयं सभी कार्यों को नियंत्रित किया जाता था तथा इनकी देख-रेख का कार्य किया जाता था। ऐसा लगता है कि शिल्प उत्पादन और वितरण का कार्य भी शासकों द्वारा नियंत्रित होता था; यही कारण था कि कुछ उद्योग विशेष रूप से कम वजन वाले कच्चे माल अथवा ईंधन के स्रोत के निकट स्थित होते थे और कुछ वहाँ स्थित थे जहाँ उनकी खपत सबसे अधिक थी। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे नगरों में विशाल अन्नागारों का मिलना इसका प्रबल प्रमाण है कि हड़प्पाई शासकों को सदैव प्रजाहित की चिंता रहती थी, इसीलिए अनाजे को विशाल अन्नागारों में सुरक्षित रख लिया जाता था ताकि किसी भावी आपात स्थिति में उसका प्रयोग किया जा सके।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
पाठ्यपुस्तक के मानचित्र 1 में उन स्थलों पर पेंसिल से घेरा बनाइए जहाँ से कृषि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। उन स्थलों के आगे क्रास का निशान बनाइए जहाँ उत्पादन के साक्ष्य मिले हैं। उन स्थलों पर ‘क’ लिखिए जहाँ कच्चा माल मिलता था।
उत्तर:
स्वयं करें।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
पता कीजिए कि क्या आपके शहर में कोई संग्रहालय है? उनमें से एक को देखने जाइए, और किन्हीं दस वस्तुओं पर रिपोर्ट लिखिए और बताइए कि वे कितनी पुरानी हैं? वे कहाँ मिली थीं, और आपके अनुसार उन्हें क्यों प्रदर्शित किया गया है?
उत्तर:
हाँ, हमारे शहर में इंडिया गेट के पास राष्ट्रीय संग्रहालय है, वहाँ हमने जिन वस्तुओं को देखी उनमें से दस वस्तुओं के बारे में रिपोर्ट निम्नलिखित हैवस्तुएँ समय/काल स्थान प्रदर्शन का कारण
NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 1 (Hindi Medium) 1

प्रश्न 12.
वर्तमान समय में निर्मित और प्रयुक्त पत्थर, धातु और मिट्टी की दस वस्तुओं के रेखाचित्र एकत्रित कीजिए और उनकी तुलना अध्याय में दिए गए हड़प्पा सभ्यता के चित्रों से कीजिए, तथा आपके द्वारा उनमें पाई गई समानताओं और भिन्नताओं पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
स्वयं करें।

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NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 5 Through the Eyes of Travellers Perceptions of Society (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 5 Through the Eyes of Travellers Perceptions of Society (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 5 Through the Eyes of Travellers Perceptions of Society (Hindi Medium)

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अभ्यास-प्रश्न
(NCERT Textbook Questions Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)।

प्रश्न 1.
‘किताब-उल-हिन्द’ पर एक लेख लिखिए।
उत्तर:
अरबी में लिखी गई अल-बिरूनी की कृति ‘किताब-उल-हिन्द’ की भाषा सरल और स्पष्ट है। यह एक विस्तृत ग्रंथ है जो धर्म और दर्शन, त्योहारों, खगोल-विज्ञान, कीमिया, रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं, सामाजिक-जीवन, भार-तौल तथा मापन विधियों, मूर्तिकला, कानून, मापतंत्र विज्ञान आदि विषयों के आधार पर अस्सी अध्यायों में विभाजित है। सामान्यतः (हालाँकि हमेशा नहीं) अल-बिरूनी ने प्रत्येक अध्याय में एक विशिष्ट शैली का प्रयोग किया जिसमें आरंभ में एक प्रश्न होता था, फिर संस्कृतवादी परंपराओं पर आधारित वर्णन और अंत में अन्य संस्कृतियों के साथ एक तुलना।

आज के कुछ विद्वानों को तर्क है कि इस लगभग ज्यामितीय संरचना, जो अपनी स्पष्टता तथा पूर्वानुमेयता के लिए उल्लेखनीय है, का एक मुख्य कारण अल-बिरूनी का गणित की ओर झुकाव था। अल-बिरूनी जिसने लेखन में भी अरबी भाषा का प्रयोग किया था, ने संभवतः अपनी कृतियाँ उपमहाद्वीप के सीमांत क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए लिखी थीं। वह संस्कृत, पाली तथा प्राकृत ग्रंथों के अरबी भाषा में अनुवादों तथा रूपांतरणों से परिचित था। इनमें दंतकथाओं से लेकर खगोल विज्ञान और चिकित्सा संबंधी कृतियाँ सभी शामिल थीं, पर साथ ही इन ग्रंथों की लेखन-सामग्री शैली के विषय में उसका दृष्टिकोण आलोचनात्मक था और निश्चित रूप से वह उनमें सुधार करना चाहता था।

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प्रश्न 2.
इब्न बतूता और बर्नियर ने जिन दृष्टिकोणों से भारत में अपनी यात्राओं के वृत्तांत लिखे थे, उनकी तुलना कीजिए तथा अंतर बताइए।
उत्तर:
जहाँ इन बतूता ने हर उस चीज़ का वर्णन करने का निश्चय किया जिसने उसे अपने अनूठेपन के कारण प्रभावित किया और उत्सुक किया, वहीं बर्नियर एक भिन्न बुद्धिजीवी परंपरा से संबंधित था। उसने भारत में जो भी देखा, वह उसकी सामान्य रूप से यूरोप और विशेष रूप से फ्रांस में व्याप्त स्थितियों से तुलना तथा भिन्नता को उजागर करने के प्रति अधिक चिंतित था, विशेष रूप से वे स्थितियाँ जिन्हें उसने अवसादकारी पाया। उसका विचार नीति-निर्माताओं तथा बुद्धिजीवी वर्ग को प्रभावित करने का था ताकि वे ऐसे निर्णय ले सकें जिन्हें वह ‘सही’ मानता था। बर्नियर के ग्रंथ ‘ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर’ अपने गहन प्रेक्षण, आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि तथा गहन चिंतन के लिए उल्लेखनीय है।

उसके वृत्तांत में की गई चर्चाओं में मुग़लों के इतिहास को एक प्रकार के वैश्विक ढाँचे में स्थापित करने का प्रयास किया गया। वह निरंतर मुगलकालीन भारत की तुलना तत्कालीन यूरोप से करता रहा, सामान्यतया यूरोप की श्रेष्ठता को रेखांकित करते हुए। उसका भारत का चित्रण द्वि-विपरीतता के नमूने पर आधारित है, जहाँ भारत को यूरोप के प्रतिलोम के रूप में दिखाया गया है, या फिर यूरोप का ‘विपरीत’ जैसा कि कुछ इतिहासकार परिभाषित करते हैं। उसने जो भिन्नताएँ महसूस कीं, उन्हें भी पदानुक्रम के अनुसार क्रमबद्ध किया, जिससे भारत, पश्चिमी दुनिया को निम्न कोटि का प्रतीत हो।

प्रश्न 3.
बर्नियर के वृत्तांत से उभरने वाले शहरी केंद्रों के चित्र पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
बर्नियर मुगलकालीन शहरों को ‘शिविर नगर’ कहता है, जिससे उसका आशय उन नगरों से था जो अपने अस्तित्व और बने रहने के लिए राजकीय शिविर पर निर्भर थे। उसका विश्वास था कि ये राजकीय दरबार के आगमन के साथ अस्तित्व में आते थे और इसके कहीं और चले जाने के बाद तेजी से पतनोन्मुख हो जाते थे। उसने यह भी सुझाया कि इनकी सामाजिक और आर्थिक नींव व्यवहार्य नहीं होती थी और ये राजकीय प्रश्रय पर आश्रित रहते थे।

वास्तव में, सभी प्रकार के नगर अस्तित्व में थे—
उत्पादन केंद्र, व्यापारिक नगर, बंदरगाह नगर, धार्मिक केंद्र, तीर्थ स्थान आदि। इनका अस्तित्व समृद्ध व्यापारिक समुदायों तथा व्यावसायिक वर्गों के अस्तित्व का सूचक है। अहमदाबाद जैसे शहरी केंद्रों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे नगर सेठ कहा जाता था। अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग;, जैसे-चिकित्सक (हकीम तथा वैद्य), अध्यापक (पंडित या मुल्ला), अधिवक्ता (वकील), चित्रकार, वास्तुविद्, संगीतकार, सुलेखक आदि सम्मिलित थे।

प्रश्न 4.
इब्न बतूता द्वारा दास प्रथा के संबंध में दिए गए साक्ष्यों का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
इब्न बतूता के अनुसार, बाजारों में दासे किसी भी अन्य वस्तु की तरह खुलेआम बेचे जाते थे और नियमित रूप से भेंटस्वरूप एक-दूसरे को दिए जाते थे। जब इब्न बतूता सिंध पहुँचा तो उसने सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के लिए भेंटस्वरूप ‘घोड़े, ऊँट तथा दास’ खरीदे। जब वह मुल्तान पहुँचा तो उसने गवर्नर को ‘किशमिश बादाम के साथ एक दास और घोड़ा’ भेंट के रूप में दिए। इब्न बतूता बताता है कि मुहम्मद-बिन-तुगलक नसीरुद्दीन नामक धर्मोपदेशक के प्रवचन से इतना प्रसन्न हुआ कि उसे ‘एक लाख टके (मुद्रा) तथा दो सौ दास’ दे दिए। इब्न बतूता के विवरण से प्रतीत होता है कि दासों में काफी विभेद था। सुल्तान की सेवा में कार्यरत कुछ दासियाँ संगीत और गायन में निपुण थीं।

सुल्तान अपने अमीरों पर नज़र रखने के लिए दासियों को भी नियुक्त करता था। दासों को सामान्यतः घरेलू श्रम के लिए ही इस्तेमाल किया जाता था, और इब्न बतूता ने इनकी सेवाओं को, पालकी या डोले में पुरुषों और महिलाओं को ले जाने में विशेष रूप से अपरिहार्य पाया। दासों की कीमत, विशेष रूप से उन दासियों की, जिनकी आवश्यकता घरेलू श्रम के लिए थी, बहुत कम होती थी और अधिकांश परिवार जो उन्हें रख पाने में समर्थ थे, कम-से-कम एक या दो तो रखते ही थे।

प्रश्न 5.
सती प्रथा के कौन-से तत्वों ने बर्नियर का ध्यान अपनी ओर खींचा?
उत्तर:
उल्लेखनीय है कि यूरोपीय यात्रियों एवं लेखकों ने उन बातों का विस्तृत वर्णन करने में अधिक रुचि दिखाई थी, जो उन्हें
आश्चर्यजनक अथवा यूरोपीय समाजों से भिन्न दृष्टिगोचर हुई थीं। महिलाओं से किए जाने वाले व्यवहार को पूर्वी और पश्चिमी समाजों के मध्य भिन्नता का एक महत्त्वपूर्ण परिचायक समझा जाता था। अत: बर्नियर भारत में प्रचलित सती प्रथा के प्रति अत्यधिक आकर्षित हुआ और उसने इसके वर्णन को अपने वृत्तान्त का एक महत्त्वपूर्ण भाग बनाया। सती प्रथा मध्यकालीन हिन्दू समाज में व्याप्त कुप्रथाओं में सर्वाधिक घृणित प्रथा थी। ‘सती’ शब्द का अर्थ है-‘पतिव्रता और चरित्रवती स्त्री’, किंतु सामान्यतया इसका अर्थ पत्नी के अपने मृत पति के शरीर के साथ जल जाने की प्रथा से लिया जाता था। बर्नियर ने लिखा है कि कुछ महिलाएँ स्वेच्छापूर्वक खुशी-खुशी अपने पति के शव के साथ सती हो जाती थीं।

किंतु अधिकांश को ऐसा करने के लिए विवश कर दिया जाता था। लाहौर में एक बालिका के सती होने की घटना का अत्यधिक मार्मिक विवरण देते हुए उसने लिखा है, “लाहौर में मैंने एक बहुत ही सुन्दर अल्पवयस्क विधवा जिसकी आयु मेरे विचार में बाहर वर्ष से अधिक नहीं थी, की बलि होते देखी। उस भयानक नर्क की ओर जाते हुए वह असहाय छोटी बच्ची जीवित से अधिक मृत प्रतीत हो रही थी; उसके मस्तिष्क की व्यथा का वर्णन नहीं किया जा सकता; वह काँपते हुए बुरी तरह से रो रही थी; लेकिन तीन-चार ब्राह्मण, एक बूढ़ी औरत, जिसने उसे अपनी आस्तीन के नीचे दबाया हुआ था, की सहायता से उस अनिच्छुक पीड़िता को घातक स्थल की ओर ले गए।

उसे लकड़ियों पर बैठाया; उसके हाथ-पाँव बाँध दिए ताकि वह भाग न जाए और इस स्थिति में उस मासूम प्राणी को जिन्दा जला दिया गया। मैं अपनी भावनाओं को दबाने में असमर्थ था….” इस विवरण से स्पष्ट होता है कि सती प्रथा के अन्तर्गत सती होने वाली महिलाओं की अल्पवयस्कता, अनीच्छा, व्यथा, विवशता एवं असहायता जैसे तत्वों ने बर्नियर का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया था।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
जाति व्यवस्था के संबंध में अल-बिरूनी की व्याख्या पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
सुप्रसिद्ध अरब लेखक अल-बिरूनी ने भारत के विषय में अपनी विभिन्न पुस्तकों में लिखा, जिनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान ।
‘किताब-उल-हिन्द’  का है, जिसे ‘तहकीक-ए-हिन्द’ के नाम से भी जाना जाता है। अल-बिरूनी ने भारत की सामाजिक दशा, रीति-रिवाजों, भारतीयों के खान-पान, वेशभूषा, उत्सव त्योहार, आमोद-प्रमोद आदि के विषय में विस्तारपूर्वक लिखा है।

जाति व्यवस्था :
जाति व्यवस्था का वर्णन करते हुए अल-बिरूनी ने लिखा है, “सबसे ऊँची जाति ब्राह्मणों की है, जिनके विषय में हिन्दुओं के ग्रंथ हमें बताते हैं कि वे ब्रह्मा के सिर से उत्पन्न हुए थे और क्योंकि ब्रह्मा प्रकृति नामक शक्ति का ही दूसरा नाम है और सिर… शरीर का सबसे ऊपरी भाग है, इसलिए ब्राह्मण पूरी प्रजाति के सबसे चुनिंदा भाग हैं। इसी कारण से हिन्दू उन्हें मानव जाति में सबसे उत्तम मानते हैं।

अगली जाति क्षत्रियों की है जिनका सृजन ऐसा कहा जाता है, ब्रह्मा के कन्धों और हाथों से हुआ था। उनका दर्जा ब्राह्मणों से अधिक नीचे नहीं है। उनके पश्चात् वैश्य आते हैं, जिनका उद्भव ब्रह्मा की जंघाओं से हुआ था। शूद्र, जिनका सृजन चरणों से हुआ था। अंतिम दो वर्गों के बीच अधिक अंतर नहीं है। किंतु इन वर्गों के बीच भिन्नता होने पर भी ये एक साथ एक ही शहरों और गाँवों में रहते हैं; समान घरों और आवासों में मिल-जुलकर।

जाति व्यवस्था की तुलना प्राचीन फारस की सामाजिक व्यवस्था से
अल-बिरूनी ने भारत में विद्यमान जाति व्यवस्था को अन्य समुदायों में प्रतिरूपों की खोज के द्वारा समझने का प्रयास किया। उसने इस व्यवस्था की व्याख्या करने में भी अन्य समुदायों के प्रतिरूपों का आश्रय लिया। उसने भारत में विद्यमान वर्ण-व्यवस्था की तुलना प्राचीन फारस की सामाजिक व्यवस्था से करते हुए लिखा कि प्राचीन फारस के समाज में भी घुड़सवार एवं शासक वर्ग; भिक्षु, आनुष्ठानिक पुरोहित और चिकित्सक; खगोलशास्त्री एवं अन्य वैज्ञानिक और अंत में कृषक एवं शिल्पकार, ये चार वर्ग अस्तित्व में थे। इस प्रकार, अल-बिरूनी यह स्पष्ट कर देना चाहता था कि ये सामाजिक वर्ग केवल भारत तक ही सीमित नहीं थे। इसके साथ-ही-साथ अल-बिरूनी ने यह भी स्पष्ट किया कि इस्लाम में इस प्रकार का कोई वर्ग विभाजन नहीं था; सामाजिक दृष्टि से सभी लोगों को समान समझा जाता था; उनमें भिन्नताएँ केवल धार्मिकता के पालन के आधार पर विद्यमान थीं।

अपवित्रता की मान्यता को अस्वीकार
उल्लेखनीय है कि अल-बिरूनी ने जाति व्यवस्था के संबंध में ब्राह्मणवादी व्याख्या को तो स्वीकार कर लिया, किंतु वह अपवित्रता की मान्यता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुआ। उसकी मान्यता थी कि प्रत्येक वह वस्तु जो अपवित्र हो जाती है, अपनी पवित्रता की मौलिक स्थिति को पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न करती है और इसमें उसे सफलता भी प्राप्त होती है। उदाहरण देते हुए उसने लिखा कि सूर्य हवा को शुद्ध बनाता है और समुद्र में विद्यमान नमक पानी को गन्दा होने से रक्षा करता है। उसने अपने तर्क पर बल देते हुए कहा कि ऐसा न होने की स्थिति में पृथ्वी पर जीवन सम्भव नहीं हो पाता। उसका विचार था कि जाति व्यवस्था में विद्यमान अपवित्रता की अवधारणा प्रकृति के नियमों के अनुकूल नहीं थी।

मूल्यांकन
इस प्रकार, यह स्पष्ट हो जाता है कि अल-बिरूनी के जाति व्यवस्था संबंधी विवरण पर उसके संस्कृत ग्रंथों के गहन अध्ययन की स्पष्ट छाप थी। हमें याद रखना चाहिए कि इन ग्रंथों में जाति व्यवस्था का संचालन करने वाले नियमों का प्रतिपादन ब्राह्मणों के दृष्टिकोण से किया गया था। वास्तविक जीवन में इस व्यवस्था के नियमों का पालन न तो इतनी कठोरता से किया जाता था और न ही ऐसा किया जाना संभव था। उल्लेखनीय है कि अंत्यज (व्यवस्था से परे) हालाँकि वर्ण-व्यवस्था के दायरे से बाहर थे, किंतु उनसे किसानों एवं जमींदारों लिए सस्ता श्रम उपलब्ध कराने की अपेक्षा की जाती थी। इस प्रकार प्रायः सामाजिक प्रताड़ना के शिकार होते हुए भी वे आर्थिक तंत्र एक भाग थे।

प्रश्न 7.
क्या आपको लगता है कि समकालीन शहरी केंद्रों में जीवन-शैली की सही जानकारी प्राप्त करने में इन बतूता का वृत्तांत सहायक है? अपने उत्तर के कारण दीजिए।
उत्तर:
इब्न बतूता ने उपमहाद्वीप के शहरों को उन लोगों के लिए व्यापक अवसरों से भरपूर पाया जिनके पास आवश्यक इच्छा, साधन
तथा कौशल था। ये शहर घनी आबादी वाले तथा समृद्ध थे सिवाय कभी-कभी युद्धों तथा अभियानों से होने वाले विध्वंस के। इब्न बतूता के वृत्तांत से ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश शहरों में भीड़-भाड़ वाली सड़कें तथा चमक-दमक वाले रंगीन बाज़ार थे जो विविध प्रकार की वस्तुओं से भरे रहते थे। इब्न बतूता दिल्ली को एक बड़ा शहर, विशाल आबादी वाला तथा भारत में सबसे बड़ा बताता है। दौलताबाद (महाराष्ट्र में) भी कम नहीं था। वह आकार में दिल्ली को चुनौती देता था। वस्तुतः इब्न बतूता की शहरों की समृद्धि का वर्णन करने में अधिक रुचि नहीं थी। उसके अनुसार, कृषि का अधिशेष उत्पादन ही वह मूलभूत आधार था, जिसने शहरी जीवन-शैली को गम्भीर रूप से प्रभावित किया।

अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि इन बतूता का वृत्तान्त समकालीन शहरी जीवन-शैली की सही जानकारी देने में हमारी सहायता करता है। जब 19वीं शताब्दी में इब्न बतूता दिल्ली आया था, उस समय तक पूरा भारतीय महाद्वीप एक ऐसे वैश्विक संचार तंत्र का हिस्सा बन चुका था जो पूर्व में चीन से लेकर पश्चिम में उत्तर-पश्चिमी अफ्रीका तथा यूरोप तक फैला हुआ था। इब्न बतूता ने स्वयं इन क्षेत्रों की यात्राएँ कीं, विद्वानों एवं शासकों के साथ समय बिताया तथा शहरी केंद्रों की विश्ववादी संस्कृति को काफी नजदीक से देखा और समझा। इन्हीं अनुभवों एवं ज्ञान के आधार पर उसने भारतीय शहरी जीवन-शैली की तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया जो अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है।

इब्न बतूता ने लिखा है कि भारतीय माल की मध्य और दक्षिण-पूर्व एशिया में बड़ी माँग थी जिससे शिल्पकारों तथा व्यापारियों को भारी मुनाफा होता था। भारतीय कपड़ों, विशेष रूप से सूती कपड़ा, महीने मखमल, रेशम, जरी तथा साटन की अत्यधिक माँग थी। महीन मखमल की कई किस्में इतनी महँगी थीं कि उन्हें अमीर वर्ग या बहुत धनाढ्य लोग ही पहन सकते थे। इस प्रकार कृषि, विश्ववादी संस्कृति तथा व्यापार ने समकालीन शहरी केंद्रों की जीवन-शैली में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया था।

प्रश्न 8.
चर्चा कीजिए कि बर्नियर का वृत्तांत किस सीमा तक इतिहासकारों को समकालीन ग्रामीण समाज को पुनर्निर्मित करने में सक्षम करता है?
उत्तर:
बर्नियर के अनुसार भारत और यूरोप के बीच मूल भिन्नताओं में से एक भारत में निजी भू-स्वामित्व का अभाव था। उसका निजी स्वामित्व के गुणों में दृढ़ विश्वास था और उसने भूमि पर राजकीय स्वामित्व को राज्य तथा उसके निवासियों, दोनों के लिए हानिकारक माना। उसे यह लगा कि मुगल साम्राज्य में सम्राट सारी भूमि का स्वामी था जो इसे अपने अमीरों के बीच बाँटता था, जिससे अर्थव्यवस्था और समाज के लिए अनर्थकारी परिणाम सामने आते थे। इस प्रकार का अवबोधन बर्नियर तक ही सीमित नहीं था बल्कि सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी के अधिकांश यात्रियों के वृत्तांतों में मिलता है। राजकीय भू-स्वामित्व के कारण बर्नियर तर्क देता है कि भू-धारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे।

इसलिए वे उत्पादन के स्तर को बनाए रखने और उसमें बढ़ोत्तरी के दिए दूरगामी निवेश के प्रति उदासीन थे। इस प्रकार निजी भू-स्वामित्व के अभाव ने ‘बेहतर’ भू-धारकों के वर्ग के उदय (जैसा कि पश्चिमी यूरोप में) को रोका जो भूमि के रख-रखाव व बेहतरी के प्रति सजग रहते। इसी के चलते कृषि का समान रूप से विनाश, किसानों का उत्पीड़न तथा समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवरत पतन की स्थिति उत्पन्न हुई है, सिवाय शासक वर्ग के। बर्नियर भारतीय समाज को दरिद्र लोगों के समरूप जनसमूह से बना वर्णित करता है, जो एक बहुत अमीर तथा शक्तिशाली शासक वर्ग, जो अल्पसंख्यक होते हैं, के द्वारा अधीन बनाया जाता है।

गरीबों में सबसे गरीब तथा अमीरों में सबसे अमीर व्यक्ति के बीच नाममात्र का भी कोई सामाजिक समूह या वर्ग नहीं था। बर्नियर बहुत विश्वास से कहता है, “भारत में मध्य की स्थिति के लोग नहीं हैं।” बर्नियर के विवरणों ने अठाहरवीं शताब्दी के पश्चिमी विचारकों को काफी प्रभावित किया। उदाहरण के लिए, फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू ने उसके वृत्तांत का प्रयोग प्राच्य निरंकुशवाद के सिद्धांत को विकसित करने में किया, जिसके अनुसार एशिया में शासक अपनी प्रजा के ऊपर निर्बाध प्रभुत्व का उपभोग करते थे। प्रजा को दासता और गरीबी की स्थितियों में रखा जाता था। इस तर्क का आधार यह था कि सारी भूमि पर राजा का स्वामित्व होता था तथा निजी संपत्ति अस्तित्व में नहीं थी।

इस दृष्टिकोण के अनुसार राजा और उसके अमीर वर्ग को छोड़कर प्रत्येक व्यक्ति मुश्किल से गुजर-बसर कर पाता था। कार्ल मार्क्स ने यह तर्क दिया कि भारत तथा अन्य एशियाई देशों में उपनिवेशवाद से पहले अधिशेष का अधिग्रहण राज्य द्वारा होता था। इससे एक ऐसे समाज का उद्भव हुआ जो बड़ी संख्या में स्वायत्त तथा (आंतरिक रूप से) समतावादी ग्रामीण समुदायों से बना था। इन ग्रामीण समुदायों पर राजकीय दरबार का नियंत्रण होता था और जब तक अधिशेष की आपूर्ति निर्विघ्न रूप से जारी रहती थी, इनकी स्वायत्तता का सम्मान किया जाता था। यह एक निष्क्रिय प्रणाली मानी जाती थी। ग्रामीण समाज का यह चित्रण सच्चाई से बहुत दूर था। बल्कि सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में ग्रामीण समाज में चारित्रिक रूप से बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक विभेद था।

एक ओर बड़े जमींदार थे जो भूमि पर उच्चाधिकारों का उपभोग करते थे और दूसरी ओर ‘अस्पृश्य’ भूमिविहीन श्रमिक (बलाहार)। इन दोनों के बीच बड़ा किसान था जो किराए के श्रम का प्रयोग करता था और माल उत्पादन में संलग्न रहता था; साथ ही अपेक्षाकृत छोटे किसान भी थे जो मुश्किल से ही निर्वहन लायक उत्पादन कर पाते थे। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि बर्नियर का वृत्तांत समकालीन ग्रामीण समाज के पुर्निर्माण में इतिहासकारों की अधिक सहायता नहीं करता। इसका प्रमुख कारण यह है कि उसका भारत संबंधी विवरण पक्षपातपूर्ण है तथा द्वि-विपरीतता के नमूने । पर आधारित है, जिसमें भारत को यूरोप के ‘प्रतिलोम’ के रूप में वर्णित किया गया है। वास्तव में, बर्नियर का मुख्य उद्देश्य पूर्व और पश्चिम का तुलनात्मक अध्ययन करना था। परिणामस्वरूप उसके द्वारा भारत को ‘अल्पविकसित पूर्व के रूप में चित्रित किया गया है।

प्रश्न 9.
यह बर्नियर से लिया गया एक उद्धरण है —

ऐसे लोगों द्वारा तैयार सुंदर शिल्पकारीगरी के बहुत उदाहरण हैं जिनके पास औजारों का अभाव है, और जिनके विषय में यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने किसी निपुण कारीगर से कार्य सीखा है। कभी-कभी वे यूरोप में तैयार वस्तुओं की इतनी निपुणता से नकल करते हैं कि असली और नकली के बीच अंतर कर पाना मुश्किल हो जाता है। अन्य वस्तुओं में, भारतीय लोग बेहतरीन बंदूकें और ऐसे सुंदर स्वर्णाभूषण बनाते हैं कि संदेह होता है कि कोई यूरोपीय स्वर्णकार कारीगरी के इन उत्कृष्ट नमूनों से बेहतर बना सकता है। मैं अकसर इनके चित्रों की सुंदरता, मृदुलता तथा सूक्ष्मता से आकर्षित हुआ हूँ।

उसके द्वारा अलिखित शिल्प कार्यों को सूचीबद्ध कीजिए तथा इसकी तुलना अध्याय में वर्णित शिल्प गतिविधियों से कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत उद्धरण से पता लगता है कि बर्नियर की भारतीय कारीगरों के विषय में अच्छी राय थी। उसके मतानुसार भारतीय कारीगर
अच्छे औज़ारों के अभाव में भी कारीगरी के प्रशंसनीय नमूने प्रस्तुत करते थे। वे यूरोप में निर्मित वस्तुओं की इतनी कुशलतापूर्वक नकल करते थे कि असली और नकली में अंतर कर पाना मुश्किल हो जाता था। बर्नियर भारतीय चित्रकारों की कुशलता से अत्यधिक प्रभावित था। वह भारतीय चित्रों की सुंदरता, मृदुलता एवं सूक्ष्मता से विशेष रूप से आकर्षित हुआ था। इस उद्धरण में बर्नियर ने बंदूक बनाने, स्वर्ण आभूषण बनाने तथा चित्रकारी जैसे शिल्पों की विशेष रूप से प्रशंसा की है। अलिखित शिल्प कार्य ।

बर्नियर द्वारा अलिखित शिल्पों या शिल्पकारों को इस प्रकार सूचीबद्ध किया जा सकता है-बढ़ई, लोहार, जुलाहा, कुम्हार, खरादी, प्रलाक्षा रस को रोगन लगाने वाले, कसीदकार दर्जी, जूते बनाने वाले, रेशमकारी और महीन मलमल का काम करने वाले, वास्तुविद, संगीतकार तथा सुलेखक आदि।। प्रस्तुत उद्धरण में बर्नियर ने लिखा है कि भारतीय कारीगर औजार एवं प्रशिक्षण के अभाव में भी कारीगरी के प्रशंसनीय नमूने प्रस्तुत करने में सक्षम थे। अध्याय में वर्णित शिल्प गतिविधियों से पता चलता है कि कारखानों अथवा कार्यशालाओं में कारीगर विशेषज्ञों की देख-रेख में कार्य करते थे। कारखाने में भिन्न-भिन्न शिल्पों के लिए अलग-अलग कक्ष थे। शिल्पकार अपने कारखाने में प्रतिदिन सुबह आते थे और पूरा दिन अपने कार्य में व्यस्त रहते थे।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
विश्व के सीमारेखा मानचित्र पर उन देशों को चिह्नित कीजिए जिनकी यात्रा इन बतूता ने की थी। कौन-कौन से | समुद्रों को उसने पार किया होगा?
उत्तर:
संकेत-1332-33 में भारत के लिए प्रस्थान करने से पहले इब्न बतूता ने मक्का की तीर्थयात्रा की और सीरिया, इराक, फारस, यमन, ओमान और पूर्वी अफ्रीका के तटीय व्यापारिक बंदरगाहों की यात्राएँ कर चुका था। 1342 में दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक के आदेश पर वह सुल्तान के दूत के रूप में चीन गया। भारत में उसने मालाबार तट से महाद्वीप की यात्रा की। उसके वृत्तांत की तुलना 13वीं शताब्दी के अंत में वेनिस से चीन तक यात्रा करने वाले मार्कोपोलो के यात्रा-वृत्तांत से की जाती है।।
उपर्युक्त संकेत के आधार पर विद्यार्थी स्वयं करें।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
अपने ऐसे किसी बड़े संबंधी (माता-पिता/दादा-दादी तथा नाना-नानी/चाचा-चाची) का साक्षात्कार कीजिए जिन्होंने आपके नगर अथवा गाँव के बाहर यात्राएँ की हों। पता कीजिए-

  1. वे कहाँ गए थे
  2. उन्होंने यात्रा कैसे की
  3. उन्हें कितना समय लगा
  4. उन्होंने यात्रा क्यों की
  5. क्या उन्होंने किसी कठिनाई का सामना किया।

ऐसी समानताओं और भिन्नताओं को सूचीबद्ध कीजिए जो उन्होंने अपने रहने के स्थान और यात्रा किए गए स्थानों के बीच देखीं, विशेष रूप से भाषा, पहनावा, खानपान, रीति-रिवाज, इमारतों, सड़कों तथा पुरुषों और महिलाओं की जीवन-शैली के संदर्भ में। अपने द्वारा हासिल जानकारियों पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।
उत्तर:
स्वयं करें।

प्रश्न 12.
इस अध्याय में उल्लिखित यात्रियों में से एक के जीवन तथा कृतियों के विषय में और अधिक जानकारी हासिल कीजिए। उनकी यात्राओं पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए विशेष रूप से इस बात पर जोर देते हुए कि उन्होंने समाज का कैसा विवरण किया है तथा इनकी तुलना अध्याय में दिए गए उद्धरण से कीजिए।
उत्तर:
स्वयं करें।

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NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 6 Bhakti-Sufi Traditions Changes in Religious Beliefs and Devotional Texts (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 6 Bhakti-Sufi Traditions Changes in Religious Beliefs and Devotional Texts (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 6 Bhakti-Sufi Traditions Changes in Religious Beliefs and Devotional Texts (Hindi Medium)

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अभ्यास-प्रश्न
(NCERT Textbook Questions Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए कि संप्रदाय के समन्वय से इतिहासकार क्या अर्थ निकालते हैं?
उत्तर:
विभिन्न संप्रदायों-धार्मिक विश्वासों एवं आचरणों का समन्वय लगभग 8वीं-18वीं शताब्दी के काल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। संप्रदाय के समन्वय से इतिहासकारों का तात्पर्य है कि इस काल में विभिन्न पूजा-प्रणालियाँ समन्वय की ओर बढ़ने लगी थीं। इस काल के साहित्य एवं मूर्तिकला दोनों से ही अनेक प्रकार के देवी-देवताओं का परिचय मिलता है। विष्णु, शिव और देवी की विभिन्न रूपों में आराधना की परिपाटी न केवल प्रचलन में रही अपितु उसे और अधिक विस्तार एवं व्यापकता भी प्राप्त हुई। देश के विभिन्न भागों के स्थानीय देवताओं को विष्णु का रूप माना जाने लगा। “महान” संस्कृत पौराणिक परम्पराओं एवं “लघु” परम्पराओं के पारस्परिक सम्पर्क के परिणामस्वरूप सम्पूर्ण देश में अनेक धार्मिक विचारधाराओं तथा पद्धतियों का जन्म हुआ।

विद्वान इतिहासकारों का विचार है कि विचाराधीन काल में पूजा-प्रणालियाँ के समन्वय के आधार में प्रमुख रूप से दो प्रक्रियाएँ कार्यशील थीं। इनमें से एक प्रक्रिया ब्राह्मणीय विचारधारा के प्रचार से संबंधित थी। पौराणिक ग्रंथों की रचना, संकलन तथा परिरक्षण ने इसके प्रसार को प्रोत्साहित किया था। पौराणिक ग्रंथों की रचना सरल संस्कृत छन्दों में की गई थी, जिन्हें वैदिक विद्या से विहीन स्त्रियाँ और शूद्र भी समझ सकते थे। दूसरी प्रक्रिया का संबंध स्त्रियों, शूद्रों तथा अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं एवं आचरणों को ब्राह्मणों द्वारा स्वीकृत किए जाने तथा उन्हें एक नवीन रूप प्रदान किए जाने से था। समन्वय की इस प्रक्रिया का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उदाहरण आधुनिक उड़ीसा राज्य में स्थित ‘पुरी’ में मिलता है।

बारहवीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते यहाँ के प्रमुख देवता जगन्नाथ (इसका शाब्दिक अर्थ है-संपूर्ण विश्व का स्वामी) को विष्णु का एक रूप मान लिया गया था। यह और बात है कि विष्णु के उड़ीसा में प्रचलित रूप तथा देश के अन्य भागों से मिलने वाले स्वरूपों में अनेक भिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। देवी संप्रदायों में भी समन्वय के ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध होते हैं। सामान्य रूप से देवी की पूजा-आराधना सिंदूर से पोते गए पत्थर के रूप में ही किए जाने का प्रचलन था। पौराणिक परम्परा के अंतर्गत इन स्थानीय देवियों को मुख्य देवताओं की पत्नियों के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गई। कभी उन्होंने लक्ष्मी के रूप में विष्णु की पत्नी का स्थान प्राप्त किया तो कभी पार्वती के रूप में शिव की पत्नी को।

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प्रश्न 2.
किस हद तक उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों को स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का | सम्मिश्रण है?
उत्तर:
भारत में इस्लाम के आगमन के बाद होने वाले परिवर्तन शासक वर्ग तक ही सीमित नहीं रहे। उसने संपूर्ण उपमहाद्वीप में विभिन्न सामाजिक समुदायों अर्थात् किसानों, शिल्पियों, योद्धाओं आदि सभी को प्रभावित किया। एक ही समाज में रहते-रहते, हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे के खान-पान, रीति-रिवाजों, सांस्कृतिक एवं सामाजिक परंपराओं आदि की ओर आकर्षित होने लगे। धर्मान्तरित लोगों पर भी स्थानीय लोकाचारों का प्रभाव ज्यों-का-त्यों बना रहा। इस प्रकार स्थानीय परम्पराएँ एक सार्वभौमिक धर्म को प्रभावित करने लगीं।

उदाहरण के लिए, खोजा इस्माइली समुदाय के लोगों द्वारा कुरान के विचारों की अभिव्यक्ति के लिए देशी साहित्यिक विधा का सहारा लिया गया था। इसी प्रकार, मालाबार तट (केरल) पर बसने वाले मुस्लिम व्यापारियों ने स्थानीय मलयालम भाषा को अपनाने के साथ-साथ मातृकुलीयता तथा मातृगृहता जैसे स्थानीय आचारों को भी अपना लिया था। एक सार्वभौमिक धर्म के स्थानीय परम्पराओं के साथ सम्मिश्रण का संभवत: सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उदाहरण मस्जिद स्थापत्य के क्षेत्र में देखने को मिलता है। उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली अनेक मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का सराहनीय सम्मिश्रण है।

मस्जिद स्थापत्य के कुछ तत्त्व सार्वभौमिक होते हैं; जैसे-इमारत का मक्का की तरफ अनुस्थापन। इसे मेहराब (प्रार्थना का आला) तथा मिंबर (व्यास पीठ) की स्थापना से लक्षित किया जाता है। ऐसे सार्वभौमिक तत्त्व सभी मस्जिदों में समान रूप से पाए जाते थे। किन्तु मस्जिद स्थापत्य के अन्य तत्त्वों पर स्थानीय परिपाटियों का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उदाहरण के लिए, उपमहाद्वीप में बनाई गई मस्जिदों में अनेक तत्त्वों जैसे छत और निर्माण कार्य में प्रयोग किए जाने वाले सामान में भिन्नता देखने को मिलती है। इस भिन्नता का प्रमुख कारण था, मस्जिदों के स्थापत्य का स्थानीय स्थापत्य परम्पराओं से प्रभावित होना तथा निर्माण कार्य में स्थानीय रूप से उपलब्ध निर्माण सामग्री का प्रयोग किया जाना। उदाहरण के लिए केरल, बांग्लादेश और कश्मीर की मस्जिदों के स्थापत्य पर स्थानीय स्थापत्य का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

शिखर केरल के मंदिर स्थापत्य की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। अतः 13वीं शताब्दी में केरल में बनाई गई अनेक मस्जिदों की छतें शिखर के आकार की हैं। इसी प्रकार आधुनिक बांग्लादेश के जिला मैमनसिंग में 1609 ई० में बनाई गई अतिया मस्जिद के गुम्बदों एवं मीनारों में इस्लामी स्थापत्य कला-शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इस मस्जिद का निर्माण ईंटों से किया गया था। 1395 ई० में झेलम नदी के किनारे पर बनाई गई शाहहमदान मस्जिद पर कश्मीरी स्थापत्य शैली का उल्लेखनीय प्रभाव है। यह मस्जिद कश्मीर काष्ठ (लकड़ी) स्थापत्यकला का एक प्रशंसनीय उदाहरण है। इसके शिखर और छज्जे नक्काशीदार हैं। उन्हें पेपरमैशी से सुसज्जित किया गया है। इस प्रकार यह कहना उचित ही होगा कि उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का सम्मिश्रण है।

प्रश्न 3.
बे-शरिया और बा-शरिया सूफी परम्परा के बीच एकरूपता और अंतर, दोनों स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सूफ़ीवाद कई पन्थों अथवा सिलसिलों में संगठित था। सिलसिला का शाब्दिक अर्थ है-जंज़ीर, जो शेख और मुरीद के मध्य एक निरन्तर संबंध की परिचायक है। सूफी सिलसिला को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता हैबा-शरीआ (बा-शरा) और बे-शरिया (बे-शरा)। बा-शरीआ का अभिप्राय था-इस्लामी कानून अर्थात् शरीआ का पालन करने वाले सिलसिले। बे-शरीआ का तात्पर्य था—ऐसे सिलसिले जो शरीआ में बँधे हुए नहीं थे। शरीआ की अवहेलना करने के कारण उन्हें बे-शरीआ के नाम से जाना जाता था।

उल्लेखनीय है कि मुस्लिम समुदाय को निदेर्शित करने वाले कानून को शरीआ कहा जाता है। शरीआ कुरान शरीफ़ तथा हदीस पर आधारित है। हदीस का अर्थ है-पैगम्बर साहब से जुड़ी परम्पराएँ। पैगम्बर साहब के स्मृत शब्द और क्रियाकलाप भी इनके अंतर्गत आते हैं। अरब क्षेत्र के बाहर (जहाँ के आचार-विचार भिन्न थे) इस्लाम का प्रसार होने पर क्रियास अर्थात् सदृशता के आधार पर तर्क तथा इजमा अर्थात् समुदाय की सहमति को भी कानून का स्रोत माना जाने लगा। बे-शरीआ और बा-शरीआ सिलसिलों में कुछ एकरूपताएँ और कुछ अंतर विद्यमान थे।
एकरूपताएँ

  1. दोनों सिलसिले एकेश्वर में विश्वास करते थे। उनके अनुसार अल्लाह एक है। वह सर्वोच्च, सर्वशक्तिशली और सर्वव्यापक है।
  2. दोनों अल्लाह के सामने पूर्ण आत्मसमर्पण पर बल देते थे।
  3. दोनों पीर अथवा गुरु को अत्यधिक महत्त्व देते थे। 4. दोनों-इबादत अर्थात् उपासना पर अत्यधिक बल देते थे। उनके अनुसार अल्लाह की इबादत करने से ही मनुष्य संसार से | मुक्ति पा सकता था।

अंतर

  1. बा-शरीआ सिलसिले शरीआ का पालन करते थे, किन्तु बे-शरीआ शरीआ में बँधे हुए नहीं थे।
  2. बा-शरीआ सूफी सन्त ख़ानक़ाहो में रहते थे। खानकाह एक फ़ारसी शब्द है, जिसका अर्थ है-आश्रम। ख़ानक़ाह में पीर (सूफ़ी संत अर्थात् गुरु) अपने मुरीदों अर्थात् शिष्यों के साथ रहता था। ख़ानक़ाह का नियंत्रण शेख, (अरबी भाषा में) पीर अथवा मुर्शीद (फ़ारसी भाषा में) के हाथों में होता था।
  3. बे-शरीआ सूफी संत ख़ानक़ाह का तिरस्कार करके रहस्यवादी एवं फ़कीर की जिन्दगी व्यतीत करते, उन्हें कलन्दर, मदारी, मलंग, हैदरी आदि नामों से जाना जाता था।
  4. बा-शरीआ सफी सन्त गरीबी का जीवन व्यतीत करने में विश्वास नहीं करते थे। उनमें से अनेक ने सल्तनत की राजनीति में भाग लिया और सुल्तानों एवं अमीरों से मेल-जोल स्थापित किया। ऐसे सूफी संत कभी-कभी दरबारी पद भी स्वीकार कर लेते थे।

प्रश्न 4.
चर्चा कीजिए कि अलवार, नयनार और वीरशैवों ने किस प्रकार जाति प्रथा की आलोचना प्रस्तुत की?
उत्तर:
अलवार और नयनार संतों ने जाति प्रथा व ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोध में आवाज़ उठाई। इन संतों में कुछ तो ब्राह्मण, शिल्पकार और किसान थे और कुछ उन जातियों से आए थे जिन्हें अस्पृश्य’ माना जाता था। अलवार और नयनारे संतों की रचनाओं को वेद जितना महत्त्वपूर्ण बताया गया। जैसे अलवार संतों के मुख्य काव्य संकलन नलयिरादिव्यप्रबन्धम् का वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता था। इस प्रकार इस ग्रंथ का महत्त्व संस्कृत के चारों वेदों जितना बताया गया जो ब्राह्मणों द्वारा पोषित थे। वीरशैवों ने भी जाति की अवधारणा का विरोध किया।

उन्होंने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानने से इंकार कर दिया। ब्राह्मण धर्मशास्त्रों में जिन आचारों को अस्वीकार किया गया था; जैसे-वयस्क विवाह और विधवा पुनर्विवाह, वीरशैवों ने उन्हें मान्यता प्रदान की। इन सब कारणों से ब्राह्मणों ने जिन समुदायों के साथ भेदभाव किया, वे वीरशैवों के अनुयायी हो गए। वीरशैवों ने संस्कृत भाषा को त्यागकर कन्नड़ भाषा का प्रयोग शुरू किया।

प्रश्न 5.
कबीर और बाबा गुरु नानक के मुख्य उपदेशों का वर्णन कीजिए। इन उपदेशों का किस प्रकार संप्रेषण हुआ?
उत्तर:
कबीर के अनुसार संसार का मालिक एक है जो निर्गुण ब्रह्म है। वे राम और रहीम को एक ही मानते थे। उनका कहना था कि विभिन्नता तो केवल शब्दों में है जिनका आविष्कार हम स्वयं करते हैं। केवल जे फूल्या फूल बिन’ और ‘समंदरि लागि आगि’ जैसी अभिव्यंजनाएँ कबीर की रहस्यवादी अनुभूतियों को दर्शाती हैं। वे वेदांत दर्शन से प्रभावित हैं और सत्य को अलख (अदृश्य), निराकर ब्रह्मन् और आत्मन् कहकर संबोधित करते हैं। दूसरी ओर इस्लामी दर्शन से प्रभावित होकर वे सत्य को अल्लाह, खुदा, हजरत और पीर कहते हैं। बाबा गुरु नानक ने भी कबीर की तरह निराकार भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने यज्ञ, मूर्ति पूजा और कठोर तप जैसे बाहरी आडम्बरों का विरोध किया।

हिंदू और मुसलमानों के धर्मग्रंथों को भी उन्होंने नकारा। बाबा के अनुसार परम पूर्ण रब का कोई लिंग या आकार नहीं होता। उन्होंने रब का निरंतर स्मरण व नाम जप को उपासना का आधार बताया। उन्होंने संगत (सामुदायिक उपासना) के नियम निर्धारित किए जहाँ सामूहिक रूप में पाठ होता था। उन्होंने गुरुपद परंपरा की भी शुरुआत की, जिसका पालन 200 वर्षों तक होता रहा। जहाँ कबीर ने अपने उपदेशों में क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल किया, वहीं गुरुनानक ने अपने विचार पंजाबी भाषा के माध्यम से
सामने रखा।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
सूफी मत के मुख्य धार्मिक विश्वासों और आचारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में धार्मिक तथा राजनीतिक संस्था के रूप में खिलाफत की बढ़ती शक्ति के विरुद्ध कुछ आध्यात्मिक लोगों का रहस्यवाद तथा वैराग्य की तरफ झुकाव बढ़ा। इन्हें सूफ़ी कहा जाने लगा। इन लोगों ने रूढ़िवादी परिभाषाओं तथा धर्माचार्यों द्वारा की गई कुरान और सुन्ना (पैगम्बर के व्यवहार) की बौद्धिक व्याख्या की आलोचना की। उन्होंने मुक्ति की प्राप्ति के लिए ईश्वर की भक्ति और उनके आदेशों के पालन पर बल दिया। उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद को इंसान-ए-कामिल बताते हुए उनका अनुसरण करने की सीख दी। सूफ़ियों ने कुरान की व्याख्या अपने निजी अनुभवों के आधार पर की। ग्यारहवीं शताब्दी तक आते-आते सूफ़ीवाद एक पूर्ण विकसित आंदोलन था जिसका सूफ़ी और कुरान से जुड़ा अपना साहित्य था।

संस्थागत दृष्टि से सूफ़ी अपने को एक संगठित समुदाय-ख़ानक़ाह (फारसी) के इर्द-गिर्द स्थापित करते थे। ख़ानक़ाह का नियंत्रण शेख (अरबी), पीर अथवा मुर्शीद (फारसी) के हाथ में था। वे अनुयायियों (मुरीदों) की भर्ती करते थे और अपने वारिस (खलीफा) की नियुक्ति करते थे। आध्यात्मिक व्यवहार के नियम निर्धारित करने के अलावा ख़ानक़ाह में रहने वालों के बीच के संबंध और शेख व जनसामान्य के बीच के रिश्तों की सीमा भी नियत करते थे। बारहवीं शताब्दी के आसपास इस्लामी दुनिया में सूफ़ी सिलसिलों का गठन होने लगा। सिलसिला का शाब्दिक अर्थ है-जंजीर, जो शेख और मुरीद के बीच एक निरंतर रिश्ते का द्योतक है, जिसकी पहली अटूट कड़ी पैगंबर मोहम्मद से जुड़ी है।

इस कड़ी के द्वारा आध्यात्मिक शक्ति और आशीर्वाद मुरीदों तक पहुँचता था। दीक्षा के विशिष्ट अनुष्ठान विकसित किए गए जिसमें दीक्षित को निष्ठा का वचन देना होता था, और सिर मुँड़ाकर थेगड़ी लगे वस्त्र धारण करने पड़ते थे। पीर की मृत्यु के बाद उसकी दरगाह (फ़ारसी में इसका अर्थ दरबार) उसके मुरीदों के लिए भक्ति का स्थल बन जाती थी। इस तरह पीर की दरगाह पर जियारत के लिए जाने की, खासतौर से उनकी बरसी के अवसर पर, परिपाटी चल निकली। इस परिपाटी को उर्स (विवाह, मायने, पीर की आत्मा का ईश्वर से मिलन) कहा जाता था, क्योंकि लोगों का मानना था कि मृत्यु के बाद पीर ईश्वर से एकीभूत हो जाते हैं और इस तरह पहले के बजाय उनके अधिक करीब हो जाते हैं।

लोग आध्यात्मिक और ऐहिक कामनाओं की पूर्ति के लिए उनका आशीर्वाद लेने जाते थे। इस तरह शेख का वली के रूप में आदर करने की परिपाटी शुरू हुई। कुछ रहस्यवादियों ने सूफ़ी सिद्धांतों की मौलिक व्याख्या के आधार पर नवीन आंदोलनों की नींव रखी। ख़ानक़ाह का तिरस्कार करके यह रहस्यवादी, फकीर की जिदंगी बिताते थे। निर्धनता और ब्रह्मचर्य को उन्होंने गौरव प्रदान किया। इन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता था-कलंदर, मदारी, मलंग, हैदरी इत्यादि। शरिया की अवहेलना करने के कारण उन्हें बे-शरिया कहा जाता था। इस तरह उन्हें शरिया का पालन करने वाले (बा-शरिया) सूफियों से अलग करके देखा जाता था।

प्रश्न 7.
क्यों और किस तरह शासकों ने नयनार और सूफी संतों से अपने संबंध बनाने का प्रयास किया?
उत्तर:
चोल शासकों ने नयनार संतों के साथ संबंध बनाने पर बल दिया और उनका समर्थन हासिल करने का प्रयत्न किया। अपने
राजस्व के पद को दैवीय स्वरूप प्रदान करने और अपनी सत्ता के प्रदर्शन के लिए चोल शासकों ने सुंदर मंदिरों का निर्माण कराया और उनमें पत्थर और धातु से बनी मूर्तियाँ स्थापित करवाईं। इस प्रकार, लोकप्रिय संत-कवियों की परिकल्पना को, जो जन-भाषाओं में गीत रचते व गाते थे, मूर्त रूप प्रदान किया गया। चोल शासकों ने तमिल भाषा के शैव भजनों का गायन मंदिरों में प्रचलित किया।

परान्तक प्रथम ने संत कवि अप्पार, संबंदर और सुंदरार की धातु प्रतिमाएँ एक शिव मंदिर में स्थापित करवाईं। इन मूर्तियों को मात्र उत्सव के दौरान निकाला जाता था। सूफी संत सामान्यतः सत्ता से दूर रहने की कोशिश करते थे, किन्तु यदि कोई शासक बिना माँगे अनुदान या भेट देता था तो वे उसे स्वीकार करते थे। कई सुल्तानों ने ख़ानक़ाहों को करमुक्त भूमि इनाम में दे दी और दान संबंधी न्यास स्थापित किए। सूफी संत अनुदान में मिले धन और सामान का इस्तेमाल जरूरतमंदों के खाने, कपड़े एवं रहने की व्यवस्था तथा अनुष्ठानों के लिए करते थे। शासक वर्ग इन संतों की लोकप्रियता, धर्मनिष्ठा और विद्वत्ता के कारण उनका समर्थन हासिल करना चाहते थे।

जब तुर्की ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की तो उलेमा द्वारा शरिया लागू किए जाने की माँग को ठुकरा दिया गया था। सुल्तान जानते थे कि उनकी अधिकांश प्रजा गैर-इस्माली है। ऐसे समय में सुल्तानों ने सूफ़ी संतों का सहारा लिया जो अपनी आध्यात्मिक सत्ता को अल्लाह से उद्भुत मानते थे। यह भी माना जाता था कि सूफ़ी संत मध्यस्थ के रूप में ईश्वर से लोगों की ऐहिक और आध्यात्मिक दशा में सुधार लाने का कार्य करते हैं। शायद यही कारण है कि शासक अपनी कब्र सूफ़ी दरगाहों और ख़ानक़ाहों के नज़दीक बनाना चाहते थे।

प्रश्न 8.
उदाहरण सहित विश्लेषण कीजिए कि क्यों भक्ति और सूफी चिंतकों ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया?
उत्तर:
यह सत्य है कि भक्ति और सूफ़ी चिंतकों ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया। वास्तव में भक्ति और सूफ़ी चिंतक देश के विभिन्न भागों से सम्बन्धित थे। वे किसी भाषा-विशेष को पवित्र नहीं मानते थे। उनका प्रमुख उद्देश्य जनसामान्य को मानसिक शान्ति एवं सांत्वना प्रदान करना था। अतः वे अपने विचारों को जनसामान्य तक उनकी अपनी भाषाओं में पहुँचाना चाहते थे। यही कारण था कि उन्होंने अपने उपदेशों में स्थानीय भाषाओं का प्रयोग किया। तमिलनाडु के अलवार (विष्णु के भक्त) और नयनार (शिव के भक्त) सन्तों ने अपने विचार जनसामान्य तक पहुँचाने के लिए स्थानीय भाषा का प्रयोग किया। वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए तमिल में अपने इष्टदेव की स्तुति में भजन गाते थे।

उल्लेखनीय है कि अलवार और नयनार सन्त विभिन्न जातियों से संबंधित थे। उनमें से कुछ ब्राह्मण थे, कुछ किसान, कुछ शिल्पकार और कुछ तथाकथित ‘अस्पृश्य’ जातियों से भी संबंधित थे, जिन्हें वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत सबसे निचले सोपान पर रखा गया था। उन्होंने ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत प्रेम तथा भक्ति के संदेश को स्थानीय भाषाओं द्वारा दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में फैलाया। विभिन्न एवं स्थानीय भाषाओं में उपदेश देने के कारण उनकी रचनाओं को वेदों के समान महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। उदाहरण के लिए, अलवार सन्तों के एक मुख्य काव्य संकलन नलयिरादिव्यप्रबन्धम्’ को तमिल वेद कहा जाता है। इसी प्रकार नयनार परम्परा की उल्लेखनीय स्त्री भक्त करइक्काल अम्मइयार ने जनभाषा में भक्ति गीतों की रचना करके जनमानस पर अमिट प्रभाव छोड़ा।

उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के मुख्य प्रचारकों ने भी अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न भाषाओं को प्रयोग किया। उन्होंने किसी भाषा विशेष को पवित्र नहीं माना और अपने विचार जनसामान्य की भाषा में प्रकट किए। उदाहरण के लिए कबीर ने अपने पदों में अनेक भाषाओं एवं बोलियों का प्रयोग किया है। उन्होंने अपने विचारों को प्रकट करने के लिए हिन्दी, पंजाबी, फ़ारसी, ब्रज, अवधी एवं स्थानीय बोलियों के अनेक शब्दों का प्रयोग किया है। उनकी कुछ रचनाओं की भाषा सन्तभाषा है, जिसे निर्गुण कवियों की खास बोली समझा जाता है। कबीर की कुछ रचनाएँ उलटबाँसी (उल्टी केही उक्तियाँ) के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनकी रचना में उनके प्रचलित अर्थों को उल्टा कर दिया गया है। कबीर की बानियों का संकलन तीन विशिष्ट किंतु परस्पर व्यापी प्रणालियों में किया गया है।

‘कबीर बीजक’ का संबंध वाराणसी तथा उत्तर प्रदेश के अन्य स्थानों के कबीर पंथियों से है और ‘कबीर ग्रंथावली’ का राजस्थान के दादूपंथियों से। कबीर के अनेक पदों का संकलन सिक्खों के आदिग्रंथसाहिब’ में किया गया है। इसी प्रकार गुरु नानक ने अपने विचार पंजाबी भाषा में ‘शबद’ के माध्यम से जनसामान्य के सामने रखे। वे स्वयं इन शब्दों का भिन्न-भिन्न रागों में गायन करते थे।
गुरु नानक के उत्तराधिकारी गुरु अंगद ने गुरु नानक के उपदेशों एवं शिक्षाओं को भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने के उद्देश्य से गुरमुखी लिपि का विकास किया। सिखों के पवित्र धार्मिक ग्रन्थ गुरु ग्रन्थ साहिब में विभिन्न भाषाओं एवं बोलियों के शब्द मिलते हैं। इसमें गुरु नानक तथा उनके चार

उत्तराधिकारी गुरुओं की बानी के साथ-साथ बाबा फरीद, रविदास तथा कबीर जैसे सन्तों की बानी को भी संकलित किया गया है। मीराबाई ने अपने अंतर्मन की भावप्रवणता को अभिव्यक्त करने के लिए अनेक गीतों की रचना की। उनके गीत मुख्य रूप से ब्रज भाषा में और कुछ राजस्थानी एवं गुजराती में भी लिखे गए हैं। सूफी सन्तों ने भी अपने विचारों को विभिन्न भाषाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया। चिश्ती सन्तों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता स्थानीय भाषाओं को अपनाना था। वे समाँ में स्थानीय भाषा का प्रयोग करते थे। उल्लेखनीय है कि दिल्ली में चिश्ती सिलसिले के लोग आपस में हिंदवी में बातचीत करते थे। पंजाब में बाबा फरीद ने क्षेत्र के लोगों में अपने संदेश का प्रचार करने के लिए पंजाबी में छन्दों की रचना की थी।

उनके कुछ छन्द गुरुग्रंथ साहिब में संकलित हैं। कुछ अन्य सूफियों ने ईश्वर के प्रति प्रेम को मानवीय प्रेम के रूपक द्वारा अभिव्यक्त करने के लिए लम्बी-लम्बी कविताओं की रचना की, जिन्हें मसनवी के नाम से जाना जाता है। सूफी कविता फ़ारसी, हिंदवी अथवा उर्दू में होती थी। कभी-कभी उसमें इन तीनों भाषाओं के शब्द विद्यमान होते थे। बीजापुर (कर्नाटक) के आस-पास सूफ़ी कविता की एक भिन्न विधा अस्तित्व में आई। इसके अन्तर्गत दक्खनी (उर्दू का एक रूप) में लिखी गई छोटी-छोटी कविताएँ आती हैं।

इनकी रचना 17वीं-18वीं शताब्दियों में इस क्षेत्र में बसने वाले चिश्ती सन्तों के द्वारा की गई थी। संभवतः इन रचनाओं का गायन घर में चक्की पीसने और चरखा कातने जैसे सामान्य कामों को करते हुए महिलाओं द्वारा किया जाता था। कुछ अन्य कविताओं की रचना लोरीनामा एवं शादीनामा के रूप में की गई। विद्वान इतिहासकारों के विचारानुसार संभवतः इस क्षेत्र के सूफ़ी सन्तों को यहाँ की स्थानीय भक्ति परम्परा ने अनेक रूपों में प्रभावित किया था। लिंगायतों द्वारा कन्नड़ में लिखे गए वचनों और पंढरपुर के सन्तों द्वारा मराठी में लिखे गए अभंगों ने भी चिश्तियों को पर्याप्त सीमा तक प्रभावित किया। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि भक्ति और सूफी चिन्तकों ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया।

प्रश्न 9.
इस अध्याय में प्रयुक्त किन्हीं पाँच स्रोतों का अध्ययन कीजिए और उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
इस अध्याय में प्रयुक्त किन्हीं पाँच स्रोतों के अध्ययन से उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों पर इस प्रकार चर्चा की जा सकती है।

स्रोत I (चतुर्वेदी और अस्पृश्य)
से पता चलता है कि अलवार सन्त जाति व्यवस्था को निरर्थक मानते थे और जाति-पाँति के भेद-भावों में विश्वास नहीं करते थे। अपने विचारों को प्रकट करते हुए एक ब्राह्मण अलवार तोंदराडिप्पोडि ने अपने काव्य में लिखा था-“चतुर्वेदी जो अजनबी हैं और तुम्हारी सेवा के प्रति निष्ठा नहीं रखते, उनसे भी अधिक आप (हे विष्णु) उन ‘दासों’ को पसन्द करते हैं, जो आपके चरणों से प्रेम रखते हैं, चाहे वे वर्ण-व्यवस्था के परे हों।”

स्रोत II (शास्त्र या भक्ति)
से स्पष्ट होता है कि अलवार सन्तों के समान नयनार सन्तों ने भी ब्राह्मणों की जन्म पर आधारित श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं किया। उनका विचार था कि शिव के अनुराग और भक्ति के बिना ब्राह्मणों का शास्त्रज्ञान, ऊँचा कुल, गोत्र सब निरर्थक है, क्योंकि ईश्वर की दृष्टि में वास्तविक महत्त्व शास्त्र-ज्ञान अथवा गोत्र और कुल का नहीं अपितु भक्ति और प्रेम का है। इन दोनों स्रोतों से यह भी पता लगता है कि अलवार सन्त विष्णु भक्त थे और नयनार सन्त शिव के उपासक

स्रोत III (एक राक्षसी?)
एक स्त्री शिवभक्त करइक्काले अम्मइयार की कविता से लिया गया है।
इससे पता चलता है कि, उस समय घर के अन्दर रहना, शान्त रहना और मुधर वचन बोलना स्त्री के स्वाभाविक गुण माने जाते थे। किन्तु अम्मइयार ने स्त्रियों की पारम्परिक जीवन-शैली को ग्रहण नहीं किया। वह शिव को अपनी आराध्य देव मानती थी। उसने अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या के मार्ग का अनुसरण किया। स्त्रीभक्तों ने अपने सामाजिक कर्तव्यों का तो परित्याग कर दिया, किंतु वे न तो किसी भिक्षुणी समुदाय की सदस्य बनीं और न ही उन्होंने किसी वैकल्पिक व्यवस्था को स्वीकार किया। स्त्रीभक्तों ने पितृसत्तात्मक आदर्शों को स्वीकार नहीं किया और अपनी जीवन पद्धति एवं रचनाओं द्वारा उन्हें चुनौती दी।

स्रोत IV (अनुष्ठाने और यथार्थ संसार)
बासवन्ना द्वारा रचित एक वचन से सम्बन्धित है। बासवन्ना वीरशैव परम्परा के संस्थापक थे। वह जाति से ब्राह्मण थे और चालुक्य राजा के दरबार में एक मंत्री थे। उनके अनुयायी वीरशैव अर्थात् शिव के वीर और लिंगायत अर्थात लिंग धारण करने वालों के नाम से प्रसिद्ध हुए। आज भी वीरशैव कर्नाटक की संभवतः सर्वाधिक लोकप्रिय परम्परा है। वीरशैव अथवा लिंगायत शिव को अपना आराध्य देव मानते हैं। वे शिव की उपासना लिंग के रूप में करते हैं। वीरशैव अथवा लिंगायत जन्म पर आधारित जाति-व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने जाति-पाँति के भेद-भावों का विरोध किया तथा समाज में कुछ समुदायों के ‘पवित्र’ और कुछ के दूषित होने की ब्राह्मणीय अवधारणा की कटु आलोचना की।

उनके विचारानुसार मनुष्य की श्रेष्ठता का आधार उसका जन्म नहीं अपितु कर्म होने चाहिए। लिंगायत अनुष्ठानों की अपेक्षा यथार्थ भक्ति भाव पर अधिक बल देते हैं। उनके विचारानुसार परमदेव को अनुष्ठानों द्वारा नहीं अपितु भक्तिभाव द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। धर्म से जुड़े निरर्थक रीति-रिवाजों एवं आडंबरों का विरोध करते हुए बासवन्ना ने लिखा था कि जब वे एक पत्थर से बने सर्प को देखते हैं तो उस पर दूध चढ़ाते हैं, यदि असली साँप आ जाए तो कहते हैं “मारो-मारो”, देवता के उस सेवक को, जो भोजन परोसने पर खा सकता है, वे कहते हैं, “चले जाओ, चले जाओ।” किन्तु ईश्वर की प्रतिमा को, जो खा नहीं सकती, वे व्यंजन परोसते हैं।।”

स्रोत V (खम्बात का गिरजाघर)
उस फरमान (बादशाह का हुक्मनामा) का अंश है, जिसे महान मुगल सम्राट अकबर ने | 1598 ई० में जारी किया था। सम्राट ने यह फरमान खम्बात के गिरजाघर के सम्बन्ध में जारी किया था। इससे स्पष्ट होता है कि अकबर एक उदार एवं धर्म-सहिष्णु सम्राट था। वह भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करना चाहता था। उसने अपने पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों के समान धर्म के नाम पर अत्याचार अथवा रक्तपात की नीति का अनुसरण नहीं किया। उसने बलपूर्वक धर्म परिवर्तन पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा सभी धर्म एवं सम्प्रदायों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। इस स्रोत से यह भी स्पष्ट
होता है कि कट्टर मुस्लिम सम्राट के उदार धार्मिक विचारों के विरोधी थे।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
भारत के मानचित्र पर 3 सूफी स्थल और 3 वे स्थल जो मंदिरों (विष्णु, शिव और देवी से जुड़ा एक मंदिर ) से सम्बद्ध हैं, निर्दिष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्वयं करें।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
इस अध्याय में वर्णित किन्हीं 2 धार्मिक उपदेशकों/चिंतकों/संतों का चयन कीजिए और उनके जीवन व उपदेशों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कीजिए। इनके समय, कार्यक्षेत्र और मुख्य विचारों के बारे में एक विवरण तैयार कीजिए। हमें इनके बारे में कैसे जानकारी मिलती है और हमें क्यों लगता है कि वे महत्त्वपूर्ण हैं?
उत्तर:
1. बाबा गुरु नानक-बाबा गुरु नानक (1469-1539) का जन्म एक हिंदू व्यापारी परिवार में हुआ। उनका जन्मस्थल मुख्यतः
इस्लाम धर्मावलंबी पंजाब का ननकाना गाँव था जो रावी नदी के पास था। उन्होंने फारसी पढ़ी और लेखाकार के कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया। उनका विवाह छोटी आयु में हो गया था, किंतु वह अपना अधिक समय सूफ़ी और भक्त संतों के बीच गुजारते थे। उन्होंने दूर-दराज की यात्राएँ भी कीं। बाबा गुरु नानक का संदेश उनके भजनों और उपदेशों में निहित है। इनसे पता लगता है कि उन्होंने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया। धर्म के सभी बाहरी आडंबरों को उन्होंने अस्वीकार किया; जैसे-यज्ञ, आनुष्ठानिक स्नान, मूर्ति पूजा व कठोर तप। हिंदू और मुसलमानों के धर्मग्रंथों को भी उन्होंने नकारा। बाबा गुरु नानक के लिए परम पूर्ण ‘रब’ का कोई लिंग या आकार नहीं था। उन्होंने इस रब की उपासना के लिए एक सरल उपाय बताया और वह था उनका निरंतर स्मरण व नाम का जाप। उन्होंने अपने विचार पंजाबी भाषा में शबद के माध्यम से सामने रखे।

बाबा गुरु नानक ये शबद अलग-अलग रागों में गाते थे और उनका सेवक मरदाना रबाब बजाकर उनका साथ देता था। बाबा गुरु नानक ने अपने अनुयायियों को एक समुदाय में संगठित किया। सामुदायिक उपासना (संगत) के नियम निर्धारित किए जहाँ सामूहिक रूप से पाठ होता था। उन्होंने अपने अनुयायी अंगद को अपने बाद गुरुपद पर आसीन किया; इस परिपाटी का पालन 200 वर्षों तक होता रहा। ऐसा प्रतीत होता है कि बाबा गुरु नानक किसी नवीन धर्म की स्थापना नहीं करना चाहते थे, किंतु उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने अपने आचार-व्यवहार को सुगठित कर अपने को हिंदू और मुसलमान दोनों से पृथक् चिहनित किया। पाँचवें गुरु अर्जुन देव जी ने बाबा गुरु नानक तथा उनके चार उत्तराधिकारियों, बाबा फरीद, रविदास और कबीर की बानी को आदि ग्रंथ साहिब में संकलित किया। इनको ‘गुरबानी’ कहा जाता है और ये अनेक भाषाओं में रचे गए।

2. मीराबाई-मीराबाई संभवतः
भक्ति परंपरा की सबसे सुप्रसिद्ध कवयित्री हैं। उनकी जीवनी उनके लिखे भजनों के आधार पर संकलित की गई है। वह मारवाड़ के मेड़ता जिले की एक राजपूत राजकुमारी थीं जिनका विवाह उनकी इच्छा के विरुद्ध मेवाड़ के सिसोदिया कुल में कर दिया गया। मीराबाई ने अपने पति की आज्ञा की अवहेलना करते हुए विष्णु के अवतार कृष्ण को अपना एकमात्र पति स्वीकार किया। उन्हें विष देकर जान से मारने का असफल प्रयास भी किया गया। उन्होंने पति और राजभवन के ऐश्वर्य को त्याग कर विधवा के समान सफेद वस्त्र धारण कर लिया और संन्यासिनी बन गईं। कुछ परंपरा के अनुसार मीरा के गुरु रैदास थे जो एक चर्मकार थे। इससे पता चलता है कि मीरा ने अतिवादी समाज की रूढ़ियों का उल्लंघन किया। उनके भक्ति गीत अंतर्मन की भाव-प्रवणता को व्यक्त करने वाले हैं। उनके रचित पद आज भी स्त्रियों और पुरुषों द्वारा गाए जाते हैं।

प्रश्न 12.
इस अध्याय में वर्णित सूफ़ी व देव स्थलों से संबद्ध तीर्थयात्रा के आचारों के बारे में अधिक जानकारी हासिल कीजिए। क्या यह यात्राएँ अभी भी की जाती हैं? इन स्थानों पर कौन लोग और कब-कब जाते हैं? वे यहाँ क्यों जाते हैं? इन तीर्थयात्राओं से जुड़ी गतिविधियाँ कौन-सी हैं?
उत्तर:
ख्वाजा मुइनुद्दीन की अजमेर स्थित दरगाह विश्व प्रसिद्ध है। यह दरगाह मुइनुद्दीन चिश्ती की सदाचारिता और धर्मनिष्ठा तथा उनके आध्यात्मिक वारिसों की महानता और राजसी मेहमानों द्वारा दिए गए प्रश्रय के कारण लोकप्रिय थी। मुहम्मद बिन तुगलक पहला सुल्तान था जिसने इस दरगाह की यात्रा की थी। मुगल सम्राट अकबर ने यहाँ 14 बार यात्रा की। मुगल शहजादी जहाँआरा ने अपने पिता शाहजहाँ के साथ 1643 में अजमेर शरीफ की तीर्थयात्रा की जिसका वर्णन उसने बड़े ही ओजस्वी भाषा में किया है। 18वीं शताब्दी में दक्कन के कुली खान ने शेख नसीरुद्दीन चिराग-ए-देहली की दरगाह के बारे में मुक्का-ऐ-देहली में लिखा कि शेख सिर्फ दिल्ली के ही चिराग नहीं अपितु सारे मुल्क के चिराग हैं।

खासतौर पर रविवार के दिन यहाँ लोगों का हुजूम आता है। दीवाली के महीने में दिल्ली की सारी आबादी दरगाह पर उमड़ पड़ती है। यहाँ हिंदू और मुसलमान एक ही भावना से आते हैं। दाता गंज बक्श की दरगाह लाहौर में स्थित है। सुल्तान महमूद के पोते ने उनकी मजार पर दरगाह बनवाई है। यह दरगाह उनकी बरसी के अवसर पर उनके अनुयायियों के लिए तीर्थस्थल बन गई। आज भी हुजविरी दाता गंज बख्श के रूप में आदरणीय हैं और उनकी दरगाह को दाता दरबार कहा जाता है। अपनी यात्रा के दौरान अलवार और नयनार संतों ने कुछ पावन स्थलों को अपने इष्ट का निवास स्थल घोषित किया। इन्हीं स्थलों पर कालांतर में विशाल मंदिरों का निर्माण हुआ और वे तीर्थस्थल बन गए। अनुष्ठानों के समय इन मंदिरों में संत कवियों द्वारा भजन गाया जाता था और साथ-साथ इन संतों की प्रतिमा की भी पूजा की जाती थी।

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NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 4 Thinkers, Beliefs and Buildings Cultural Developments (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 4 Thinkers, Beliefs and Buildings Cultural Developments (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 4 Thinkers, Beliefs and Buildings Cultural Developments (Hindi Medium)

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अभ्यास-प्रश्न
(Questions from Textbook Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
क्या उपनिषदों के दार्शनिकों के विचार नियतिवादियों और भौतिकवादियों से भिन्न थे? अपने जवाब के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
हाँ, उपनिषदों के दार्शनिकों के विचार नियतिवादियों और भौतिकवादियों के विचार से पूर्णतया भिन्न थे। इनकी भिन्नता के निम्नलिखित आधार थेनियतिवादियों तथा भौतिकवादियों के विचार-नियतिवादियों के अनुसार इंसान के सुख-दुख नियति द्वारा निर्धारित मात्रा में दिए गए हैं। इन्हें चाहकर भी बदला नहीं जा सकता। बुद्धिजीवी लोग सोचते हैं कि वे अपने सद्गुणों द्वारा इन्हें बदल देंगे किंतु यह असंभव है। अतः इंसान को अपने हिस्से के सुख-दुख को भोगना ही पड़ता है। इसी प्रकार भौतिकवादी मानते हैं कि संसार में दान-पुण्य नामक चीजों का कोई महत्त्व नहीं है। दान-पुण्य करने की अवधारणा पूरी तरह से निराधार है। मरणोपरांत कुछ भी शेष नहीं रहता। पापात्मा और पुण्यात्मा दोनों नष्ट होकर पंचतत्व में विलीन हो जाते हैं। उपनिषदों के दार्शनिक विचार-ऊपर लिखित विचारों में आत्मा-परमात्मा को कोई महत्त्व नहीं दिया गया है जबकि उपनिषदों के अनुसार मानव-जीवन का परम उद्देश्य आत्मा को परमात्मा में विलीन कर स्वयं परम ब्रह्म हो जाना है।

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प्रश्न 2.
जैन धर्म की महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
जैन धर्म की प्रमुख शिक्षाएँ इस प्रकार हैं-जैन धर्म के अनुसार मानव जीवन का चरम लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है। इसे प्राप्त करने
के लिए त्रिरत्न का पालन करना नितांत आवश्यक है। ये तीन रत्न हैं-

  1. सम्यक् ज्ञान अर्थात् अज्ञान को दूर करके ज्ञान प्राप्ति की दिशा में प्रयत्न करना। ज्ञान की प्राप्ति तीर्थंकरों के उपदेशों का अनुसरण करने से ही हो सकती है।
  2. सम्यक् दर्शन (ध्यान) अर्थात् तीर्थंकरों में विश्वास रखना तथा सत्य के प्रति श्रद्धा रखना।
  3. सम्यक् चरित्र (आचरण) अर्थात् अच्छे आचरण अथवा कार्य करना। जैन धर्म के अनुसार संपूर्ण विश्व प्राणवान है।

सृष्टि के कण-कण में चाहे वह जड़ है या चेतन आत्मा का निवास है अर्थात् आत्मा केवल मनुष्यों पशु-पक्षियों आदि में ही नहीं अपितु पेड़-पौधों, पत्थरों, जल, वायु आदि सभी में है। अतः जड़, चेतन किसी की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। जैन मान्यता के अनुसार मनुष्य के कर्म ही उसके जन्म और पुनर्जन्म के चक्र को निर्धारित करते हैं। मनुष्य जो कर्म करता है, उसका फल एकत्रित होता रहता है और उस कर्मफल को भोगने के लिए ही आत्मा को बार-बार जन्म लेना पड़ता है। कर्मों का नाश करके ही मनुष्य पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा पा सकता है। कर्मों का विनाश त्याग और तपस्या के द्वारा ही किया जा सकता है। संसार त्याग के बिना कर्मों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता।
इसीलिए जैन परंपरा में मुक्ति प्राप्ति के लिए विहारों में निवास करना अनिवार्य बताया गया है। जैन धर्म पाँच व्रतों अर्थात् अहिंसा, चोरी न करना, झूठ न बोलना, ब्रह्मचर्य का पालन करना और धन इकट्ठा न करना के पालन पर अत्यधिक बल देता है। जैन साधुओं और साध्वियों के लिए इन व्रतों का पालन करना अत्यावश्यक है।

प्रश्न 3.
साँची के स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
19 वीं सदी में भोपाल के शासकों और यूरोपियों ने साँची के स्तूप को बचाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। यूरोपीय शुरू
से ही साँची के स्तूप में दिलचस्पी दिखाते रहे। फ्रांसीसियों ने तो साँची के पूर्वी तोरणद्वार को फ्रांस के संग्रहालय में ले जाने की अनुमति भी माँगी। अंग्रेजों की भी यही इच्छा थी, परंतु शाहजहाँ बेगम ने दोनों को साँची की प्लॉस्टर ऑफ पेरिस की बनी प्रतिकृतियाँ देकर संतुष्ट कर दिया। इस तरह साँची की मूल कृति को भोपाल राज्य में अपने स्थान पर बनाए रखा। शाहजहाँ बेगम और उनकी उत्तराधिकारिणी सुल्तान जहाँ बेगम ने इस प्राचीन स्थान के रख-रखाव के लिए बहुत-सा धन दिया। उन्होंने वहाँ एक संग्रहालय और अतिथिशाला का निर्माण करवाया। जहाँ जॉन मार्शल ने कई पुस्तकें लिखीं जिनके प्रकाशन के लिए भी बेगमों ने दान दिया। यह भी भाग्य की बात है कि यह रेल ठेकेदारों और निर्माताओं की नजर से बचा रहा जो ऐसी चीजों को यूरोप संग्रहालय में ले जाना चाहते थे। आज इसकी मरम्मत और संरक्षण का कार्य भारतीय पुरातत्त्व विभाग कर रहा है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित संक्षिप्त अभिलेख को पढ़िए और जवाब दीजिए :
महाराजा हुविष्क (एक कुषाण शासक) के तैंतीसवें साल में गर्म मौसम के पहले महीने के आठवें दिन त्रिपिटक जानने वाले भिक्खु बल की शिष्या त्रिपिटक जानने वाली बुद्धमिता की बहन की बेटी भिक्खुनी धनवती ने अपने माता-पिता के साथ मधुवनक में बोधिसत्त की मूर्ति स्थापित की।

  1. धनवती ने अपने अभिलेख की तारीख कैसे निश्चित की?
  2. आपके अनुसार उन्होंने बोधिसत्त की मूर्ति क्यों स्थापित की?
  3. वे अपने किन रिश्तेदारों का नाम लेती हैं?
  4. वे कौन से बौद्ध ग्रंथों को जानती थीं?
  5. उन्होंने ये पाठ किससे सीखे थे?

उत्तर:

  1. धनवती ने तत्कालिन कुषाण शासक हुविष्क के शासनकाल के तैतीसवें वर्ष में गर्म मौसम के पहले महीने के आठवें दिन का उल्लेख करके अपने अभिलेख की तारीख निश्चित की।
  2. धनवती ने बौद्ध धर्म में अपना विश्वास प्रकट करने हेतु और स्वयं को भिक्खुनी सिद्ध करने हेतु मधुवनक में बोधिसत्त की मूर्ति की स्थापना की।
  3. इस अभिलेख में उसने अपनी मौसी (माँ की बहन) बुद्धमिता के नाम का उल्लेख किया है। वह भी एक बौद्ध भिक्षुणी थी। उसने भिक्षुणी बाला और अभिभावकों के भी नामों का उल्लेख किया है।
  4. धनवती बौद्ध धर्म के ग्रंथ त्रिपिटक को जानती थी।
  5. उसने यह धार्मिक ग्रंथ भिक्षुणी बुद्धिमता (अपनी मौसी) से सीखा था। धनवती भिक्षुणी बाला की पहली महिला शिष्य थी।

प्रश्न 5.
आपके अनुसार स्त्री-पुरुष संघ में क्यों जाते थे?
उत्तर:
हमारे अनुसार स्त्री-पुरुष संघ में इसलिए जाते थे, क्योंकि वहाँ वे धर्म का नियमित ढंग से अध्ययन, विचार-विमर्श, मनन, उपासना आदि कर सकते थे। वे यहाँ विचार-विमर्श के साथ-साथ प्रचारकों और अध्यापकों के माध्यम से भी धर्म को जान सकते थे व उसे व्यवहार में ला सकते थे। बौद्ध संघ में कुछ नियम और उपनियम रचे गए थे। सभी बौद्ध भिक्षुकों को संघ में रहकर उन नियमों का पालन करना होता था। सभी भिक्षुकों को संघ के अनुशासन में रहना, उचित ढंग से अपने विचारों को दर्शाना होता था। भिक्षुकों को नियमानुसार भिक्षा माँगकर ही अपना भोजन और अन्य सामग्री जुटानी होती थी। संघ में उन्हें अध्ययन, अध्यापन भी करवाया जाता था। मोक्ष प्राप्ति या निर्वाण के लिए उनसे बताए गए मार्ग, सिद्धांतों और शिक्षाओं का अनुसरण करवाया जाता था।

निम्नलिखित पर एक संक्षिप्त निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)

प्रश्न 6.
साँची की मूर्तिकला को समझने में बौद्ध साहित्य के ज्ञान से कहाँ तक सहायता मिलती है?
उत्तर:
सामान्यतः साँची की मूर्तियों को देखकर अथवा उत्कीर्ण चित्रों को देखकर यह अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि इनका चित्रण किन संदर्भो में किया गया है अथवा उनका क्या अभिप्राय है, किंतु बौद्ध साहित्य साँची की मूर्तिकला को समझने में हमारी महत्त्वपूर्ण सहायता करता है। बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन से साँची की मूर्तियों में उल्लेखित सामाजिक एवं मानव जीवन की अनेक बातों को समझने में दर्शक को महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। उदाहरण के लिए, साँची के उत्तरी तोरणद्वार के एक भाग पर एके चित्र है। इस चित्र में घास-फूस से बनी झोंपड़ियाँ, पेड़, स्त्री-पुरुष और बच्चे दिखाई देते हैं, जिससे लगता है। कि इसमें ग्रामीण दृश्य का चित्रण किया गया है।

किंतु साँची की मूर्तिकला का गहनतापूर्वक अध्ययन करनेवाले कला इतिहासकारों के अनुसार मूर्तिकला के इस अंश में वेसान्तर जातक की एक कथा के दृश्य को दिखाया गया है। वेसान्तर जातक में एक ऐसे दानी राजकुमार का उल्लेख है जिसने अपना सब कुछ एक ब्राह्मण को दान में दे दिया और स्वयं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ जंगल में रहने के लिए चला गया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इतिहासकार मूर्तियों का अध्ययन संबद्ध ग्रंथों की सहायता से करते हैं और लिखित साक्ष्यों के साथ तुलना करके ही मूर्तियों की व्याख्या करते हैं। बौद्धचरित लेखन ने भी बौद्ध मूर्तिकला को समझने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

विद्वान इतिहासकारों ने बौद्धचरित लेखन को भली-भाँति समझकर बौद्ध मूर्तिकला की व्याख्या करने का सफल प्रयास किया है। बौद्धचरित लेखन में हमें स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि बुद्ध ने एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए बोधि अर्थात् ज्ञान की प्राप्ति की थी। अतः अनेक प्रारम्भिक मूर्तिकारों द्वारा बुद्ध की उपस्थिति को प्रतीकों के माध्यम से दिखाने का प्रयत्न किया गया। उन्होंने बुद्ध का चित्रांकन मानव रूप में नहीं किया। उदाहरण के लिए, बौद्ध मूर्तिकला में रिक्त स्थान बुद्ध के ध्यान की दशा का प्रतीक बन गया। इसी प्रकार स्तूप को महापरिनिर्वाण (महापरिनिबान) का प्रतीक मान लिया गया। चक्र महात्मा बुद्ध द्वारा सारनाथ में दिए गए पहले उपदेश का प्रतीक बन गया। हमें याद रखना चाहिए कि बुद्ध ने वाराणसी के पास सारनाथ के मृगदीव (हिरणकुंज) में आषाढ़ पूर्णिमा को अपना पहला उपदेश दिया था, जो ‘धर्म चक्रप्रवर्तन’ (धर्म के पहिए को घुमाना) के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

साँची में पशुओं के अत्यधिक सुंदर एवं सजीव चित्रों को अंकन किया गया है। मुख्य रूप से हाथी, घोड़े, बंदर एवं गाय-बैल के चित्र अंकित किए गए हैं। जातक ग्रंथों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि साँची में दिखाए गए अनेक दृश्य जातकों में वर्णित पशु कथाओं से संबंधित हैं। कुछ विद्वानों के मतानुसार इन पशुओं का अंकन संभवत: सजीव दृश्यों के द्वारा दर्शकों को आकर्षित करने के लिए किया गया था। हमें याद रखना चाहिए कि प्रायः पशुओं का मानव गुणों के प्रतीकों के रूप में भी प्रयोग किया जाता था। उदाहरण के लिए हाथी को शक्ति एवं ज्ञान का प्रतीक माना जाता था। इन प्रतीकों में कमल तथा हाथियों के मध्य दिखाई गई एक महिला की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हाथियों को अभिषेक करने की मुद्रा में उस महिला पर जल छिड़कते हुए दिखाया गया है।

कुछ विद्वान इस मूर्ति को बुद्ध की माता माया बताते हैं, तो कुछ सौभाग्य की देवी गजलक्ष्मी। उल्लेखनीय है कि लोकप्रिय गजलक्ष्मी को प्रायः हाथियों के साथ दिखाया जाता है। कुछ विद्वानों का विचार है कि संभवतः उपासक इसका संबंध माया और गजलक्ष्मी दोनों के साथ मानते हैं। लोक परंपराओं से संबंधित साहित्य से भी साँची की मूर्तिकला को समझने में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। उल्लेखनीय है। कि साँची में उत्कीर्ण अनेक मूर्तियों का संबंध प्रत्यक्ष रूप से बौद्ध धर्म से नहीं था। इन मूर्तियों का अंकन लोक परंपराओं से प्रभावित होते हुए किया गया था। उदाहरण के लिए, साँची स्तूप के तोरणद्वार पर सुन्दर स्त्रियों की मूर्तियाँ भी उत्कीर्ण की गई हैं। उन्हें तोरणद्वार के किनारे एक पेड़ की टहनियाँ पकड़कर झूलते हुए दिखाया गया है।

प्रारंभ में विद्वान यह सोचकर हैरान थे कि तोरणद्वार पर इस मूर्ति का अंकन क्यों किया गया, क्योंकि इस मूर्ति का त्याग और तपस्या से कोई प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संबंध दृष्टिगोचर नहीं होता था। किंतु अन्य साहित्यिक परंपराओं का अध्ययन करने के बाद विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यह मूर्ति शालभंजिका की है, जिसका संस्कृत ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। लोक परंपरा के अनुसार शालभंजिका के स्पर्श से वृक्ष फूलों से भर जाते थे और उनमें फल लगने लगते थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि बौद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले लोगों ने अपनी परंपराओं एवं धारणाओं का परित्याग नहीं किया अपितु इनसे बौद्ध धर्म को समृद्ध बनाया। विद्वान इतिहासकारों का विचार है कि साँची की मूर्तियों में पाए जाने वाले अनेक प्रतीकों अथवा चिह्नों को भी लोक परंपराओं से लिया गया था। उल्लेखनीय है कि जिस कला में प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है उसके अर्थ की व्याख्या अक्षरशः नहीं की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए बौद्ध मूर्तिकला में पेड़ का अभिप्राय केवल एक पेड़ से नहीं है अपितु उसका चित्रांकन महात्मा बुद्ध के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना के प्रतीक के रूप में किया जाता है। इतिहासकार कलाकृतियों के निर्माताओं की परंपराओं को समझकर ही प्रतीकों को समझने में समर्थ हो सकते हैं।

प्रश्न 7.
चित्र 4.1 और 4.2 में साँची से लिए गए दो परिदृश्य दिए गए हैं। आपको इनमें क्या नज़र आता है? वास्तुकला, पेड़-पौधे और जानवरों को ध्यान से देखकर तथा लोगों के काम-धंधों को पहचानकर यह बताइए कि इनमें से कौन से ग्रामीण और कौन से शहरी परिदृश्य हैं?
उत्तर:
साँची का स्तूप ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यहाँ की मूर्तिकला या चित्रकला को समझने में बौद्ध साहित्य और लोक परंपराओं से महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है।
चित्र-4.1-
इसको ध्यानपूर्वक देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसमें ग्रामीण दृश्य को अंकित किया गया है। इसमें लताओं, पेड़-पौधों और पशुओं को दर्शाया गया है। विशेष रूप से गाय, भैंस और हिरण को चित्रित किया गया है। इस चित्र के शीर्ष भाग में बने पशुओं के चित्रों और उनके साथ बने बौद्ध भिक्षुओं के चित्रों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे अपनी सुरक्षा को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हैं। जबकि निचले भाग में पशुओं के कटे हुए सिर और धनुष-वाण लिए कुछ लोगों को दिखाया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि बौद्ध धर्म से पूर्व ब्राह्मण धर्म में अनेक जटिलताओं का समावेश हो गया था। यहाँ तक कि बलि प्रथा को भी महत्त्व दिया जाने लगा था।
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चित्र-4.2-
इसमें कुछ मजबूत लंबे-लंबे स्तंभ और उनके नीचे जाली का सुंदर कार्य दिखाया गया है। इन स्तंभों के ऊपर विभिन्न मवेशी और कुछ अन्य वस्तुओं को चित्रित किया गया है। स्तंभों के माध्यम से बौद्ध धर्म के अनुयायियों को विभिन्न शारीरिक आकृतियाँ में बैठे हुए, खड़े हुए, एक-दूसरे को निहारते हुए तथा विभिन्न प्रकार के हाव-भाव की अभिव्यक्ति करते हुए दिखाया गया है। स्तंभ के ऊपरी सिरों पर उल्टे रखे हुए कलश, जिन पर डिजाइन बने हैं, दर्शाया गया है। इस चित्र के निचले भाग में कुछ स्तंभ, भिक्षुणियों के विभिन्न आकार, हाव-भाव और किसी इमारत के डिज़ाइन जो संभवतः किसी स्तंभ के बाहरी हिस्से से संबंधित हैं, दिखाया गया है। हमारे विचारानुसार चित्र नं. 4.1 ग्रामीण क्षेत्रों से और चित्र नं. 4.2 राजा, शहरी परिदृश्य और महलों से संबंधित है।
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प्रश्न 8.
वैष्णववाद और शैववाद के उदय से जुड़ी वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
600 ई०पू० से 600 ई० तक के काल में वैष्णववाद और शैववाद का भी पर्याप्त विस्तार हुआ। वैष्णववाद और शैववाद इन दोनों परंपराओं में एक देवता विशेष की पूजा पर विशेष बल दिया जाता था। वैष्णव परंपरा में विष्णु को और शैव परंपरा में शिव को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देवता माना जाता है। दोनों परंपराएँ पौराणिक हिंदू धर्म से संबंधित थीं और दोनों के अंतर्गत मूर्तिकला का विशेष विकास हुआ।

मूर्तिकला का विकास :
अवतारवाद की भावना-वैष्णव धर्म की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। इसमें विष्णु के अवतारों की पूजा पर बल दिया गया। विष्णु के अनेक अवतारों की मूर्तियाँ बनाई गईं। अन्य देवी-देवताओं की भी मूर्तियाँ बनाई गईं। शिव का चित्रांकन प्रायः उनके प्रतीक लिंग के रूप में किया जाता था। प्रायः मनुष्य के रूप में उनकी मूर्तियाँ भी बनाई जाती थीं। सभी चित्रणों का आधार देवी-देवताओं से जुड़ी मिश्रित अवधारणाएँ थीं। देवी-देवताओं को विशेषताओं एवं उनके प्रतीकों का चित्रांकन उनके शिरोवस्त्र, आभूषणों, आयुधों और बैठने की मुद्रा के द्वारा किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि देश के भिन्न-भिन्न भागों में विष्णु के भिन्न-भिन्न रूप लोकप्रिय थे, जिससे मूर्तिकला के विकास को विशेष प्रोत्साहन मिला। निस्संदेह, सभी स्थानीय देवताओं को विष्णु का रूप मान लेना एकीकृत धार्मिक परंपरा के निर्माण की दिशा में उठाया गया एक महत्त्वपूर्ण कदम था।

विद्वान इतिहासकार इन मूर्तियों से जुड़ी कथाओं का भली-भाँति अध्ययन करके ही उनके अंकन का वास्तविक अर्थ समझने में सफल हुए हैं। इनमें से अनेक कथाओं का उल्लेख प्रथम सहस्राब्दी के मध्यकाल में ब्राह्मणों द्वारा रचित पुराणों में मिलता है। इनकी रचना सामान्यतः संस्कृत श्लोकों में की गई थी। परंपरा के अनुसार इन्हें ऊँची आवाज़ में पढ़ा जाता था ताकि सभी तक उनकी आवाज पहुँच सके। पुराणों की अधिकांश कथाओं का विकास लोगों के पारस्परिक मेलजोल के परिणामस्वरूप हुआ। व्यापारियों, पुजारियों एवं सामान्य स्त्री-पुरुषों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन के परिणामस्वरूप उनके विश्वासों एवं अवधारणाओं का परस्पर आदान-प्रदान होता रहता था। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है कि वासुदेव-कृष्ण मथुरा क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण स्थानीय देवता थे, किंतु धीरे-धीरे उनकी पूजा का विस्तार लगभग संपूर्ण देश में हो गया था।

वास्तुकला का विकास :
मंदिरों का निर्माण । उल्लेखनीय है कि विचाराधीन काल में देवी-देवताओं के निवास के लिए अनेक मंदिरों का भी निर्माण किया गया। प्रारंभिक मंदिरों में एक चौकोर कमरा होता था, जिसे गर्भगृह के नाम से जाना जाता था। इसमें एक दरवाज़ा होता था। उपासक इस दरवाजे से मूर्ति की पूजा करने के लिए अंदर प्रवेश कर सकता था। धीरे-धीरे गर्भगृह के ऊपर एक ऊँची संरचना बनाई जाने लगी जिसे शिखर कहा जाता था। मंदिर की दीवारों पर सुंदर भित्तिचित्रों को उत्कीर्ण किया जाता था। कालांतर में मंदिर स्थापत्य में महत्त्वपूर्ण विकास हुआ।

मंदिरों में विशाल सभास्थलों, ऊँची दीवारों तथा सुंदर तोरणद्वारों का भी निर्माण किया जाने लगा। कुछ मंदिरों में जल-आपूर्ति का भी प्रबंध किया जाता था। इस काल की स्थापत्यकला अधिकांश रूपों में धर्म अनुप्राणित थी। इस काल में अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ, जिनमें देवगढ़ का देशावतार मंदिर, भूमरा का शिव मंदिर, नचना का पार्वती मंदिर, तिगवा का विष्णु मंदिर तथा भीतर गाँव का मंदिर अपनी उत्कृष्ट कला के लिए उल्लेखनीय है। प्रारंभिक मंदिरों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इनमें से कुछ मंदिरों का निर्माण पहाड़ियों को काटकर और खोखला करके कृत्रिम गुफाओं के रूप में किया गया था।

कृत्रिम गुफाएँ बनाने की परंपरा बहुत पहले से प्रचलन में थी। सर्वाधिक प्राचीन कृत्रिम गुफाओं का निर्माण ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में किया गया था। इन गुफाओं का निर्माण मौर्य सम्राट अशोक के आदेश से आजीविक संप्रदाय के संतों के लिए किया गया था। दक्षिण भारत में कुछ उत्कृष्ट कोटि की शैलकृत गुफाओं का निर्माण हुआ। अजंता की गुफाएँ स्थापत्यकला का एक उल्लेखनीय नमूना हैं। उनके स्तंभ अत्यधिक सुंदर एवं भिन्न-भिन्न डिजाइनों वाले हैं तथा इनकी आंतरिक दीवारों एवं छतों को सुंदर चित्रों से सुसज्जित किया गया है। मध्य प्रदेश में बाघ में स्तूप-गुफाएँ और विहार-गुफाएँ पर्वतों को काटकर बनाई गई हैं। एलोरां की गुफाएँ शैलकृत गुफाओं का उल्लेखनीय उदाहरण है।

इस काल में पहाड़ी के एक तरफ के पूरे खंड की कटाई करके भव्य एकाश्मीय मंदिरों का निर्माण किया गया। इन मंदिरों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी, एक बड़ा कक्ष तथा सुंदर नक्काशीदार स्तंभ। सातवीं शताब्दी में पल्लव राजा महेंद्रवर्मन तथा नरसिंहवर्मन ने मामल्लपुरम् में अनेक स्तंभों वाले विशाल कक्षों तथा सात एकाश्मीय मंदिरों का निर्माण करवाया। इन्हें सामान्यतया रथ मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस परंपरा का सर्वाधिक विकसित रूप 8वीं शताब्दी के एलोरा के कैलाशनाथ के मन्दिर में देखने को मिलता है। इसमें पूरी पहाड़ी को काटकर उसे मन्दिर का रूप दिया गया है। इस प्रकार यह कहना उचित ही होगा कि वैष्णववाद और शैववाद के उदय ने मूर्तिकला और वास्तुकला के विकास को अत्यधिक प्रोत्साहन दिया।

प्रश्न 9.
स्तूप क्यों और कैसे बनाए जाते थे? चर्चा कीजिए। उस्तूप क्यों बनाए जाते थे?
उत्तर:
स्तूप संस्कृत का एक शब्द है, जिसका अर्थ है-‘ढेर’। सामान्यतः स्तूप महात्मा बुद्ध अथवा किसी अन्य पवित्र भिक्षु के अवशेषों, जैसे-दाँत, भस्म आदि अथवा किसी पवित्र ग्रंथ पर बनाए जाते थे। अवशेष स्तूप के केंद्र में बनाए गए एक छोटे-से कक्ष में एक पेटिका में रख दिए जाते थे। स्तूप बनाने की परम्परा संभवतः बुद्ध से पहले ही प्रचलित रही होगी, किन्तु स्तूपों को बुद्ध और बौद्ध धर्म के प्रतीक के रूप में विशेष प्रसिद्धि मिली। ‘अशोकावदान’ नामक बौद्धग्रन्थ से उल्लेख मिलता है कि मौर्य सम्राट अशोक ने महात्मा बुद्ध के अवशेषों के भाग प्रत्येक महत्त्वपूर्ण शहर में बाँटकर उन पर स्तूप बनाने का आदेश दिया था। दूसरी शताब्दी ई०पू० तक भरहुत, साँची और सारनाथ जैसे स्थानों पर महत्त्वपूर्ण स्तूप बनवाए जा चुके थे। स्तूप कैसे बनाए जाते थे? स्तूप प्राय: दान के धन से बनाए जाते थे।

स्तूप बनाने के लिए दान राजाओं (जैसे सातवाहन वंश के राजा), धनी व्यक्तियों, शिल्पकारों एवं व्यापारियों की श्रेणियों और यहाँ तक कि भिक्षुओं और भिक्षुणियों के द्वारा भी दिए जाते थे। स्तूपों की वेदिकाओं तथा स्तंभों पर मिले अभिलेखों से इनके निर्माण और सजावट के लिए दिए जाने वाले दान का उल्लेख मिलता है। अभिलेखों में दानदाताओं के नामों और कभी-कभी उनके ग्रामों अथवा शहरों के नामों, व्यवसायों और संबंधियों के नामों का भी उल्लेख मिलता है। उदाहरण के लिए, साँची स्तूप के एक प्रवेशद्वार का निर्माण विदिशा के हाथीदाँत का काम करने वाले शिल्पकारों के संघ द्वारा करवाया गया था। स्तूप की निर्माण योजनानीचे एक गोलाकार आधार पर एक अर्द्धगोलाकार गुंबद बनाया जाता था, जिसे अंड कहा जाता था। अंड के ऊपर एक और संरचना होती थी जिसे हर्मिका कहा जाता था। हर्मिका, छज्जे जैसी संरचना होती थी, जिसका निर्माण ईश्वर के आसन के रूप में किया जाता था।

हर्मिका के ऊपर एक सीधा खंभा होता था, जिसे यष्टि कहा जाता था। इसके ऊपर छतरी लगी होती थी जिसे छतरावलि कहा जाता था। पवित्र स्थल को सांसारिक स्थान से पृथक् करने के लिए इसके चारों ओर एक वेदिका बना दी जाती थी। साँची और भरहुत के स्तूपों में किसी प्रकार की साज-सज्जा नहीं मिलती। उनमें केवल पत्थर की वेदिकाएँ और तोरणद्वार हैं। पत्थर की वेदिकाएँ लकड़ी अथवा बाँस के घेरे के समान थीं। चारों दिशाओं में बनाए गए तोरणद्वारों पर सुन्दर नक्काशी की गई थी। भक्तजन पूर्वी तोरणद्वार से प्रवेश करके सूर्य के पथ का अनुसरण करते हुए परिक्रमा करते थे। कालांतर में स्तूप के टीले को भी ताखों एवं मूर्तियों से अलंकृत किया जाने लगा। अमरावती और पेशावर के (आधुनिक पाकिस्तान में शाहजी-की-ढेरी) स्तूप इसके सुंदर उदाहरण हैं।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
विश्व के रेखांकित मानचित्र पर उन इलाकों पर निशान लगाइए जहाँ बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। उपमहाद्वीप से इन इलाकों को जोड़ने वाले जल और स्थल मार्गों को दिखाएँ।
उत्तर:
संकेत-

  1. भारत
  2. अफगानिस्तान
  3. जापान
  4. पाकिस्तान
  5. यूनान
  6. कोरिया
  7. श्रीलंका
  8. चीन।

विश्व का रेखांकित मानचित्र लेकर विद्यार्थी स्वयं करें।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
इस अध्याय में चर्चित धार्मिक परंपराओं में से क्या कोई परंपरा आपके अड़ोस-पड़ोस में मानी जाती है? आज किन धार्मिक ग्रंथों का प्रयोग किया जाता है? उन्हें कैसे संरक्षित और संप्रेषित किया जाता है? क्या पूजा में मूर्तियों का
प्रयोग होता है? यदि हाँ, तो क्या ये मूर्तियाँ इस अध्याय में लिखी गई मूर्तियों से मिलती-जुलती हैं या अलग हैं? धार्मिक | कृत्यों के लिए प्रयुक्त इमारतों की तुलना प्रारंभिक स्तूपों और मंदिरों से करें।
उत्तर:
स्वयं करें।

प्रश्न 12.
इस अध्याय में वर्णित धार्मिक परंपराओं से जुड़े अलग-अलग काल और इलाकों की कम-से-कम पाँच मूर्तियों और चित्रों की तसवीरें इकट्ठी कीजिए। उनके शीर्षक हटाकर प्रत्येक तसवीर दो लोगों को दिखाइए और उन्हें इसके बारे में बताने को कहिए। उनके वर्णनों की तुलना करते हुए अपनी खोज की रिपोर्ट लिखिए।
उत्तर:
स्वयं करें।

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NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 13 Mahatma Gandhi and the Nationalist Movement: Civil Disobedience and Beyond

Detailed, Step-by-Step NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 13 Mahatma Gandhi and the Nationalist Movement: Civil Disobedience and Beyond Questions and Answers were solved by Expert Teachers as per NCERT (CBSE) Book guidelines covering each topic in chapter to ensure complete preparation. https://mcq-questions.com/ncert-solutions-for-class-12-history-chapter-13/

Mahatma Gandhi and the Nationalist Movement: Civil Disobedience and Beyond NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 13

Mahatma Gandhi and the Nationalist Movement: Civil Disobedience and Beyond Questions and Answers Class 12 History Chapter 13

Question 1.
How did Mahatma Gandhi seek to identify with the common people ?
Answer:
Mahatma Gandhi believed in simple living and high thinking. He did the following to identify himself with the common people of India:

  • He did not behave like a professional or an intellectual. Rather he mixed with thousands of peasants, workers and artisans.
  • He dressed himself like the common man. He also lived like them and spoke their language. He wore simple dhoti or loin-cloth and did not like to stand apart from the common people. He liked to mix with them, sit and talk with them.
  • He worked on the Charkha (spinning wheel) everyday. He also encouraged other nationalists to do the same. In fact, he favoured synthesis between mental and manual labour.
  • He did not believe in the traditional caste system.
  • He often spoke in the mother tongue.

Question 2.
How was Mahatma Gandhi perceived by the peasants ?
Answer:
The peasants gave a lot of respect to Gandhiji. They referred to him as their Mahatma having miraculous powers. They believed that God had sent him to redress and solve their grievances. They found Gandhiji as a dominating person who could overrule all local officials. So they revered him as ‘Gandhi Baba’, ‘Gandhi Maharaj’ or as ‘Mahatma’.

They considered him as their saviour. They believed that Gandhi could save them from high taxes and oppressive officials. They were impressed by his ascetic lifestyle and his love of working with his hands. In the end, the peasants venerated Gandhiji as they believed that he could restore their dignity and add autonomy in their lives.

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 13 Mahatma Gandhi and the Nationalist Movement: Civil Disobedience and Beyond

Question 3.
Why did the Salt Law become an important issue of struggle ?
Answer:
During the British rule, the Salt Law had given the state a monopoly to manufacture and sell salt. Most of the Indians abhorred these laws as salt was indispensable in every Indian household. But the British had forbidden the people from making salt even for their domestic use. They compelled all the people to buy salt from shops at a high rate. The people could not do anything as the state enjoyed monopoly over the manufacturing and sale of the salt.

Gandhi had a keen practical wisdom. He understood that the people disliked the Salt Law and targeted these laws. As the people were discontent against the British rule, they gathered around Mahatma Gandhi who mobilised their strength and energy to give boost to his struggle for complete independence of the country. So the salt laws had become an important issue in the freedom struggle of India.

Question 4.
Why are newspapers an important source for the study of the national movement ?
Answer:
Contemporary newspapers are an important source for the study of national movement. If we want to know more about our freedom struggle, we must consult both English newspapers as well as newspapers in different Indian languages.

  • The contemporary newspapers wrote about all the movements launched by Mahatma Gandhi.
  • They reported all the important activities, speeches and statements of Mahatma Gandhi.
  • They also presented views about what ordinary Indians thought of him.
  • However the newspapers must be read with care as the views expressed in them can be prejudiced.

Question 5.
Why was the Charkha chosen as a symbol of nationalism ?
Answer:
Gandhiji used to work on the Charkha every day. He made it a symbol of nationalism because of the following reasons:

(i) Charkha symbolised manual labour. Mahatma Gandhi always believed in the dignity of labour. He liked to work with his own hands. However he considered Charkha as an exquisite piece of machinery.

(ii) Gandhiji opposed machines as they enslaved human beings. He adopted Charkha as he wanted to glorify the dignity of manual labour and not of the machines and technology.

(iii) Gandhiji believed that Charkha could make a man self-reliant as it added to his income.

(iv) The act of spinning at Charkha (spinning wheel) enabled Gandhiji to break the boundaries of traditional caste system. In fact Gandhiji wanted to make Charkha as a symbol of nationalism. So he encouraged other nationalist leaders to spin the Charkha for sometime daily.

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Question 6.
How was Non-Cooperation a form of protest ?
Or
Discuss the causes, programmes, progress tand significance of the Non Cooperation Movement.
Or
Examine the causes and the contribution of Non-Cooperation Movement to India’s freedom struggle. Why did Gandhiji couple Non-Cooperation Movement with Khilafat Movement? (C.B.S.E. 2011 (D))
Or
Describe how Gandhiji knitted Non-Cooperation Movement as a popular movement. (C.B.S.E. 2013 (O.D.))
Or
“The Non cooperation Moment was training for self rule.” Analyse the statement of American biographer Louis Fischer in the context of Indian Nationalism. (C.B.S.E. 2019 (D))
Answer:
The Non-Cooperation Movement was started in 1920 under the leadership of Mahatma Gandhi. It was a campaign of non-cooperation with the British rule. It was a mass-movement in which lakhs of people, belonging to all sections of society, participated. According to Louis Fischer, “It entailed denial, renunciation and self-discipline. It was training for self-rule.”

Causes and Conditions :
(i) The Indians had extended full cooperation to the British during the First World War but after this war, the British fully exploited all the people of India. So there was a feeling of discontent against the alien rule.

(ii) The plague had erupted and spread in many parts of India during the First World War but the British did not pay any attention to control it.

(iii) During the First World War, Gandhiji had helped the British with the hope that they would set the country free after the end of the war. But all the hopes of Gandhiji were dashed to the ground after the First World War.

(iv) In 1919, the British Government had passed the Rowlatt Act which imposed censorship on the press and permitted detention without trial. The people rose against this atrocious Black Law.

(v) Gandhiji called for a nation-wide campaign against the Rowlatt Act. A large meeting of the people was held at Jallianwala Bagh in Amritsar. But a British Brigadier ordered his troops to open fire on this peaceful meeting of the people. It killed more than four hundred people and wounded several others. So there was a entment against the Britishers-among the people.

(vi) In the session of Indian National Congress held in September, 1920, a resolution for non-cooperation with the British Government was passed.

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Programme and Objectives of the Non-Cooperation Movement :
A detailed programme was chalked out to run this movement against the British rule. It included the following:

  • The boycott of foreign goods and the use of goods and things manufactured in the country.
  • To return Titles and Honours conferred by the British Government.
  • Resignations by Indian members nominated in the local institutions.
  • Not to send children to schools and colleges run by the British Government.
  • Boycott of the lawyers from the civil courts.
  • The soldiers, clerks and workers refused to render any service abroad.

Progress of the Movement and its End :

To widely spread the programme of the Non-Cooperation Movement, Mahatma Gandhi visited many parts of the country along with the Muslim leaders like Dr. Ansari, Maulana Abul Kalam Azad and Ali brothers. As a result, this movement shook the foundations of the British Raj for the first time since the Revolt of 1857.

The students did not attend their classes in the educational institutions rim by the British Government. Foreign garments were burnt at the crossroads. Rabindernath Tagore had relinquished his title of ‘Sir’. Similarly Mahatma Gandhi surrendered his title of‘Kesri Hind’. But in February, 1922, a group of peasants attacked a police station and set it on fire at Chauri Chaura, a village in Uttar Pradesh.

As several constables were burnt alive in this fire, Gandhiji was shocked at this violent incident and therefore called off his Non-Cooperation Movement.

Importance

  • Because of Non-Cooperation Movement, Congress came in direct clash with the British Government.
  • For the first time in the history of India, the people whole-heartedly participated in this movement.
  • During the Non-Cooperation Movement, the word ‘Swadeshi’ became quite popular. As a result, the Indian industry flourished.
  • This movement gave a new direction to the freedom-struggle of India.

Question 7.
Why were the dialogues at the Round Table Conference inconclusive ?
Answer:
The Dandi March of Mahatma Gandhi had made the British rulers realise that their reign was not forever. If they had to rule for long, they must involve the Indians in the administration and policy-making. So the British Government convened a series of Round Table Conferences in London.

(i) The First Round Table Conference was held in November 1930. It did not yield any concrete result as no important Indian leader participated in it. So Mahatma Gandhi was released in January, 1931 and the Round Table Conference was held in November, 1931. It was attended by Mahatma Gandhi. So it culminated in the Gandhi-Irwin Pact. Under this Pact, Mahatma Gandhi agreed to call off his Civil Disobedience Movement. The British agreed to release all the prisoners and also allowed the manufacture of salt along the sea-coast. Many leaders criticised this pact as it did not say anything about the complete independence of India.

(ii) The Second Round Table Conference was held in the later part of 1931 at London. Gandhiji attended it on behalf of the Congress. However his claim that Congress represented the whole of India was unacceptable to the Muslim League which claimed to represent the cause of all Muslims. The Princes also did not agree with Gandhi as they believed that the Congress had no stake in their territories. Dr. B.R. Ambedkar, a lawyer and thinker, also did not agree with Gandhiji. He stated that Congress did not represent the people belonging to lowest castes. So this conference remained inconclusive. Gandhiji felt disheartened and resumed his Civil Disobedience Movement.

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Question 8.
In what way did Mahatma Gandhi transform the nature of the national movement ?
Or
How did Mahatma Gandhi turn the national movement into a mass movement ?
Or
Explain how Gandhiji transformed Indian Nationalism by 1922. (C.B.S.E. 2010 (D))
Or
“In the history of nationalism, Gandhji is often identified with the making of a nation.” Describe his role in the freedom struggle of India. (C.B.S.E. 2014 (D))
Answer:
Before the entry of Mahatma Gandhi into Indian politics, the freedom struggle was just a nominal movement. Only resolutions were passed by the leaders and sent to the government. Besides the national movement remained confined to only limited areas. It did not engulf the whole country. A few areas of India were under the influence of revolutionaries.

A few other areas were under the influence of the assertive nationalist. But after the emergence of Mahatma Gandhi, the national movement did not remain confined to a few leaders and led the participation of all the people. It became a mass movement because of the following reasons:

(i) Principles of Truth and Non-Violence. When Mahatma Gandhi entered the Indian politics, he adopted two cardinal principles of truth and non-violence. The truth meant an insistence on the righteous conduct and right path. Non-violence meant the government actions should be opposed peacefully. The people had seen that Mahatma Gandhi had sincerely helped the British during the First World War.

He also exhorted the people to cooperate with the British Government but when British showed their true colours after the war was over and passed the Rowlatt Act to crush the Indians, Gandhiji gave a call for strike in the whole country. It was a non-violent step taken to vindicate the cause of truth. All the Indians whole¬heartedly participated in this strike.

(ii) Satyagraha and Non-Cooperation Movement. Mahatma Gandhi had resorted to the path of Satyagraha for the first time against the white government in South Africa. He had compelled the white government to bow before him. When he launched Non-Cooperation Movement in India, Gandhiji adopted the policy of Satyagraha. He called upon the people not to cooperate with the British Government.

All the people of the country plunged into this national movement against the British rule. The students stayed away from their classes in the government educational institutions. The lawyers boycotted the law-courts. The officials left their jobs and the common people boycotted foreign goods. The people of India belonging to all castes, classes, religions and professions, filled all the jails by courting their arrests. The British rule was shaken to its foundations by the mammoth participation of the people in the Non-Cooperation Movement.

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 13 Mahatma Gandhi and the Nationalist Movement: Civil Disobedience and Beyond

(iii) Breaking Salt Laws and Civil Disobedience Movement. Gandhiji led his world- famous Dandi March on 12 March, 1930. A large number of people joined the March which started from Sabarmati Ashram and culminated at Dandi on the sea-shore where Gandhiji broke one of the most widely disliked laws in British India, i.e., the Salt Law. Gandhi also exhorted all the people to break this drastic law in their own regions. He also advised them not to pay any tax to the British Government. This method of protesting against the British Government deeply impressed the local and foreign press. As a result, there was a mass upsurge against the colonial rule.

(iv) Opposition to Injustice. Mahatma Gandhi always opposed injustice. He kept fasts to favour and protect the untouchables. He forced the British Government to bow before the might of the common people. All the great leaders bowed before the miraculous charm of Gandhiji. In fact, Gandhiji was such a leader whom everybody in the country liked to follow.

(v) Encouragement to Swadeshi. Gandhiji encouraged the people of India to adopt swadeshi things or goods in life. He himself worked on the Charkha daily. Under his magnetic influence, many people burnt the foreign goods which inculcated national spirit among the people. They whole-heartedly participated in the national movement to attain complete independence from the colonial rule.

Question 9.
What do private letters and autobiographies tell us about an individual ? How are these sources different from official accounts ?
Or
Examine the different kinds of sources from which political career of Gandhiji and the history of the National Movement could be reconstructed ? (C.B.S.E. 2009, 2013 (D))
Answer:
The private letters and autobiographies are always an important source of information about the political leaders. The letters written to relatives or intimate friends give us a glimpse of the private thoughts of the writer.

These letters express an individual’s anger and pain, dismay and anxiety, hopes and frustrations. They bring out what is otherwise not openly expressed. For example, the letters written by Nehru and Gandhiji throw a lot of light on their ideas.

In the same way, autobiographies also give an account about the views and perceptions of a leader or any other person. However an autobiography is a retrospective account of one’s journey on this earth. It is often based on memory. So it must be read with care and caution.

However, an autobiography is still an important source to know a person. If anybody writes an autobiography, he, infact, frames a picture of himself for the outside world. The autobiography of Mahatma Gandhi “The Story of My Experiments With Truth’ became quite popular due to its straight forwardness and veracity.

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NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 14 Understanding Partition: Politics, Memories, Experiences

Detailed, Step-by-Step NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 14 Understanding Partition: Politics, Memories, Experiences Questions and Answers were solved by Expert Teachers as per NCERT (CBSE) Book guidelines covering each topic in chapter to ensure complete preparation. https://mcq-questions.com/ncert-solutions-for-class-12-history-chapter-14/

Understanding Partition: Politics, Memories, Experiences NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 14

Understanding Partition: Politics, Memories, Experiences Questions and Answers Class 12 History Chapter 14

Question 1.
What did the Muslim League demand through its Resolution of 1940 ?
Answer:
The Muslim League passed an important resolution on 23 March, 1940. Through this resolution, the Muslim League demanded an autonomy for the Muslim-majority areas of the sub-continent. However, it did not mention either partition of the country or the creation of Pakistan. In fact, Sikandar Hayat Khan, the Punjab Premier and Leader of the Unionist Party, had drafted this resolution. Speaking in the Punjab Assembly on 1 March, 1941, he had opposed the creation of Pakistan. He was in favour of a loose confederation with a lot of autonomy for the units.

Question 2.
Why did some people think of partition as a very sudden development ?
Answer:
Many people considered the partition of India in 1947 as a very sudden development. Even the Muslims were not clear what the creation of Pakistan meant to them. They were also unaware how the creation of their own country might shape their lives in the future. Many people had migrated to the new country with the hope that they would soon come back as and when the peace prevailed in the region.

Many Muslim leaders were even not serious in their demand for Pakistan. Many-a-times Jinnah used the idea of Pakistan to seek favours from the British and to block concessions to the Congress. In other words, the partition of the country took place so suddenly that nobody realised what had happened within a few days.

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Question 3.
How did the ordinary people view the partition ?
Answer:
People viewed the partition of India in 1947 in the following way:

  • Many people had left their homes and migrated to other places. They still felt that it was a temporary phase and they would return to their homes as soon as peace prevailed.
  • Many people considered partition as a holocaust. They referred to it as ‘Maashal-la’ (martial law), Mara- mari’ (Killings), ‘Raula’ (Disturbance or Tumult) and ‘Hullar’ (Uproar). In other words, they symbolised partition with destruction or slaughter on a mass-scale.
  • Some people considered partition as a civil war in which concerted efforts were made to wipe out the entire communities.
  • Some people viewed partition as a more or less orderly constitutional arrangement.

Question 4.
What were Mahatma Gandhi’s arguments against Partition ?
Or
Examine the views of Gandhiji against the Partition of India. (C.B.S.E. 2009 (D))
Answer:
Mahatma Gandhi believed in religious harmony. He was a supporter of unity among various communities of the country. So he was deadly against the partition of India. He did not want the separation of the Muslims from the Hindus who had been living together for centuries. He used to say that the country could be divided over his dead body. He gave the following arguments against the partition of India:

(i) He stated that the demand for Pakistan mooted by the Muslim League was un-Islamic and sinful. Islam stands for the unity and brotherhood of mankind. So it cannot disrupt the unity of human family.

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(ii) According to Gandhiji, the protagonists of partition of the country were the enemies of both Islam and India.

(iii) He considered partition as wrong. He was ready to be cut into pieces. But he was not ready to accept the partition of the country.

(iv) He appealed to the Muslim League not to regard any Indian as its enemy. The Hindus and the Muslims belong to the same land. They have the same blood and eat the same food and drink the same water. They speak the same language and do everything with mutual consultation. So they cannot be separated from each other.

Question 5.
Why is partition viewed as an ‘extremely significant marker in South Asian history ?
Or
Briefly describe the social impacts , of the partition.Why is the partition of India viewed of an extremely significant marker in the history of India and Pakistan ? Explain. (C.B.S.E. 2013 (O.D.))
Answer:
Indian partition is viewed as an extremely significant marker in South Asian history because of the following reasons
(i) This partition took place on the name of communities or religions. History has not witnessed such type of partition.

(ii) First time in history, people of two countries moved across. Most of the Muslims of India crossed over to Pakistan and almost all the Hindus and Sikhs came to India from Pakistan.

(iii) Several hundred thousand people were killed. People began killing each other who used to live with each other with peace and harmony. Government machinery had no role in it.

(iv) People were rendered homeless, having suddenly lost all of their immovable and movable assets. They were separated from many of their relatives and friends as well.

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Question 6.
Discuss the causes that brought the partition of India. Was this partition essential or could it be postponed ?
Or
Why was the British India partitioned ?
Or
Examine the events that were responsible for the partition of India. (C.B.S.E. 2019 (O.D.))
Answer:
In 1947, India was partitioned owing to the role of communal forces and the British policy of Divide and Rule. In fact, the British Policy had strengthened the hands of the communal forces. It spread hatred between people belonging to different religions. The role of the British prepared a ground for the partition of the country. It is evident from the following points:

(i) The policy of Divide and Rule : After the Revolt of 1857, the British were apprehensive about the Hindu-Muslim unity. So they adopted a new policy of dividing the religious minorities to strengthen and perpetuate their rule in India. They instigated one community against the other. They also instigated the Hindus against the Muslims and vice-versa. As a result, their was communal tension between Hindus and Muslims.

(ii) Attempts of the Muslim League : The Muslims formed their Muslim League in 1906. As a result, the Hindu-Muslim relations soured and the communal tension between the two communities increased. These differences increased so much that in its Declaration of 1940, the Muslim League demanded Pakistan for the Muslims.

(iii) Weak Policy of the Congress : The demands of the Muslim League were increasing day by day. The Congress was accepting them one by one. In 1916, it accepted the creation of separate electorate system. Making use of the weak policy of the Congress, the Muslim League started demanding the partition of the country.

(iv) Communal Riots : To press its demand for Pakistan, the Muslim League decided a ‘Direct Action Day’. It announced 16 August, 1946 as the Direct Action Day. On this day, many communal riots had broken out in cities like Calcutta. These riots had spread all over the country by 1947. They could be stopped only by the partition of the country.

(v) Failure of the Interim Government : An Interim Government was formed in 1946. Here the Congress and the Muslim League got a chance to work together. But the Muslim League put various hurdles in the way of Congress. Consequently, the Interim Government remained a failure. It became clear that the Hindus and the Muslims could not run the administration unitedly.

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(vi) The British Declaration to Quit India :
On 20 February, 1947, Clement Attlee, the Prime Minister of England, declared to free India by June, 1948. The declaration also stated that the British would leave India after there is an agreement between Congress and the Muslim League. But Muslim League was not ready to accept freedom without getting Pakistan for the Muslims. As a result, the British Government started devising a plan to divide India into Pakistan and India.

(vii) Partition of India : With the purpose of
partitioning India, Lord Mountbatten was sent to India as the Viceroy. With his pragmatic approach, he brought both Nehru and Patel round to his point of view, that is, the partition of the country. When Nehru and Patel had agreed to accept the partition plan, at last India was divided into two parts in 1947.

Was the Partition of India essential ?
Or
Could the Partition of India be postponed ?
Answer:
Though the partition of India was painful yet it was essential. The Congress was forced to accept it in wake of the prevailing circumstances. In reality, this partition could be postponed. The following arguments can be given in this regard :

(i) The leaders of the Congress were exhausted due to long-drawn battle for independence. So they accepted the partition plan. But they should have thought that Jinnah, the main spokesperson for Pakistan, was suffering from cancer. He had become quite weak and had no power to fight any more. Had Congress kept its patience, it was possible that Jinnah could have left this demand for partition. He would have made some agreement with the Congress.

(ii) The Congress wanted to get maximum benefit from the Labour Government in England. It feared that it might lose freedom if ever the Conservative Party came to power. But it was just a fallacy of the Congress. The Conservative Government could not be formed in England before at least 1950. During these three years, it would not have been difficult to change the scenario by starting a big movement against the British and for Hindu-Muslim unity.

(iii) Congress was weary of the communal riots. It wanted to get rid of them. So it accepted Mountbatten’s plan for the partition of India. Rather than accepting the proposal of the Viceroy, the Congress should have pressurised him to crush those who spread communal violence and caused communal riots. If the British Government could repress NonCooperation Movement and Quit India Movement, why could it not crush merely a few hundred rioteers and fanatics. Having taken any of these steps, the partition of the country could have been definitely postponed.

Question 7.
How did women experience partition ?
Or
Explain some of the horrowing experiences of women in those violent days of partition. (C.B.S.E. 2009 (D))
Or
“Scholers have written about the harrowing experiences of women during the partition of India.” Explain the statement. (C.B.S.E. 2019 (O.D.))
Answer:
At the time of partition of the country, the women had horrible experiences. They were not only raped and abducted but also sold. They were compelled to settle down to a new life with strangers in unknown circumstances. They found the governments of both India and Pakistan insensitive to their problems.

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It was very difficult for the women to protect their respect and honour. Some women were even killed by their family members so that their hounour is maintained and their respect and piousness is not violated by the enemy. Some women committed suicides to save themselves from falling into enemy hands. For example, in Thoa Khalsa, a village in Rawalpindi District, ninety women voluntrarily jumped into a well so that they may not be caught by enemies. They died as martyrs and cannot be termed as having committed suicides. The sacrifice and bravery of such women is still remembered.

Question 8.
How did the Congress come to change its views on partition ?
Answer:
Initially the Congress was against the partition of the country. But in March, 1947, the Congress high command agreed to divide Punjab into two halves. One part would constitute of the Muslim- majority areas. The other part would include areas having Hindu-Sikh majority.

Many Sikh leaders and Congressmen were convinced that partition of Punjab was a necessary evil. The Sikhs felt that if they did not accept the partition, they would be over-powered by the Muslim majorities. Then they would be dictated and controlled by Muslim leaders.

The similar principle was applied to Bengal. There was a section of Bhadralok Bengali Hindus. They wanted to retain political power with them. They were also apprehensive of the Muslims. As the Hindus were in minority in Bengal, they thought it prudent to divide the province. It would help them retain their political dominance. Thus, Congress changed its perception about the partition of the country after adopting a pragmatic approach.

Question 9.
Examine the strengths and limitations of oral history. How have oral history techniques furthered our understanding of partition ?
Or
Describe the strengths and weaknessess of oral history (C.B.S.E 2014 (O.D.))
Or
Analyse the distinctive aspects of the oral testimonies to understand the history of the partition of British India. (C.B.S.E 2016 (D))
Or
Examine the importance and eimitations of memories and oral testimonies in reconstructing the history of the partition of India. (C.B.S.E 2019 (O.D.))
Answer:
Oral history has a wider scope to acquaint us about any historic or general event. Besides there are narratives, memoirs, diaries and family histories. They also help us to understand and comprehend any event that occurred in the past.
The partition of India occurred due to compelling circumstances of those times. It was not just a political event and had a deeper meaning attached to it. Strengths of Oral History

  • It helps us in grasping new experiences. It also adds new events to our memories.
  • It is quite helpful for the historians as it enables them to describe an incident vividly and comprehensively.
  • It provides information other than the government policy and official records.
  • It broadens the scope of history.
  • It enables the historians to explore the experiences of the ignored people.

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Limitations of Oral History

  • It lacks concreteness and authenticity.
  • It is not chronological.
  • It makes generalisation difficult as a large picture cannot be built from micro-evidence.
  • One witness is no witness.
  • It is difficult to counter-check the oral sources.
  • Oral sources are not easily available. Sometimes people do not like to talk about their personal experiences.
  • Sometimes meaningful data is not available due to weak memory of the person.

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