Author name: Raju

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 14 Understanding Partition Politics, Memories, Experiences (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 14 Understanding Partition Politics, Memories, Experiences (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 14 Understanding Partition Politics, Memories, Experiences (Hindi Medium)

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अभ्यास-प्रश्न
(NCERT Textbook Questions Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)।

प्रश्न 1.
1940 के प्रस्ताव के जरिए मुस्लिम लीग ने क्या माँग की?
उत्तर:
मुस्लिम लीग की स्थापना 30 दिसम्बर, 1906 ई० को ढाका में की गई। यह भारतीय मुसलमानों की प्रथम राजनैतिक संस्था थी। भारतीय मुसलमानों की ब्रिटिश सरकार के प्रति राजभक्ति की भावनाओं में वृद्धि करना तथा उनके प्रति सरकार के संदेहों को दूर करना, इसका एक प्रमुख उद्देश्य था। शीघ्र ही लीग उत्तर प्रदेश के, विशेष रूप से अलीगढ़ के, संभ्रांत मुस्लिम वर्ग के प्रभाव में आ गई। ब्रिटिश प्रशासकों ने लीग का प्रयोग राष्ट्रीय आंदोलन को दुर्बल बनाने तथा शिक्षित मुस्लिम समुदाय को राष्ट्रीय आंदोलन की ओर आकर्षित होने से रोकने के साधन के रूप में किया।

1937 ई० में कांग्रेस द्वारा संयुक्त प्रान्त में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर मंत्रिमण्डल बनाने से इनकार कर दिए जाने पर कांग्रेस और लीग के संबंध बहुत अधिक बिगड़ गए थे। लीग ने ‘इस्लाम खतरे में है’ का नारा लगाया और कांग्रेस को हिन्दुओं की संस्था बताया। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सभी कांग्रेसी मंत्रिमंडलों द्वारा नवम्बर 1939 ई० में त्यागपत्र दे दिए जाने पर मुस्लिम लीग अत्यधिक प्रसन्न हुई। लीग ने ‘द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत’ का प्रचार किया तथा मुस्लिम जनसामान्य एवं ब्रिटिश प्रशासकों को यह विश्वास दिलाने का भरसक प्रयास किया कि मुसलमानों के हित हिन्दू हितों से भिन्न है और अल्पसंख्यक मुसलमानों को बहुसंख्यक हिन्दुओं से भारी खतरा है।

मार्च 1940 ई० में लाहौर अधिवेशन में लीग ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसमें उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में सीमित स्वायत्तता की माँग की गई। प्रस्ताव में कहा गया कि “ भौगोलिक दृष्टि से सटी हुई इकाइयों को क्षेत्रों के रूप में चिह्नित किया जाए, जिन्हें बनाने में आवश्यकतानुसार क्षेत्रों का फिर से ऐसा समायोजन किया जाए कि हिन्दुस्तान के उत्तर-पश्चिम और पूर्वी क्षेत्रों जैसे जिन भागों में मुसलमानों की संख्या अधिक है, उन्हें इकट्ठा करके ‘स्वतंत्र राज्य’ बना दिया जाए, जिनमें सम्मिलित इकाइयाँ स्वाधीन और स्वायत्त होंगी।”

प्रश्न 2.
कुछ लोगों को ऐसा क्यों लगता था कि बँटवारा बहुत अचानक हुआ?
उत्तर:
कुछ विद्वानों के विचारानुसार देश का विभाजन बहुत अचानक हुआ। हमें याद रखना चाहिए कि भारत विभाजन की आधार-भूमि में प्रारंभ से ही ब्रिटिश कूटनीति कार्य कर रही थी। ब्रिटिश प्रशासकों ने प्रारंभ में ही ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का अनुसरण किया। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को दुर्बल बनाने के लिए वे मुसलमानों की सांप्रदायिक भावनाओं को उत्तेजित करते रहे। 1942 ई० के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की व्यापकता से यह स्पष्ट हो गया था कि अंग्रेज़ अधिक समय तक भारत को अपने अधीन नहीं रख सकेंगे। और उन्हें भारत को स्वतंत्र करना ही होगा। इस आंदोलन के कारण इंग्लैंड के विभिन्न राजनैतिक दल भारतीय समस्या पर गंभीरतापूर्वक विचार करने लगे और अंग्रेजों का भारत छोड़ना निश्चित हो गया। किन्तु कूटनीति के कुशल खिलाड़ी अंग्रेज़ भारत को एक शक्तिशाली नहीं अपितु दुर्बल और विखंडित देश के रूप में छोड़ना चाहते थे।

अतः वे अचानक विभाजन के लिए तैयार हो गए। हमें याद रखना चाहिए कि उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुलता वाले क्षेत्रों के लिए सीमित स्वायत्तता की माँग से विभाजन होने के बीच का काल केवल 7 वर्ष का था। सम्भवतः किसी को भी यह ठीक से पता नहीं था कि पाकिस्तान के निर्माण का क्या अभिप्राय होगा और उसका भविष्य में जनसामान्य के जीवन पर क्या प्रभाव होगा? । उल्लेखनीय है कि 1947 ई० में अपने मूल स्थान को छोड़कर नए स्थान पर जाने वाले अधिकांश लोगों को विश्वास था कि शान्ति स्थापित होते ही वे अपने मूल स्थान में लौट आएँगे। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि प्रारंभ में मुस्लिम नेता भी एक सम्प्रभु राज्य के रूप में पाकिस्तान की माँग के प्रति गंभीर नहीं थे। सम्भवतः स्वयं जिन्नाह भी सौदेबाजी में पाकिस्तान की सोच का प्रयोग एक पैंतरे के रूप में करना चाहते थे। इसके द्वारा वे एक ओर, सरकार द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को दी जाने वाली रियायतों पर रोक लगा सकते थे और दूसरी ओर, मुसलमानों के लिए अधिकाधिक रियायतें प्राप्त कर सकते थे।

उल्लेखनीय है कि मार्च 1940 ई० में लाहौर अधिवेशन में लीग ने जो प्रस्ताव प्रस्तुत किया, उसमें उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में केवल सीमित स्वायतत्ता की माँग की गई थी। इस अस्पष्ट से प्रस्ताव में विभाजन अथवा पाकिस्तान का उल्लेख कहीं भी नहीं किया गया था। इस प्रस्ताव के लेखक पंजाब के प्रीमियर (Premier) और यूनियनिस्ट पार्टी के नेता सिंकदर हयात खान ने 1 मार्च, 1941 ई० को पंजाब असेम्बली में यह स्पष्ट किया था कि वह ऐसे पाकिस्तान की अवधारणा के विरोधी हैं, जिसमें “यहाँ मुस्लिम राज और शेष स्थानों पर हिन्दू राज होगा…..” इस प्रस्ताव के केवल सात वर्ष बाद ही देश का विभाजन हो गयी। इसलिए कुछ लोगों को लगा कि देश का विभाजन बहुत अचानक हुआ।

प्रश्न 3.
आम लोग विभाजन को किस तरह देखते थे?
उत्तर:
सामान्य लोग प्रारंभ में देश के विभाजन को केवल थोड़े समय के एक जुनून के रूप में देखते थे। उनका विचार था कि विभाजन स्थायी नहीं होगा। कुछ समय बाद जैसे ही शान्ति और कानून व्यवस्था स्थापित हो जाएगी, वे अपने घरों को वापस लौट जाएँगे। उन्हें विश्वास था कि शताब्दियों से एक समाज में एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी बनकर रहने वाले लोग एक-दूसरे का खून बहाने पर उतारू नहीं होंगे। देश का विभाजन उनके दिलों के विभाजन का कारण नहीं बनेगा। स्थिति सामान्य होते ही वे फिर मिल-जुलकर एक ही समाज में रहेंगे। वास्तव में सामान्य लोग चाहे वे हिन्दू थे अथवा मुसमलान धर्म के नाम पर एक-दूसरे का सिर काटने को इच्छुक नहीं थे। अनेक नेता और स्वयं गाँधी जी भी अंत तक विभाजन की सोच का विरोध करते रहे। थे।

7 सितम्बर, 1946 ई० को प्रार्थना सभा में अपने भाषण में गाँधी जी ने कहा था, “मैं फिर वह दिन देखना चाहता हूँ जब हिन्दू और मुसलमान आपसी सलाह के बिना कोई काम नहीं करेंगे। मैं दिन-रात इसी आग में जल जा रहा हूँ कि उस दिन को जल्दी-से-जल्दी साकार करने के लिए क्या करूं। लीग से मेरी गुजारिश है कि वे किसी भी भारतीय को अपना शत्रु न मानें…।” इसी प्रकार 26 सितम्बर, 1946 ई० को महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ में लिखा था, “जो तत्त्व भारत को एक-दूसरे के खून के प्यासे टुकड़ों में बाँट देना चाहते हैं, वे भारत और इस्लाम दोनों के शत्रु हैं। भले ही वे मेरी देह के टुकड़े-टुकड़े कर दें, किन्तु मुझसे ऐसी बात नहीं मनवा सकते, जिसे मैं गलत मानता हूँ।” जनसामान्य का गाँधी जी में अटूट विश्वास था। उन्हें लगता था कि गांधी जी किसी भी कीमत पर देश का विभाजन नहीं होने देंगे। इसलिए वे आसानी से अपने घरों को छोड़ने और अपने रिश्ते-नातों को तोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। देश के विभाजन और उसके परिणामस्वरूप होने वाली हिंसा ने उन्हें झकझोर डाला था, किन्तु फिर भी अनेक हिन्दू-मुसलमान अपने जान खतरे में डालकर एक-दूसरे की जान बचाने की कोशिश करते रहे। इससे सिद्ध होता है कि सामान्य हिन्दू-मुसलमानों का विभाजन से कोई लेना-देना नहीं था।

प्रश्न 4.
विभाजन के खिलाफ़ महात्मा गाँधी की दलील क्या थी?
उत्तर:
गाँधी जी प्रारंभ से ही देश के विभाजन के विरुद्ध थे। वह किसी भी कीमत पर विभाजन को रोकना चाहते थे। अतः वह अंत
तक विभाजन का विरोध करते रहे। देश के विभाजन का विरोध करते हुए उन्होंने कहा था कि विभाजन उनकी लाश पर होगा। 7 सितम्बर, 1946 ई० को प्रार्थना सभा में अपने भाषण में गाँधी जी ने कहा था, “मैं फिर वह दिन देखना चाहता हूँ जब हिन्दू और मुसमलान आपसी सलाह के बिना कोई काम नहीं करेंगे। मैं दिन-रात इसी आग में जला जा रहा हूँ कि उस दिन को जल्दी-से-जल्दी साकार करने के लिए क्या करूं। लीग से मेरी गुजारिश है कि वे किसी भी भारतीय को अपना शत्रु न मानें…। हिन्दू और मुसलमान, दोनों एक ही मिट्टी से उपजे हैं; उनका खून एक है, वे एक जैसा भोजन करते हैं, एक ही पानी पीते हैं, और एक ही जबान बोलते हैं।” इसी प्रकार 26 सितम्बर, 1946 ई० को महात्मा गाँधी ने ‘हरिजन’ में लिखा था, “किन्तु मुझे विश्वास है कि मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की जो माँग उठायी है, वह पूरी तरह गैर-इस्लामिक है और मुझे इसको पापपूर्ण कृत्य कहने में कोई संकोच नहीं है। इस्लाम मानवता की एकता और भाईचारे का समर्थक है न कि मानव परिवार की एकजुटता को तोड़ने का।

जो तत्व भारत को एक-दूसरे के खून के प्यासे टुकड़ों में बाँट देना चाहते हैं, वे भारत और इस्लाम दोनों के शत्रु हैं। भले ही वे मेरी देह के टुकड़े-टुकड़े कर दें, किन्तु मुझसे ऐसी बात नहीं मनवा सकते, जिसे मैं गलत मानता हूँ।” किन्तु गाँधी जी का विरोध ‘नक्कार खाने में तूती’ के समान था। गाँधी जी सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों और भावनाओं से जूझते रहे, किन्तु बेकार। अंततः देश का विभाजन हो गया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को उसे स्वीकार करना पड़ा। सत्य और अहिंसा के पुजारी भग्नहृदय महात्मा गाँधी असहाय थे तथापि वे निरंतर सांप्रदायिक सद्भाव स्थापित करने के प्रयासों में लगे रहे। उन्हें विश्वास था कि वे अपने प्रयासों में सफल होंगे। लोग हिंसा और घृणा का रास्ता छोड़ देंगे और भाइयों के समान मिलकर सभी समस्याओं का समाधान कर लेंगे। गाँधी जी ने निडर होकर सांप्रदायिक दंगों से ग्रस्त विभिन्न स्थानों का दौरा किया और सांप्रदायिता के शिकार लोगों को राहत पहुँचाने के प्रयास किए। उन्होंने प्रत्येक स्थान पर अल्पसंख्यक समुदाय को (वह हिन्दू हो या मुसलमान) सांत्वना प्रदान की। उन्होंने भरसक प्रयास किया कि हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे का खून न बहाएँ अपितु परस्पर मिल-जुलकर रहें।

प्रश्न 5.
विभाजन को दक्षिणी एशिया के इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ क्यों माना जाता है?
उत्तर:
भारत के विभाजन को दक्षिणी एशिया के इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ माना जाता है। नि:संदेह, यह विभाजन स्वयं में अतुलनीय था, क्योंकि इससे पूर्व किसी अन्य विभाजन में न तो सांप्रदायिक हिंसा का इतना तांडव नृत्य हुआ और न ही इतनी विशाल संख्या में निर्दोष लोगों को अपने घरों से बेघर होना पड़ा। विद्वानों के अनुसार विभाजन के परिणामस्वरूप एक करोड़ से भी अधिक लोग अपने-अपने वतन से उजड़कर अन्य स्थानों पर जाने के लिए विवश हो गए। वे भारत और पाकिस्तान के बीच रातों-रात खड़ी कर दी गई सीमा के इस पार या उस पार जाने को विवश हो गए और जैसे ही उन्होंने इस ‘छाया सीमा’ के उस ओर पैर रखा, वे घर से बेघर हो गए। पलक झपकते ही उनकी सम्पत्ति, घर, दुकानें, जमीनें, रोजी-रोटी के साधन सब उनके हाथों से निकल गए। जिस जमीन में उनकी जड़े थीं, वही उनके लिए पराई हो गई।

लाखों अपने प्रियजनों से बिछड़ गए। किसी ने अपने पिता को खोया, किसी ने भाई को, तो किसी का सुहाग उसकी आँखों के सामने ही उजाड़ दिया गया। उनके दोस्त, उनकी बचपन की यादें उनसे छीन लिए गए। अपनी स्थानीय एवं क्षेत्रीय संस्कृतियों से वंचित होकर वे तिनका-तिनका जोड़कर अपने नए घोंसलों को बनाने में जुट गए। विद्वानों के अनुसार विभाजन के परिणामस्वरूप होने वाली हिंसा इतनी भीषण थी कि इसके लिए विभाजन’, ‘बँटवारे’ अथवा ‘तक़सीम’ जैसे शब्दों का प्रयोग करना सार्थक प्रतीत नहीं होता। इसमें कोई संदेह नहीं कि विभाजन के परिणामस्वरूप जो स्मृतियाँ, घृणाएँ, छवियाँ और पहचानें अस्तित्व में आईं उनका आज भी सीमा के इस ओर तथा उस ओर के इतिहास का निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
ब्रिटिश भारत का बँटवारा क्यों किया गया?
उत्तर:
निम्नलिखित कारणों ने ब्रिटिश भारत के विभाजन में योगदान दिया

1. ब्रिटिश कूटनीति-
अधिकांश विद्वान इतिहासकारों के विचारानुसार भारत विभाजन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण था- ब्रिटिश कूटनीति। ब्रिटिश प्रशासकों ने प्रारंभ से ही ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का अनुसरण किया। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने के लिए वे मुसलमानों की सांप्रदायिक भावनाओं को उत्तेजित करते रहे। 1905 ई० में बंगाल का विभाजन, 1906 ई० में मुस्लिम लीग की स्थापना और 1909 ई० में सांप्रदायिक चुनाव प्रणाली का प्रारंभ और विस्तार अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के ज्वलंत उदाहरण थे। ब्रिटिश प्रशासकों की इस नीति से मुसलमानों में सांप्रदायिक भावनाओं का विकास होने लगा। वे अपने हितों की रक्षा के लिए अपने लिए एक पृथक् राष्ट्र की माँग करने लगे, जिसकी चरम परिणति पाकिस्तान के निर्माण में हुई।

2. मुस्लिम लीग का सांप्रदायिक दृष्टिकोण-
मुस्लिम लीग के संकीर्ण सांप्रदायिक दृष्टिकोण ने हिन्दू-मुसलमानों में मतभेद उत्पन्न करने और अन्ततः पाकिस्तान के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। लीग ने ‘द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत’ का प्रचार किया और मुस्लिम जनसामान्य को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि अल्पसंख्यक मुसलमानों को बहुसंख्यक हिन्दुओं से भारी खतरा है। 1937 ई० में कांग्रेस द्वारा संयुक्त प्रांत में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर मंत्रिमण्डल बनाने से इनकार कर दिए जाने पर लीग ने इस्लाम खतरे में है’ का नारा लगाया और कांग्रेस को हिन्दुओं की संस्था बताया। 1937 ई० में लीग के लखनऊ अधिवेशन में सांप्रदायिकता की अग्नि को और अधिक हवा देते हुए जिन्नाह ने कहा था-“अब हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा होगी और वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत होगा। कांग्रेस के झंडे को प्रत्येक व्यक्ति को स्वीकार करना पड़ेगा और उसका आदर करना पड़ेगा।”

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान कांग्रेसी मंत्रिमण्डल द्वारा नवम्बर, 1939 ई० में त्यागपत्र दे दिए जाने पर मुस्लिम लीग अत्यधिक प्रसन्न हुई। 22 दिसम्बर, 1939 ई० को लीग ने संपूर्ण भारत में ‘मुक्ति दिवस’ मनाया। मार्च 1940 ई० में लाहौर अधिवेशन में लीग ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसमें उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में सीमित स्वायत्तता की माँग की गई। लीग ने कांग्रेस के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का विरोध किया और 1946 ई० के चुनावों के पश्चात् ‘पाकिस्तान की स्थापना के लिए जोरदार आंदोलन प्रारंभ कर दिया। 16 अगस्त, 1946 ई० को लीग ने ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ मनाया जिसके परिणामस्वरूप देश के विभिन्न भागों में भयंकर सांप्रदायिक दंगे हो गए। अतः देश को अनावश्यक रक्तपात से बचाने के लिए विभाजन अनिवार्य हो गया।

3. कांग्रेस की लीग के प्रति तुष्टिकरण की नीति-
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लीग के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाई जो देश की अखंडता के लिए घातक सिद्ध हुई। कांग्रेस ने बार-बार लीग को संतुष्ट करने का प्रयत्न किया जिसके परिणामस्वरूप लीग की अनुचित माँगें दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगीं। मुस्लिम लीग के प्रति कांग्रेस की शिथिल एवं त्रुटिपूर्ण नीति से जिन्नाह को विश्वास हो गया था कि परिस्थितियों से विवश होकर कांग्रेस विभाजन के लिए तैयार हो जाएगी और अन्ततः ऐसा ही हुआ भी।
4. सांप्रदायिक दंगे-1946 ई० के चुनावों के पश्चात् लीग ने पाकिस्तान की स्थापना के लिए प्रबल आंदोलन प्रारंभ कर दिया था। 16 अगस्त, 1946 ई० को लीग ने प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ मनाया जिसके परिणामस्वरूप बंगाल, बिहार और पंजाब में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो गए। संपूर्ण देश गृहयुद्ध की आग में जलने लगा। जैसे-जैसे सांप्रदायिक तनाव बढ़ता गया, भारतीय सिपाही और पुलिस वाले भी अपने पेशेवर प्रतिबद्धता को भूलकर हिन्दू, मुसलमान अथवा सिक्ख के रूप में आचरण करने लगे। अतः देश को भयंकर विनाश से बचाने के लिए कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर समझा।

5. कांग्रेस की भारत को शक्तिशाली बनाने की इच्छा-
मुस्लिम लीग की गतिविधियों से यह स्पष्ट हो चुका था कि लीग कांग्रेस से किसी भी रूप में समझौता अथवा सहयोग करने के लिए तैयार नहीं थी। कांग्रेस के प्रमुख नेता यह भली-भाँति समझ चुके थे कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी लीग कांग्रेस के प्रत्येक कार्य में रुकावट डालेगी तथा तोड़-फोड़ की नीति अपनाएगी, जिसके परिणामस्वरूप देश निरन्तर दुर्बल होता जाएगा। अतः देश को विनाश से बचाने के लिए उन्होंने विभाजन को स्वीकार कर लेना अधिक उचित समझा।

6. लॉड माउंटबेटन के प्रयास-
मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान के निर्माण के लिए प्रत्यक्ष कार्यवाही प्रारंभ कर दिए जाने के कारण सम्पूर्ण देश में हिंसा की ज्वाला धधकने लगी थी। अत: लॉर्ड माउंटबेटन ने पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल को विश्वास दिला दिया कि मुस्लिम लीग के बिना शेष भारत को शक्तिशाली और संगठित बनाना अधिक उचित होगा। कांग्रेसी नेताओं को गृहयुद्ध अथवा पाकिस्तान इन दोनों में से किसी एक का चुनाव करना था। उन्होंने गृहयुद्ध से बचने के लिए पाकिस्तान के निर्माण को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार, अनेक कारणों के संयोजन ने देश के विभाजन को अपरिहार्य बना दिया था।

प्रश्न 7.
बँटवारे के समय औरतों के क्या अनुभव रहे?
उत्तर:
विभाजन के सर्वाधिक दूषित प्रभाव संभवतः महिलाओं पर हुए। विभाजन के दौरान उन्हें दर्दनाक अनुभवों से गुजरना पड़ा। उन्हें बलात्कार की निर्मम पीड़ा को सहन करना पड़ा। उन्हें अगवा किया गया, बार-बार बेचा और खरीदा गया तथा अंजान हालात में अजनबियों के साथ एक नई ज़िदगी जीने के लिए विवश किया गया। महिलाएँ मूक, निरीह प्राणियों के समान इन सभी प्रक्रियाओं से गुजरती रहीं। गहरे सदमे से गुजरने के बावजूद कुछ महिलाएँ बदले हुए हालात में नए पारिवारिक बंधनों में बँध गईं। किन्तु भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने ऐसे मानवीय संबंधों की जटिलता के विषय में किसी संवेदनशील दृष्टिकोण को नहीं अपनाया। यह मानते हुए कि इस प्रकार की अनेक महिलाओं को बलपूर्वक घर बैठा लिया गया था, उन्हें उनके नए परिवारों से छीनकर पुराने परिवारों के पास अथवा पुराने स्थानों पर भेज दिया गया। इस संबंध में सम्बद्ध महिलाओं की इच्छा जानने का प्रयास ही नहीं किया गया।

इस प्रकार, विभाजन की मार झेल वाली उन महिलाओं को अपनी जिदगी के विषय में फैसला लेने के अधिकार से एक बार फिर वंचित कर दिया गया। एक अनुमान के अनुसार महिलाओं की बरामदगी’ के अभियान में कुल मिलाकर लगभग 30,000 महिलाओं को बरामद किया गया। इनमें से 8,000 हिन्दू व सिक्ख महिलाओं को पाकिस्तान से और 22,000 मुस्लिम महिलाओं को भारत से निकाला गया। बरामदगी की यह प्रक्रिया 1954 ई० तक चलती रही। उल्लेखनीय है कि विभाजन की प्रक्रिया के दौरान अनेक ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं, जब परिवार के पुरुषों ने इस भय से कि शत्रु द्वारा उनकी औरतों -माँ, बहन, बीवी, बेटी को नापाक किया जा सकता था, परिवार की इज्ज़त अर्थात मान-मर्यादा की रक्षा के लिए स्वयं ही उनको मार डाला। उर्वशी बुटालिया की पुस्तक ‘दि अदर साइड ऑफ साइलेंस’ में रावलपिंडी जिले के थुआ खालसा गाँव की एक ऐसी ही दिल दहला देने वाली घटना का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि विभाजन के समय सिक्खों के इस गाँव की 90 महिलाओं ने ‘शत्रुओं के हाथों पड़ने की अपेक्षा स्वेच्छापूर्वक कुएँ में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए थे। इस प्रकार विभाजन के दौरान महिलाओं को अनेक दर्दनाक अनुभवों से गुजरना पड़ा।

प्रश्न 8.
बँटवारे के सवाल पर कांग्रेस की सोच कैसे बदली?
उत्तर:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस प्रारंभ से ही विभाजन का विरोध करती रही थी। किन्तु अंत में परिस्थितियों से विवश होकर उसे अपनी सोच बदलनी पड़ी और विभाजन के लिए तैयार होना पड़ा। अंग्रेजों के प्रयासों के परिणामस्वरूप मुस्लिम लीग अपने जन्म के प्रारंभ से ही सांप्रदायिक नीतियों का अनुसरण करने लगी थी। लीग ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया था और स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन में कोई भाग नहीं लिया था। यद्यपि 1916 ई० में कांग्रेस और लीग में समझौता हो गया था, किन्तु 1920 और 1937 ई० में कांग्रेस द्वारा संयुक्त प्रांत में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर मंत्रिमंडल बनाने से इनकार कर दिए जाने पर कांग्रेस और लीग के संबंध और अधिक बिगड़ गए थे। कांग्रेस ने बार-बार लीग को संतुष्ट करने का प्रयत्न किया, जिसके परिणामस्वरूप लीग की अनुचित माँगें तीव्र गति से बढ़ने लगीं। लीग ने कांग्रेसी मंत्रिमंडलों पर जनमत की अवहेलना करने, मुस्लिम संस्कृति को नष्ट करने और मुसलमानों के धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक अधिकारों में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया।

जिन्नाह ने 1937 ई० में लीग के लखनऊ अधिवेशन में स्पष्ट शब्दों में घोषणा की “अब हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा होगी और वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत होगा। कांग्रेस के झंडे को प्रत्येक व्यक्ति को स्वीकार करना पड़ेगा और उसका आदर करना पड़ेगा।” राष्ट्रवादी नेताओं ने लीग के नेताओं को समझाने का बार-बार प्रयास किया, किन्तु संप्रदायवाद से समझौता कर सकना या उसे संतुष्ट कर सकना संभव नहीं था। 1937 से 39 की अवधि में कांग्रेस के नेताओं ने बार-बार जिन्नाह से मुलाकात करके उसे मनाने का प्रयास किया, किन्तु जिन्नाह ने कभी कोई ठोस माँग सामने नहीं रखी। इसके विपरीत वह इस बात पर अड़े रहे कि वह कांग्रेस से तभी बात करेंगे जब कांग्रेस यह मान लेगी कि वह केवल हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करती है। इस प्रकार सम्प्रदायवाद को जितना संतुष्ट करने का प्रयास किया गया उतना ही वह और उग्र होता गया। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सभी कांग्रेसी मंत्रिमंडलों द्वारा नवम्बर 1939 ई० में त्यागपत्र दे दिए जाने पर मुस्लिम लीग अत्यधिक प्रसन्न हुई।

22 दिसम्बर, 1939 ई० को लीग ने संपूर्ण भारत में ‘मुक्ति दिवस’ मनाया। मार्च 1940 ई० में लाहौर अधिवेशन में लीग ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत करके माँग की कि हिन्दुस्तान के उत्तर-पश्चिम और पूर्वी क्षेत्रों जैसे जिन भागों में मुसलमानों की संख्या अधिक है, उन्हें इकट्ठा करके स्वतंत्र राज्य बना दिया जाए। लीग ने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया और अंतरिम सरकार में कांग्रेस द्वारा मुसलमानों को नामजद करने के अधिकार को स्वीकार नहीं किया। लीग ने कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकार कर दिया और पाकिस्तान की प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष संघर्ष का रास्ता अपनाने का निश्चय कर लिया। 16 अगस्त, 1946 ई० को लीग ने ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ मनाया जिसके परिणामस्वरूप बंगाल, बिहार, पंजाब, उत्तर प्रदेश, सिंध व उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो गए। सारे देश का वातावरण दूषित हो गया और मुस्लिम सांप्रदायिकता अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँच गई।

लीग का नारा था, ‘लड़कर लेंगे पाकिस्तान!’ किन्तु इस नारे ने ब्रिटिश साम्राजियों के विरुद्ध संघर्ष का रूप धारण न करके सांप्रदायिक दंगे का रूप धारण कर लिया। कुछ प्रारंभिक विरोध के बाद वायसराय लार्ड वेवल के प्रयत्नों से मुस्लिम लीग अंतरिम सरकार में, सम्मिलित हो तो गई किन्तु उसने कांग्रेस के प्रति असहयोग का दृष्टिकोण अपनाया। लीग ने नेहरू के नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया और प्रायः मंत्रीमंडल की नीतियों का विरोध करती रही। इस समय तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी यह भली-भाँति समझ चुकी थी की लीग के कट्टर सांप्रदायिक दृष्टिकोण को बदलना संभव नहीं है। लीग के कार्यकलापों से सांप्रदायिक दंगे फैलने लगे थे जिनसे पूरे देश में गृहयुद्ध का वातावरण बन गया था। ब्रिटिश सरकार जून, 1948 ई० तक सत्ता भारतीयों को सौंप देने की घोषणा कर चुकी थी। वायसराय लार्ड माउंटबेटन का विचार था कि लीग तथा कांग्रेस के मध्य समझौता असंभव था और देश का विभाजन ही समस्या का एकमात्र हल था।

अतः उसने महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू जैसे महत्त्वपूर्ण कांग्रेसी नेताओं को भारत विभाजन के लिए मनाने के प्रयत्न प्रारंभ कर दिए। यद्यपि कांग्रेस ने विभाजन का सदैव विरोध किया था और गाँधी जी स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा कर चुके थे कि देश का विभाजन उनके मृत शरीर पर होगा, किन्तु अब ऐसा आभास होने लगा कि देश को भयंकर विनाश और रक्तपात से बचाने के लिए विभाजन को स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था। अंग्रेजों ने भारत छोड़ने की तिथि जून, 1948 ई० के स्थान पर 15 अगस्त, 1947 ई० निश्चित कर दी थी। अतः अब कांग्रेस को अनिवार्य रूप से ‘गृहयुद्ध या पाकिस्तान’ इन दोनों में से एक का चुनाव करना था।

अन्ततः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपनी सोच बदलनी पड़ी और प्रमुख राष्ट्रवादी नेता इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारत विभाजन को स्वीकार करना और लीग के बिना शेष भारत को अधिक शक्तिशाली एवं संगठित बनाना ही भारत की रक्षा का श्रेयस्कर उपाय था। 3 जून, 1947 ई० को वायसराय ने भारत विभाजन की योजना की घोषणा कर दी, जिसे भारत के सभी राजनैतिक दलों ने स्वीकार कर लिया। स्थिति की विवेचना करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि, “हालात की मजबूरी थी। और यह महसूस किया गया कि जिस मार्ग का हम अनुसरण कर रहे थे उससे गतिरोध को हल नहीं किया जा सकता था। जब दूसरे हमारे साथ रहना ही नहीं चाहते थे, तो हम उन्हें क्यों और कैसे मजबूर कर सकते थे। इसलिए हमने देश का बँटवारा स्वीकार कर लिया ताकि हम भारत को शक्तिशाली बना सकें।”

प्रश्न 9.
मौखिक इतिहास के फ़ायदे/नुकसानों की पड़ताल कीजिए। मौखिक इतिहास की पद्धतियों से विभाजन के बारे में। हमारी समझ को किस तरह विस्तार मिलता है?

अथवा

मौखिक इतिहास के लाभों और हानियों का वर्णन कीजिए। ऐसे किन्हीं चार स्रोतों का उल्लेख कीजिए जिनसे विभाजन का इतिहास स्रोतों में पिरोया गया है। (All India 2014)
उत्तर:
इतिहास के पुनर्निर्माण में हमें अनेक स्रोतों से सहायता मिलती है, जिनमें मौखिक स्रोतों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि मौखिक इतिहास के अपने लाभ और हानियाँ हैं तथापि यह सत्य है कि मौखिक इतिहास की पद्धतियाँ विभाजन के विषय में हमारी समझ को विस्तार प्रदान करती हैं।
मौखिक इतिहास के लाभ

1. मौखिक इतिहास हमें विभाजन से संबंधित अनुभवों एवं स्मृतियों को और अधिक सूक्ष्मता से समझने का अवसर प्रदान करता है।

2. मौखिक इतिहास के आधार पर इतिहासकार उन भावनात्मक समस्याओं एवं कष्टों का, जिनसे जनसामान्य को विभाजन के दौर में गुजरना पड़ा, का सजीव वर्णन करने में समर्थ हुए हैं। हमें याद रखना चाहिए कि सरकारी दस्तावेजों का संबंध नीतिगत एवं दलगत विषयों तथा विभिन्न सरकारी योजनाओं से होता है। अतः उनसे इस प्रकार की जानकारियों को प्राप्त करना संभव नहीं हो पाता।

3. विभाजन के परिणामस्वरूप सामान्य लोगों को किन हालातों से गुजरना पड़ा अथवा विभाजन को लेकर जनसामान्य के क्या अनुभव रहे, इसका पता हमें मौखिक इतिहास से ही लगता है। सरकारी रिपोर्टों एवं फाइलें तथा महत्त्वपूर्ण सरकारी अधिकारियों के व्यक्तिगत लेख इस पर पर्याप्त प्रकाश नहीं डालते।

4. सामान्यतः हम जिस इतिहास का अध्ययन करते हैं, वह सामान्य लोगों से संबंधित विषयों पर कोई महत्त्वपूर्ण प्रकाश नहीं डालता, क्योंकि उनके जीवन एवं कार्यों को प्रायः पहुँच के बाहर अथवा महत्त्वहीन मानकर नज़रअंदाज कर दिया जाता है। किन्तु मौखिक इतिहास इन विषयों पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है। उदाहरण के लिए, मौखिक स्रोतों से हमें पता लगता है कि विभाजन के परिणामस्वरूप सम्पन्न लोगों को विपन्नता के दौर से गुजरना पड़ा। घर की। चारदीवारी में सुख का जीवन जीने वाली महिलाओं को पेट भरने के लिए मज़दूरों के रूप में काम करना पड़ा। बड़े-बड़े व्यापारियों को अपना और परिवार का पेट भरने के लिए छोटी-मोटी नौकरियाँ करनी पड़ीं और शरणार्थियों का जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ा।

5. मौखिक इतिहास विभाजन के दौरान जनसामान्य और विशेष रूप से महिलाओं द्वारा झेली जाने वाली पीड़ा को | समझने में हमें महत्त्वपूर्ण सहायता प्रदान करता है।

मौखिक इतिहास की हानियाँ

  1. अनेक इतिहासकारों के विचारानुसार मौखिक जानकारियाँ सटीक नहीं होतीं। अतः उनसे घटनाओं के जिस क्रम का निर्माण किया जाता है, उसकी यथार्थता संदिग्ध होती है।
  2. इतिहासकारों के मतानुसार मौखिक विवरणों का संबंध केवल सतही विषयों से होता है। यादों में संचित किए जाने वाले छोटे-छोटे अनुभवों से इतिहास की विशाल प्रक्रियाओं के कारणों का पता लगाने में कोई महत्त्वपूर्ण सहायता | नहीं मिलती।
  3. व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर किसी सामान्य निष्कर्ष पर पहुँचना सरल नहीं होता।
  4. मौखिक इतिहास में वास्तविक अनुभवों के साथ निर्मित स्मृतियाँ भी जुड़ जाती हैं। प्रायः कुछ दशक बाद लोग किसी घटना के विषय में काफी कुछ भूल जाते हैं।
  5. सामान्यतः विभाजन के दौरान कड़वे अनुभवों से गुज़रने वाले लोग आपबीती के विषय में बात करने को तैयार नहीं होते। उदाहरण के लिए, बलात्कार की पीड़ा को झेलने वाली एक महिला को किसी अज़नबी के सामने अपने उन दर्दनाक अनुभवों को व्यक्त करने के लिए तैयार करना कोई सरल कार्य नहीं है।
  6. मौखिक जनकारियों से घटनाओं का तिथिबद्ध विवरण प्राप्त करना कठिन है।

विभाजन विषयक समझ को विस्तार प्रदान करना

उल्लेखनीय है कि मौखिक इतिहास की पद्धतियाँ विभाजन के विषय में हमारी समझ को विस्तार प्रदान करती हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि विभाजन के मौखिक इतिहास को संबंध केवल सतही विषयों से नहीं है। विभाजन से। संबंधित मौखिक बयानों को न तो अविश्सनीय कहा जा सकता है और न ही महत्त्वहीन। मौखिक विवरणों अथवा बयानों से निकलेवाले निष्कर्षों की तुलना अन्य साक्ष्यों से निकलनेवाले निष्कर्षों से करके एक सामान्य एवं विश्वसनीय निष्कर्ष पर सरलतापूर्वक पहुँचा जा सकता है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि विभाजन के दौरान जनसामान्य को और विशेष रूप से महिलाओं को जिस पीड़ा से गुजरना पड़ा उसे समझने के लिए हमें अनेक रूपों में मौखिक स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। उदाहरण के लिए, सरकारी रिपोर्टों से यह तो सरलतापूर्वक पता लगाया जा सकता है कि भारतीय और दला-बदली की गई।

किन्तु सरकारी रिपोर्टों से यह पता नहीं लगता कि ‘बरामद की जाने वाली महिलाओं को किन-किन मानसिक व्यथाओं से गुजरना पड़ा अथवा किन-किन पीड़ाओं को झेलना पड़ा। उन मानसिक व्यथाओं और पीड़ाओं का पता तो उन महिलाओं की जुबानी’ ही लग सकता है, जिन्होंने उन्हें झेला। इस प्रकार मौखिक इतिहास की पद्धतियाँ विभाजन के विषय में हमारी समझ को विस्तृत बनाती हैं। मौखिक इतिहास की पद्धतियों से इतिहासकारों को विभाजन जैसी घटनाओं के दौरान जनसामान्य को किन-किन मानसिक एवं शारीरिक पीड़ाओं को झेलना पड़ा, का बहुरंगी एवं सजीव वृत्तांत लिखने में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। मौखिक विवरणों अथवा बयानों से निकलनेवाले निष्कर्षों की तुलना अन्य साक्ष्यों से निकलनेवाले निष्कर्षों से करके एक सामान्य एवं विश्वसनीय निष्कर्ष पर सरलतापूर्वक पहुँचा जा सकता है। यदि साक्षात्कार लेने वाला किसी की व्यक्तिगत पीड़ा और सदमें को आंकने का प्रयास न करके सूझ-बूझ से लोगों के दर्द के अहसास को समझने का प्रयास करे तो मौखिक इतिहास उसकी विभाजन विषयक समझ को विस्तार प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण सहायता प्रदान कर सकता है।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
दक्षिणी एशिया के नक्शे पर कैबिनेट मिशन प्रस्तावों में उल्लिखित भाग क, ख, और ग को चिह्नत कीजिए। यह नक्शा मौजूदा दक्षिण एशिया के राजनैतिक नक्शे से किस तरह अलग है?
उत्तर:
स्वयं करें।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
यूगोस्लाविया के विभाजन को जन्म देने वाली नृजातीय हिंसा के बारे में पता लगाइए। उसमें आप जिन नतीजों पर | पहुँचते हैं, उनकी तुलना इस अध्याय में भारत विभाजन के बारे में बताई गई बातों से कीजिए।
उत्तर:
स्वयं करें।

प्रश्न 12.
पता लगाइए कि क्या आपके शहर, कस्बे, गाँव या आस-पास के किसी स्थान पर दूर से कोई समुदाय आकर बसा है? ( हो सकता है, आपके इलाके में बँटवारे के समय आए लोग भी रहते हों।) ऐसे समुदायों के लोगों से बात कीजिए और अपने निष्कर्षों को एक रिपोर्ट में संकलित कीजिए। लोगों से पूछिए कि वे कहाँ से आए हैं? उन्हें अपनी जगह क्यों छोड़नी पड़ी और उससे पहले व बाद में उनके कैसे अनुभव रहे। यह भी पता लगाइए कि उनके आने से क्या बदलाव पैदा हुए।
उत्तर:
स्वयं करें।

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NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 12 Colonial Cities Urbanisation, Planning and Architecture (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 12 Colonial Cities Urbanisation, Planning and Architecture (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 12 Colonial Cities Urbanisation, Planning and Architecture (Hindi Medium)

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अभ्यास-प्रश्न
(NCERT Textbook Questions Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
औपनिवेशिक शहरों में रिकॉडर्स संभाल कर क्यों रखे जाते थे?
उत्तर: 
औपनिवेशिक शहरों में रिकॉर्ड्स संभाल कर रखने के निम्नलिखित कारण थे

  1. इन रिकॉर्डो से शहरों में व्यापारिक गतिविधियाँ, औद्योगिक प्रगति, सफाई, सड़क परिवहन, यातायात और प्रशासनिक कार्याकलापों की आवश्यकताओं को जानने-समझने और उन पर आवश्यकतानुसार कार्य करने में सहायता मिलती थी।
  2. शहरों की बढ़ती-घटती आबादी के प्रतिशत को जानने के लिए भी यह रिकॉर्ड रखा जाता था।
  3. शहरों की चारित्रिक विशेषताओं के अन्वेषण के समय उन रिकॉर्डों का प्रयोग सामाजिक और अन्य परिवर्तनों को जानने के लिए किया जाता था।

प्रश्न 2.
औपनिवेशिक संदर्भ में शहरीकरण के रुझानों को समझने के लिए जनगणना संबंधी आँकड़े किस हद तक उपयोगी | होते हैं?
उत्तर: 
औपनिवेशिक शासनकाल में शहरों के विस्तार पर नज़र रखने के उद्देश्य से नियमित रूप से जनगणना की जाती थी। 1872 ई० में अखिल भारतीय जनगणना का प्रथम प्रयास किया गया। तत्पश्चात् 1881 ई० से दशकीय अर्थात् प्रत्येक 10 वर्षों में की जाने वाली जनगणना व्यवस्था को नियमित रूप दे दिया गया। औपनिवेशिक संदर्भ में शहरीकरण के रुझानों को समझने में जनगणना संबंधी आँकड़ों से महत्त्वपूर्ण एवं ठोस जानकारी उपलब्ध होती है

  1. जनसंख्या संबंधी आँकड़ों से औपनिवेशिक भारत के विभिन्न शहरों में रहने वाले श्वेत और अश्वेत लोगों की कुल संख्या को सरलतापूर्वक पता लगाया जा सकता है।
  2. जनगणना संबंधी आँकड़ों से श्वेत एवं अश्वेत शहरों, शहरों के निर्माण, विस्तार, उनमें रहने वाले लोगों के जीवन-स्तर, | भयंकर बीमारियों के जनता पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों आदि के विषय में भी महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है।
  3. जनगणना संबंधी आँकड़ों से शहरों में रहने वाले लोगों की उम्र, लिंग, जाति एवं व्यवसाय आदि के विषय में भी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं।
  4. जनगणना संबंधी आँकड़ों से जनसंख्या के विषय में प्राप्त सामाजिक जानकारियों को सुगम आँकड़ों में परिवर्तित किया जा सकता है। इस प्रकार, जनसंख्या संबंधी आँकड़ों से औपनिवेशिक संदर्भ में शहरीकरण के रुझानों को समझने में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है।

जनगणना संबंधी आँकड़ों की भ्रामकता–विद्वान इतिहासकारों के विचारानुसार जनगणना संबंधी आँकड़े अनेक रूपों में भ्रामक सिद्ध हो सकते हैं, इसलिए उनका प्रयोग अत्यधिक सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए।

प्रश्न 3.
“व्हाइट” और “ब्लैक” टाउन शब्दों का क्या महत्त्व था?
उत्तर: 
भारत में विभिन्न यूरोपीय कंपनियों में निरंतर प्रतिस्पर्धा की स्थिति बनी रहती थी। अतः सुरक्षा की दृष्टि से अंग्रेजों ने अपनी प्रमुख बस्तियों की किलेबंदी कर ली। मद्रास में फोर्ट सेंट जॉर्ज, कलकत्ता में फोर्ट विलियम तथा बंबई में फोर्ट अंग्रेजों की किलेबंद कोठियाँ थीं। शीघ्र ही ये बस्तियाँ महत्त्वपूर्ण औपनिवेशिक शहरों के रूप में विकसित हो गईं। मद्रास, कलकत्ता एवं बंबई अत्यधि क महत्त्वपूर्ण एवं सुप्रसिद्ध औपनिवेशिक शहर थे। औपनिवेशिक शहर में यूरोपीय जिस किलेबंद क्षेत्र के अंदर रहते थे, उसे “व्हाइट टाउन” कहा जाता था। दीवारों और बुर्जी के द्वारा इसे एक विशेष प्रकार की किलेबंदी के रूप में दिया गया था। भारतीय किलेबंद क्षेत्र के अंदर नहीं रह सकते थे, क्योंकि रंग और धर्म किले के अंदर रहने के प्रमुख आधार थे। डच एवं पुर्तगाली यूरोपीय व ईसाई होने के कारण किलेबंद क्षेत्र में रह सकते थे।

भारतीय किलेबंद क्षेत्र के बाहर जिस भाग में रहते थे उसे “ब्लैक टाउन” के नाम से जाना जाता था। 1857 ई० के विद्रोह के परिणामस्वरूप भारत में औपनिवेशिक अधिकारी इतने अधिक आतंकित हो गए थे कि वे सुरक्षा की दृष्टि से “देशियों” अर्थात् भारतीयों के खतरे से, दूर पृथक् एवं पूर्णरूप से सुरक्षित बस्तियों में रहना चाहते थे। अतः “सिविल लाइंस” नामक नए शहरी क्षेत्र विकसित किए गए। ये क्षेत्र अत्यधिक सुरक्षित थे और इनमें केवल गोरे ही निवास करते थे। निःसंदेह व्हाइट और ब्लैक टाउन नस्ली विभाजन के प्रतीक थे।

प्रश्न 4.
प्रमुख भारतीय व्यापारियों ने औपनिवेशिक शहरों में खुद को किस तरह स्थापित किया?
उत्तर: 
18वीं शताब्दी में राजनैतिक एवं व्यापारिक पुनर्गठन के परिणामस्वरूप पुराने नगरों का पतन होने लगा और नए-नए नगर विकसित होने लगे। मुग़ल सत्ता के पतनोन्मुख हो जाने के कारण उसके शासन से संबद्ध नगर भी पतन को प्राप्त होने लगे। भारत में राजनैतिक नियंत्रण की प्राप्ति के साथ-साथ कंपनी के व्यापार में वृद्धि होने लगी और मद्रास, कलकत्ता एवं बंबई जैसे औपनिवेशिक बंदरगाह नगर तीव्र गति से नवीन आर्थिक राजधानियों के रूप में विकसित होने लगे। शीघ्र ही ये नगर औपनिवेशिक सत्ता एवं प्रशासन के महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गए। इन औपनिवेशिक शहरों के प्रति भारतीयों विशेष रूप से भारतीय व्यापारियों का आकर्षण बढ़ने लगा और वे स्वयं को इन शहरों में स्थापित करने लगे।

  1. यूरोपीयों से लेन-देन करने वाले भारतीय व्यापारी, कारीगर एवं कामगार औपनिवेशिक शहरों में बसने लगे। वे किलेबंद क्षेत्र | से बाहर स्थापित अपनी पृथक् बस्तियों में रहते थे।
  2. भारत में राजनैतिक सत्ता एवं संरक्षण ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में आ जाने पर दुभाषिए, बिचौलिए, व्यापारी तथा माल की आपूर्ति करने वाले भारतीय भी इन शहरों के महत्त्वपूर्ण अंग बन गए।
  3. 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में रेलवे नेटवर्क का तीव्र गति से विस्तार होने के कारण औपनिवेशिक नगर शेष भारत से जुड़ गए और कच्चे माल एवं श्रम के स्रोत देहाती एवं दूरवर्ती क्षेत्र भी इन बंदरगाह शहरों से जुड़ने लगे। अतः भारतीय व्यापारी इन नगरों में अपने उद्योग स्थापित करने लगे। उदाहरण के लिए 1850 के दशक के बाद भारतीय व्यापारियों एवं उद्यमियों द्वारा बंबई में सूती कपड़ा मिलों की स्थापना की गई।
  4. धनी भारतीय एजेंटों एवं बिचौलियों ने बाजारों के आस-पास ब्लैक टाउन में परंपरागत शैली के आधार पर दालानी मकानों | का निर्माण करवाया।
  5. उन्होंने भविष्य में पैसा लगाने और अधिकांश लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से शहर के अंदर बड़ी-बड़ी जमीनों को भी खरीद लिया।
  6. शीघ्र ही वे पाश्चात्य जीवन-शैली का अनुकरण करने लगे। अपने अंग्रेज़ स्वामियों को प्रभावित करने के उद्देश्य से उन्होंने त्योहारों के अवसरों पर रंगीन दावतों का आयोजन करना प्रारंभ कर दिया।
  7. समाज में अपनी हैसियत दिखाने के लिए वे मंदिरों का भी निर्माण करवाने लगे। नए-नए व्यवसायों के विकसित होने के कारण शहरों में क्लर्को, शिक्षकों, वकीलों, डॉक्टरों, इंजीनियरों और अकाउंटेंट्स आदि की माँग में निरन्तर वृद्धि होने लगी। ‘मध्यवर्ग’ का विस्तार होने लगा और औपनिवेशिक शहरों में शिक्षित भारतीयों का महत्त्व बढ़ने लगा।

प्रश्न 5.
औपनिवेशिक मद्रास में शहरी और ग्रामीण तत्व किस हद तक घुल-मिल गए थे?
उत्तर: 
अंग्रज व्यापारियों ने वस्त्र उत्पादों की खोज में 1639 ई० में पूर्वीतट पर मद्रास पट्टनम में एक व्यापारिक बस्ती की स्थापना की। सुरक्षा की दृष्टि से उन्होंने मद्रास की किलेबंदी करवाई और यह किला फोर्ट सेंट जॉर्ज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 1761 ई० में फ्रांसीसियों की पराजय के परिणामस्वरूप मद्रास और अधिक सुरक्षित हो गया तथा शीघ्र ही एक महत्त्वपूर्ण व्यावसायिक शहर बन गया। यूरोपीय किलेबंद क्षेत्र के अंदर रहते थे, जिसे ‘व्हाइट टाउन’ कहा जाता था। फोर्ट सेंट जॉर्ज ‘व्हाइट टाउन’ का केंद्रक था। भारतीय ब्लैक टाउन, जिसे किलेबंद क्षेत्र के बाहर स्थापित किया गया था, में रहते थे। उल्लेखनीय है कि मद्रास का विकास अनेक ग्रामों को मिलाकर किया गया था। अतः इसमें शहरी और ग्रामीण तत्वों का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता था। मद्रास में भिन्न-भिन्न समुदायों के लिए रोजगार के अनेक अवसर उपलब्ध थे।

अतः विविध प्रकार के आर्थिक कार्य करने वाले अनेक समुदाय यहाँ आए और यहीं बस गए। दुबाश, तेलुगू कोमाटी और वेल्लालार इसी प्रकार के समुदाय थे। दुबाश स्थानीय भाषा और अंग्रेज़ी दोनों को बोलने में कुशल थे। अतः वे भारतीयों एवं गोरों के बीच मध्यस्थ का काम करते थे। वेल्लालार नवीन अवसरों का लाभ उठाने वाली एक स्थानीय ग्रामीण जाति थी और तेलुगू कोमाटी अनाज व्यापार में लगा एक प्रभावशाली व्यावसायिक समुदाय था। 18वीं शताब्दी से गुजराती बैंकर भी यहाँ बस गए थे। पेरियार एवं वन्नियार गरीब श्रमिक वर्ग के अंतर्गत आते थे। समीप ही स्थित ट्रिप्लीकेन मुस्लिम जनसंख्या का केंद्र था। अर्काट के नवाब भी यहाँ रहते थे। माइलापुर तथा ट्रिप्लीकेन जाने-माने हिंदू धार्मिक केंद्र थे। अनेक ब्राह्मण अपनी आजीविका यहीं से प्राप्त करते थे। सानथोम तथा वहाँ का बड़ा गिरजाघर रोमन कैथोलिक लोगों का केंद्र था।

ये सभी बस्तियाँ मद्रास शहर का भाग बन गई थीं। इस प्रकार, अनेक ग्रामों को मिला लिए जाने के कारण मद्रास दूर-दूर तक फैली शहर बन गया। भारत में ब्रिटिश सत्ता मजबूत हो जाने पर यूरोपीय किलेबंद क्षेत्र से बाहर, माउंट रोड और पूनामाली रोड पर अपने-अपने रहने के लिए गार्डन हाउसेस अर्थात् बगीचों वाले मकानों का निर्माण करवाने लगे। अंग्रेजों की जीवन-शैली का अनुकरण करते हुए सम्पन्न भारतीय इसी प्रकार के निवास स्थान बनवाने लगे। इस प्रकार, मद्रास के आस-पास स्थित ग्रामों के स्थान पर नए उपशहरी क्षेत्र विकसित होने लगे। गरीब लोग अपने काम के स्थान के निकट स्थित ग्रामों में रहने लगे। इस प्रकार, मद्रास के क्रमिक शहरीकरण के परिणामस्वरूप इन ग्रामों के मध्य स्थित शहर के अंतर्गत आ गए। इस प्रकार मद्रास का स्वरूप एक अर्ध ग्रामीण शहर जैसा हो गया।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
अठारहवीं सदी में शहरी केंद्रों का रूपांतरण किस तरह हुआ?
उत्तर: 
अठारहवीं सदी में शहरी केन्द्रों का रूपांतरण बड़ी तेजी के साथ हुआ। यूरोपीय मूलत: अपने-अपने देशों के शहरों से आए थे। उन्होंने औपनिवेशिक सरकार के काल में शहरों का विकास किया। पुर्तगालियों ने 1510 में पणजी, डचों ने 1605 में मछलीपटनम, अंग्रेजों ने 1639 में मद्रास (चेन्नई), 1661 में मुम्बई और 1690 में कलकत्ता (कोलकाता) बसाए, तो फ्रांसीसियों ने 1673 में पांडिचेरी नामक शहर बसाया। इनमें से अनेक शहर समुद्र के किनारे थे। व्यापारिक गतिविधियों के केंद्र होने के साथ-साथ प्रशासनिक कार्यकलापों के भी केन्द्र थे। अनेक व्यापारिक गतिविधियों के साथ इन शहरों का विस्तार हुआ। आसपास के गाँवों में अनेक सस्ते मजदूर, कारीगर, छोटे-बड़े व्यापारी, सौदागर, कामगार, बुनकर, रंगरेज, धातु-कर्म करने वाले लोग रहने लगे। इन शहरों में ईसाई मिशनरियाँ काफी सक्रिय थीं। अनेक स्थानों पर पश्चिमी शैली की इमारतें, चर्च और सार्वजनिक महत्त्व की इमारतें बनाई गईं। स्थापत्य में पत्थरों के साथ ईंट, लकड़ी, प्लास्टर आदि का प्रयोग किया गया।

छोटे गाँव कस्बे और कस्बे छोटे-बड़े शहर बन गए। आस-पास के किसान तीर्थ करने के लिए शहरों में आते थे। अकाल के दिनों में प्रभावित लोग कस्बों और शहरों में इकट्ठे हो जाते थे, लेकिन जब कस्बों पर हमले होते थे तो कस्बों के लोग ग्रामीण क्षेत्रों में शरण लेने के लिए चले जाते थे। व्यापारी और फेरी वाले लोग कस्बों से गाँव में जाकर कृषि उत्पाद और कुछ कुटीर व छोटे पैमाने के उद्योग-धंधों में तैयार माल बिक्री के लिए शहरों और कस्बों में लाते थे। इससे बाज़ार का विस्तार हुआ। भोजन और पहनावे की नयी शैलियाँ विकसित हुईं। अनेक शहरों की चारदीवारियों को 1857 के विद्रोह के बाद तोड़ दिया गया; जैसे-दिल्ली का शाहजहाँनाबाद। दक्षिण भारत में मदुरई, काँचीपुरम् मुख्य धार्मिक केन्द्र थे। धीरे-धीरे वह महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र भी बन गए। 18वीं शताब्दी में शहरी जीवन में अनेक बदलाव आए।

  1. राजनीतिक तथा व्यापारिक पुनर्गठन के साथ पुराने नगर; जैसे-आगरा, लाहौर, दिल्ली पतनोन्मुख हुए तो नए शहर मद्रास (चेन्नई), मुम्बई, कलकत्ता (कोलकाता) शिक्षा, व्यापार, प्रशासन, वाणिज्य आदि के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गए। विभिन्न समुदायों, जातियों, वर्गों, व्यवसायों के लोग यहाँ रहने लगे।
  2. नयी क्षेत्रीय ताकतों के विकास से क्षेत्रीय राजधानी; जैसे-अवध की राजधानी लखनऊ, दक्षिण के अनेक राज्यों की राजधानियाँ; जैसे-तंजौर, पूना, श्रीरंगपट्टनम, नागपुर, बड़ौदा के बढ़ते महत्त्व दिखाई दिए।
  3. व्यापारी, प्रशासक, शिल्पकार तथा अन्य लोग पुराने मुगल केंद्रों से नयी राजधानियों की ओर काम तथा रोजगार की तलाश | में आने लगे।
  4. नए राज्यों और उदित होने वाली नयी राजनीतिक शक्तियों में प्रायः निरंतर लड़ाइयाँ होती रहती थीं। इसका परिणाम यह हुआ। कि भाड़े के सिपाहियों को भी तैयार रोजगार मिल जाता था।
  5. कुछ स्थानीय विशिष्ट लोगों तथा उत्तर भारत में मुगल साम्राज्य से संबंधित अधिकारियों ने भी इस मौके का उपयोग करके ‘पुरम्’ और ‘गंज’ जैसी शहरी बस्तियों में अपना विस्तार किया।
  6. राजनैतिक विकेन्द्रीयकरण का प्रभाव सर्वत्र एक जैसा नहीं था। कई स्थानों पर नए सिरे से आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ीं, कुछ अन्य स्थानों पर लूटपाट तथा राजनीतिक अनिश्चितता, आर्थिक पतन में बदल गई।

जो शहर व्यापार तंत्रों से जुड़े हुए थे, उसमें परिवर्तन दिखाई देने लगे। यूरोपीय कम्पनियों ने अनेक स्थानों पर अनेक आर्थिक आधार या फैक्ट्रियाँ स्थापित कर लीं। 18वीं शताब्दी के अंत तक एकल आधारित साम्राज्य का स्थान, शक्तिशाली यूरोपीय साम्राज्यों ने ले लिया। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, वाणिज्यवाद और पूँजीवाद शक्तियाँ अब समाज के स्वरूप को परिभाषित करने लगी थीं। मध्य अठारहवीं शताब्दी से परिवर्तन का नया चरण शुरू हुआ। अब व्यापारिक गतिविधियाँ अन्य स्थानों पर केन्द्रित होने लगीं।

मुगल काल में जो तीन शहर बहुत प्रगति पर थे-सूरत, मछलीपट्नम और ढाका, उनका निरंतर पतन होता चला गया। नए शहरों में नयी-नयी संस्थाएँ विकसित हुईं और शहरी स्थानों को नए ढंग से व्यवस्थित किया गया। अनेक जगहों पर (पश्चिमी शिक्षा केन्द्र, अस्पताल, रेलवे दफ्तर, व्यापारिक गोदाम, सरकारी कार्यालय आदि) नए-नए रोजगार विकसित हुए। दूर-दूर के प्रदेशों और गाँवों से पुरुष, महिलाएँ औपनिवेशिक शहरों की ओर उमड़ने लगे। देखते-ही-देखते 1800 तक जनसंख्या की दृष्टि से औपनिवेशिक शहर देश के सबसे बड़े शहर बन गए।

प्रश्न 7.
औपनिवेशिक शहर में सामने आने वाले नए तरह के सार्वजनिक स्थान कौन से थे? उनके क्या उद्देश्य थे?
उत्तर: 
औपनिवेशिक शहर में सामने आने वाले नए तरह के सार्वजनिक स्थान और उनके उद्देश्य निम्नलिखित थे

  1. औपनिवेशिक शहर अर्थात् मुम्बई, मद्रास और कलकत्ता में फैक्ट्रियाँ या व्यापारिक केंद्र स्थापित किए गए जहाँ पर व्यापारिक गतिविधियाँ, सामान का लेन-देन और गोदामों में उन्हें रखा जाता था। इन फैक्ट्रियों में कंपनी के कर्मचारी और अधिकारी भी रहते थे।
  2. इन शहरों को बन्दरगाहों के रूप में इस्तेमाल किया गया। यहाँ जहाजों को लादने और उनसे उतारने का काम होता था।
  3. शहरों के नक्शे बनवाए गए, आँकड़े इकट्ठे किए गए, सरकारी रिपोर्ट प्रकाशित की गई। ये सभी दस्तावेज प्रशासनिक दफ्तरों में होते थे। शहरों के रख-रखाव के लिए नगरपालिकाएँ बनाई गईं जो शहरों में जलापूर्ति, सड़क निर्माण, स्वास्थ्य जैसी सेवाएँ उपलब्ध करवाती थीं तथा लोगों की मृत्यु और जन्म के रिकॉर्ड भी रखती थीं।।
  4. 1853 के बाद से इन शहरों में रेलवे स्टेशन, रेलवे वर्कशाप और रेलवे कॉलोनियाँ और रेलवे लाइन के नेटवर्क बिछाए गए।
    इस प्रकार नए शहर बंदरगाहों, किलों, सेवा केन्द्रों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थानों से भर गए।
  5. 19वीं शताब्दी के मध्य में औपनिवेशिक शहरों को दो हिस्सों में बाँट दिया गया जिन्हें क्रमशः सिविल लाइन या श्वेत लोगों का क्षेत्र और देसियों के क्षेत्र या अश्वेत टाउन कहा गया। इनमें क्रमशः श्वेत रंग के यूरोपीय और दूसरे भाग में अश्वेत रंग के देसी या भारतीय लोग रहते थे।
  6. भूमिगत पाइप द्वारा जलापूर्ति की व्यवस्था करने के साथ-साथ पक्की नालियाँ भी निर्मित की गईं। इसका उद्देश्य सफाई को । सुनिश्चत करना था।
  7. कुछ शहरों को औपनिवेशिक हिल स्टेशनों के रूप में विकसित किया गया; जैसे—शिमला, दार्जिलिंग, माउट आबू, मनाली। इनका उद्देश्य गर्मी के दिनों में प्रशासनिक गतिविधियों को चलाना और उच्च अधिकारियों को स्वास्थ्यवर्धक जलवायु और वातावरण वाला आवास प्रदान करना था।
  8. नए शहरों में घोड़ागाड़ी, ट्राम, बसें, टाउन हाल, सार्वजनिक पार्क, सिनेमा हाल, रंगशालाएँ, प्रत्येक क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले विभिन्न सेवक, कर्मचारी, शिक्षक, एकाउंटेंट और शिक्षा से जुड़ी संस्थाएँ; जैसे-स्कूल, कॉलेज, लाइब्रेरी आदि उपलब्ध | थे। कुछ सार्वजनिक केन्द्र या सामुदायिक भवन भी थे यहाँ समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ आदि लोगों को उपलब्ध हो सकती थीं।

प्रश्न 8.
उन्नीसवीं सदी में नगर-नियोजन को प्रभावित करने वाली चिंताएँ कौन-सी थीं?
उत्तर: 
19वीं शताब्दी में नगर-नियोजन को प्रभावित करने वाली चिंताएँ निम्नलिखित थीं

1. नगर को समुद्र के निकट बसाना 19वीं शताब्दी के नगर-नियोजन की एक प्रमुख चिंता थी। औपनिवेशिक सरकार नगरों को समुद्र के निकट विकसित करना चाहती थी ताकि यूरोपीयों के व्यापारिक उद्देश्यों की पूर्ति भली-भाँति की जा सके। भारत का माल सरलतापूर्वक यूरोप में भेजा जा सके और यूरोपीय माल बिना किसी कठिनाई के भारत लाया जा सके।

2. नगर-नियोजन की दूसरी महत्त्वपूर्ण चिंता सुरक्षा से संबंधित थी। वास्तव में 1857 ई० के विद्रोह ने भारत में औपनिवेशिक अधिकारियों को इतना अधिक आतंकित कर दिया था कि उन्हें सदैव विद्रोह की आशंका बनी रहती थी। अतः सुरक्षा की दृष्टि से वे “देशियों” अर्थात् भारतीयों के खतरे से दूर, पृथक् एवं पूर्ण रूप से सुरक्षित बस्तियों में रहना चाहते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पुराने कस्बों के आस-पास स्थित चरागाहों एवं खेतों को साफ करवा दिया गया। सिविल लाइंस के नाम से नए शहरी क्षेत्र विकसित किए गए जिनमें केवल यूरोपीय ही निवास कर सकते थे।

3. शहरों के नक्शे अथवा मानचित्र तैयार करवाना नगर-नियोजन की एक अन्य महत्त्वपूर्ण चिंता थी। किसी भी स्थान की बनावट अथवा भू-दृश्य को समझने के लिए मानचित्रों का होना नितांत आवश्यक था। विकास की योजना को तैयार करने, व्यवसायों का विकास करने, औपनिवेशिक सत्ता को मजबूती से स्थापित करने तथा रक्षा संबंधी उद्देश्यों के लिए योजना तैयार करने के लिए भी मानचित्रों की आवश्यकता थी।

4. रंग-भेदभाव तथा जाति-भेदभाव के आधार पर शहरों का विभाजन तथा उनमें सार्वजनिक सुविधाओं के अलग-अलग स्तर को बनाए रखना भी नगर-नियोजन की एक चिंता थी। अंग्रेज़ों की दृष्टि में भारतीय असभ्य थे। वे उन्हें अपने क्लबों और सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग करने की अनुमति नहीं देना चाहते थे।

5. शहर के भारतीय आबादी वाले भाग की भीड़-भाड़, आवश्यकता से अधिक हरियाली, गंदे तालाबों, बदबू और नालियों की खस्ता हालत आदि भी नगर-नियोजन को प्रभावित करने वाली चिंताएँ थीं। यूरोपीयों का विचार था कि दलदली जमीन एवं ठहरे हुए पानी के तालाबों से विषैली गैसें उत्पन्न होती थीं जो विभिन्न बीमारियों का प्रमुख कारण थीं। यूरोपीय उष्णकटिबंधीय जलवायु को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मानते थे। अतः शहर को अधिक स्वास्थ्य कारक बनाने का एक उपाय शहर में खुले स्थान छोड़े जाने के रूप में ढूंढ निकाला गया।

6. नगरों की सुव्यवस्था के लिए विभिन्न कमेटियों का संगठन करना, शहर को साफ-सुथरा बनाने के लिए बाजारों, घाटों, कब्रिस्तानों और चर्म-शोधन इकाइयों को साफ करना आदि नगर-नियोजन की अन्य चिंताएँ थीं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए शहरों की सफाई एवं नगर-नियोजन की सभी परियोजनाओं में ‘जन-स्वास्थ्य के लिए विचार पर बार-बार बल दिया जाने लगा।

7. शहरों के रख-रखाव के लिए पर्याप्त धन को जुटाना नगर-नियोजन की एक अन्य चिंता थी। इसके लिए कलकत्ता जैसे महत्त्वपूर्ण नगर के रख-रखाव के लिए 1817 ई० में लॉटरी कमेटी का गठन किया गया। यह कमेटी नगर सुधार के लिए आवश्यक पैसे का प्रबंध जनता में लॉटरी बेचकर करती थी, इसलिए लॉटरी कमेटी के नाम से प्रसिद्ध थी। शहरों में यातायात के अच्छे साधनों की व्यवस्था करना, शिक्षा संस्थानों की स्थापना करना आदि नगर-नियोजन की अन्य चिंताएँ थीं।

प्रश्न 9.
नए शहरों में सामाजिक संबंध किस हद तक बदल गए? ।
उत्तर: 
नए शहरों के विकास ने सामाजिक संबंधों को अनेक रूपों में प्रभावित किया। नए शहरों का वातावरण अनेक रूपों में पुराने शहरों के वातावरण से भिन्न था। पुराने शहरों में विद्यमान सामंजस्य एवं जान-पहचान का नए शहरों में अभाव था। इन शहरों में लोग अत्यधिक व्यस्त रहते थे और यहाँ जीवन सदैव दौड़ता-भागता-सा प्रतीत होता था। इन शहरों में यदि एक ओर अत्यधि क संपन्नता थी तो दूसरी ओर अत्यधिक दरिद्रता। यहाँ अत्यधिक धनी व्यक्ति भी रहते थे और अत्यधिक दरिद्र व्यक्ति भी। परिणामस्वरूप लोगों का परस्पर मिलना-जुलना सीमित हो गया। किन्तु नए शहरों में टाउन हॉल, सार्वजनिक पार्को और बीसवीं शताब्दी में सिनेमा हॉलों जैसे सार्वजनिक स्थानों के निर्माण से शहरों में भी लोगों को परस्पर मिलने-जुलने के अवसर उपलब्ध होने लगे थे।

शहरों में नवीन सामाजिक समूह विकसित हो जाने के परिणामस्वरूप पुरानी पहचानें अपना महत्त्व खाने लगीं। लगभग सभी वर्गों के सम्पन्न लोग शहरों की तरफ उमड़ने लगे। नए-नए व्यवसायों के विकसित होने के कारण शहरों में क्लर्को, शिक्षकों, वकीलों, डॉक्टरों, इंजीनियरों और अकाउंटेंट्स आदि की माँग में निरन्तर वृद्धि होने लगी। इस प्रकार मध्यवर्ग’ का विस्तार होने लगा। यह वर्ग बौद्धिक एवं आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न वर्ग था। इस वर्ग के लोगों की स्कूलों, कॉलेजों एवं पुस्तकालयों जैसे नए शिक्षा संस्थानों तक पहुँच थी। शिक्षित होने के कारण उनका समाज में महत्त्व बढ़ने लगा। वे अख़बारों, पत्रिकाओं एवं सार्वजनिक सभाओं में अपनी राय व्यक्त करने लगे। इस प्रकार, बहस एवं चर्चा का एक नया सार्वजनिक दायरा विकसित होने लगा। सामान्य जागरूकता का विकास होने लगा और सामाजिक रीति-रिवाजों, कायदे-कानूनों एवं तौर-तरीकों की उपयोगिता पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाए जाने लगे।

नवीन शहरों के विकास ने महिलाओं के सामाजिक जीवन को अनेक रूपों में प्रभावित किया। उल्लेखनीय है कि नए शहरों में महिलाओं को अनेक नए अवसर उपलब्ध थे। मध्यवर्ग की महिलाओं ने पत्र-पत्रिकाओं, आत्मकथाओं एवं पुस्तकों के माध्यम से समाज में अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के प्रयास प्रारंभ कर दिए थे। किन्तु पितृसत्तात्मक भारतीय समाज ऐसे प्रयासों का स्वागत करने के लिए तैयार नहीं था। परम्परागत भारतीय समाज में महिलाओं का स्थान घर की चारदीवारी के अन्दर था। अतः शिक्षित महिलाओं के ऐसे प्रयासों को अनेक लोगों ने परम्परागत पितृसत्तात्मक कायदे-कानूनों को बदलने के प्रयास समझा। रूढ़िवादियों को भय था कि शिक्षित महिलाएँ सामाजिक रीति-रिवाजों को उलट-पुलट कर रख देंगी जिसके परिणामस्वरूप सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था का आधार ही डावाँडोल हो जाएगा।

उल्लेखनीय है कि महिलाओं की शिक्षा की पुरजोर वकालत करने वाले सुधारक भी महिलाओं को केवल माँ और पत्नी की परम्परागत भूमिकाओं में ही देखना चाहते थे। किन्तु शिक्षा के प्रसार ने महिलाओं में जागरूकता को उत्पन्न किया और धीरे-धीरे सार्वजनिक स्थानों में महिलाओं की उपस्थिति में वृद्धि होने लगी। महिलाएँ सेविकाओं, फैक्ट्री मजदूरों, शिक्षिकाओं, रंगकर्मियों और फिल्म कलाकारों के रूप में शहर के नए व्यवसायों में भाग लेने लगीं। किन्तु घर से बाहर सार्वजनिक स्थानों में जाने वाली महिलाओं को पर्याप्त समय तक सामाजिक दृष्टि से सम्मानित नहीं समझा जाता था। नए-नए व्यवसायों के अस्तित्व में आने के परिणामस्वरूप शहरों में शारीरिक श्रम करने वाले गरीब मजदूरों अथवा कामगारों का एक नया वर्ग अस्तित्व में आने लगा। कुछ लोग रोजगार के नए अवसरों की खोज में शहर की ओर भागने लगे, तो कुछ एक भिन्न जीवन-शैली के आकर्षण से प्रभावित होकर शहर की ओर उमड़ने लगे।

मजदूरों एवं कामगारों के लिए शहर का जीवन अनेक संघर्षों से परिपूर्ण था। वस्तुएँ महँगी होने के कारण यहाँ रहने का खर्च उठाना सरल नहीं था और फिर नौकरी पक्की न होने के कारण सदा काम मिलने की गारंटी भी नहीं होती थी। इसलिए रोजगार की खोज में गाँवों से शहर में आने वाले अधिकांश पुरुष अपने परिवारों को ग्रामों में ही छोड़कर आते थे। उल्लेखनीय है कि शहरों में रहने वाले गरीबों ने वहाँ अपनी एक पृथक् संस्कृति की रचना कर ली थी जो जीवन से परिपूर्ण थी। वे उत्साहपूर्वक धार्मिक उत्सवों, तमाशों और स्वांग आदि में भाग लेते थे। तमाशों और स्वांगों में वे प्रायः अपने भारतीय एवं यूरोपीय स्वामियों का मजाक उड़ाते थे। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि नए शहरों में सामाजिक संबंध पर्याप्त सीमा तक परिवर्तित हो गए।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
भारत के नक्शे पर मुख्य नदियों और पर्वत-शृंखलाओं को पारदर्शी काग़ज लगाकर रेखांकित करें। बम्बई, कलकत्ता और मद्रास सहित इस अध्याय में उल्लिखित दस शहरों को चिनित कीजिए और उनमें से किन्हीं दो शहरों के बारे में संक्षेप में लिखिए कि उन्नीसवीं सदी के दौरान उनका महत्त्व किस तरह बदल गया? (इनमें एक औपनिवेशक शहर तथा दूसरा उससे पहले का शहर होना चाहिए।)
उत्तर: 
संकेत –
प्रमुख नदियाँ- गंगा, ब्रह्मपुत्र, यमुना, झेलम, रावी, सतलुज, नर्मदा, गोदावरी, कृष्ण और कावेरी।
पर्वत-श्रृंखलाएँ- हिमालय, अरावली, विन्ध्याचल, शिवालिक, सतपुड़ा, काराकोरम आदि।
भारत के दस प्राचीन नगर- दिल्ली, आगरा, लाहौर, पटना, सूरत, कलकत्ता, मुम्बई, काँचीपुरम, ढाका, मदुरई, मछलीपट्नम आदि।
19वीं शताब्दी के दौरान औपनिवेशिक शहर- बम्बई, मद्रास, कलकत्ता, पांडिचेरी, पणजी।

  • उपर्युक्त स्थलों को भारत के नक्शे पर स्वयं चिनित करें।

19वीं शताब्दी के दौरान का एक औपनिवेशिक शहर-
बम्बई (मुंबई)- 
बम्बई भारत के पश्चिमी तट पर स्थित भारत का सर्वाधिक विशाल बन्दरगाह शहर है। 17 वीं शताब्दी में यह सात द्वीपों का शहर पुर्तगालियों के अधीन मात्र एक द्वीप समूह था। सन् 1661 में पुर्तगाली राजकुमारी के साथ अंग्रेज राजा चार्ल्स द्वितीय का विवाह हुआ तब यह द्वीप समूह उपहार स्वरूप अंग्रेजों के पास चला आया। 1818 में जब चतुर्थ अंग्रेज-मराठा युद्ध में मराठा पराजित हो गए तो अंग्रेजों के पास बम्बई का पूर्ण नियंत्रण आ गया।
ब्रिटिश सरकार के स्थापित होते ही इस शहर ने शक्ति एवं सम्मान की दृष्टि से बहुत ही ख्याति एवं महत्ता प्राप्त कर ली।
कारण-

  1. जब 1819 में बम्बई शहर को बोम्बे प्रेसीडेंसी की राजधानी बना दिया गया तो इसका बड़ी तीव्रता से फैलाव हुआ।
  2. यह नगर अफीम एवं कपास के व्यापार का केंद्र बन गया और यहाँ वस्त्र की अनेक मिलें स्थापित की गईं।

महत्त्व-

  1. अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने व्यापारिक आधार या मुख्य शिविर को सूरत से उठाकर बम्बई स्थापित कर दिया। जैसे-जैसे समय गुजरा, बम्बई भारत की वाणिज्यिक राजधानी बन गया।
  2. पश्चिमी भारत में यह एक प्रशासनिक केंद्र बन गया।
  3. 19वीं शताब्दी के अंत तक बम्बई एक प्रमुख औद्योगिक केन्द्र भी बन गया।
  4. बम्बई एक बड़े पतन के रूप में कार्य करने लगा। यहाँ से कपास और अफीम का कच्चा माल बहुत बड़ी मात्रा में आने-जाने लगा।
  5. सबसे बड़ा रेलवे जंक्शन (मुख्यालय) बन गया।
  6. 1881 और 1931 के मध्य लगभग 25 प्रतिशत बम्बई के निवासी बम्बई में पैदा हुए थे। शेष 75 प्रतिशत लोग बम्बई में बाहर से आकर बसे थे।
  7. कालांतर में बम्बई, भारत में फिल्म निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र बना।

दिल्ली- दिल्ली भारत के सबसे प्राचीन शहरों में से एक है। इसके प्रारंभ के चिह्न हमें महाभारत युग में भी दिखाई देते हैं। उस समय (महाकाव्य काल) में इस शहर को इन्द्रप्रस्थ कहा जाता था। यह एक स्वीकृत ऐतिहासिक तथ्य है कि इस शहर की अनेक बार नींव रखी गई और अनेक बार उजाड़ा गया। 17वीं शताब्दी में शाहजहाँनाबाद नाम से जिसे आजकल (पुरानी दिल्ली) कहा जाता है, इसे मुगल सम्राट शाहजहाँ ने बसाया था। इस शहर के चारों ओर ऊँची, मोटी और सुदृढ चारदीवारी थी जिसमें शहर में प्रवेश और निकासी के लिए स्थान-स्थान पर विशाल द्वार बने हुए थे। इनमें से कुछ इमारतों पर उस विशाल दीवार और द्वार के अवशेष देखे जा सकते हैं। अंग्रेज़ों के शासनकाल में नयी दिल्ली की नींव रखी गई और इसका खूब विस्तार हुआ और इस नए शहर को 1911 में अंग्रेजों ने ब्रिटिश राजधानी के रूप में चुना।

आजकल दिल्ली भारत का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण महानगर है। यह भारत की राजधानी है। यहाँ राष्ट्रप्रमुख (प्रधानमंत्री) के आवास हैं। यह शहर यमुना नदी के किनारे स्थित है। यद्यपि दिल्ली को ‘डी’ श्रेणी का राज्य घोषित किया गया है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर इसे संघीय प्रदेश में शामिल किया जाता है। आधिकारिक तौर पर दिल्ली शहर को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। राजधानी होने के कारण इस शहर में अनेक नागरिक, प्रशासनिक, सैनिक और गैर-प्रशासनिक कार्यालय और बड़ी संख्या में दफ्तर हैं। इस शहर में देश के लगभग सभी प्रांतों और संघीय प्रदेशों के लोग, विभिन्न सैन्य बल, विभिन्न प्रकार के सरकारी और गैर-सरकारी कर्मचारी रहते हैं।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
पता लगाइए कि आपके कस्बे या गाँव में स्थानीय प्रशासन कौन-सी सेवाएँ प्रदान करता है? क्या जलापूर्ति, आवास, यातायात और स्वास्थ्य एवं स्वच्छता आदि सेवाएँ भी उनके हिस्से में आती हैं? इन सेवाओं के लिए संसाधनों की व्यवस्था कैसे की जाती है? नीतियाँ कैसे बनाई जाती हैं? क्या शहरी मज़दूरों या ग्रामीण इलाकों के खेतिहर मजदूरों के पास नीति-निर्धारण में हस्तक्षेप का अधिकार होता है? क्या उनसे राय ली जाती है? अपने निष्कर्षों के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।
उत्तर: 
स्वयं करें।

प्रश्न 12.
अपने शहर या गाँव में पाँच तरह की इमारतों को चुनिए। प्रत्येक के बार में पता लगाइए कि उन्हें कब बनाया गया?
उनको बनाने का फैसला क्यों लिया गया? उनके लिए संसाधनों की व्यवस्था कैसे की गई, उनके निर्माण का जिम्मा किसने उठाया और उनके निर्माण में कितना समय लगा? उन इमारतों के स्थापत्य या वास्तु शैली संबंधी आयामों | का वर्णन कीजिए और औपनिवेशिक स्थापत्य से उनकी समानताओं या भिन्नताओं को चिनित कीजिए।
उत्तर: 
स्वयं करें।

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NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 7 An Imperial Capital Vijayanagara (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 7 An Imperial Capital: Vijayanagara (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 7 An Imperial Capital: Vijayanagara (Hindi Medium)

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अभ्यास-प्रश्न
(NCERT Textbook Questions Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)।

प्रश्न 1.
पिछली दो शताब्दियों में हम्पी के भवनावशेषों के अध्ययन में कौन-सी पद्धतियों का प्रयोग किया गया है? आपके अनुसार यह पद्धतियाँ विरुपाक्ष मंदिर के पुरोहितों द्वारा प्रदान की गई जानकारी को किस प्रकार पूरक रहीं?
उत्तर:
विजयनगर अर्थात् ‘विजय का शहर’ एक शहर तथा साम्राज्य दोनों के लिए प्रयुक्त नाम था। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना 1336 ई० में हरिहर तथा बुक्का राय नामक दो भाइयों ने की थी। 1565 ई० में तालीकोटा के युद्ध के परिणामस्वरूप होने वाली भयंकर लूटपाट के कारण विजयनगर निर्जन हो गया था। 17वीं-18वीं शताब्दियों तक पहुँचते-पहुँचते यह नगर पूरी तरह से विनाश को प्राप्त हो गया, फिर भी कृष्णा-तुंगभद्री दोआब क्षेत्र के निवासियों की स्मृतियों में यह जीवित बना रहा। उन्होंने इसे हम्पी नाम से याद रखा। आधुनिक कर्नाटक राज्य का एक प्रमुख पर्यटन स्थल है, जिसे 1976 ई० में राष्ट्रीय महत्त्व के स्थान के रूप में मान्यता मिली। हम्पी के भग्नावशेषों के अध्ययन में पिछली दो शताब्दियों में अनेक पद्धतियों का प्रयोग किया गया है।

  1. हम्पी के भग्नावशेषों के अध्ययन में सर्वप्रथम सर्वेक्षण विधि का प्रयोग किया गया। 1800 ई० में ब्रिटिश इस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक अभियंता एवं पुराविद् कर्नल कॉलिन मैकेन्जी द्वारा हम्पी के भग्नाशेषों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया। उन्होंने इस स्थान का पहला सर्वेक्षण मानचित्र बनाया।
  2. कालान्तर में छाया चित्रकारों में हम्पी के भवनों के चित्रों का संकलन प्रारंभ कर दिया। 1856 ई० में अलेक्जेंडर ग्रनिलों ने हम्पी के पुरातात्त्विक अवशेषों के पहले विस्तृत चित्र लिए। इसके परिणामस्वरूप शोधकर्ता उनकी अध्ययन करने में समर्थ हो गए।
  3. हम्पी की खोज में अभिलेखकर्ताओं ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अभिलेखकर्ताओं ने 1836 ई० से ही यहाँ और हम्पी के मन्दिरों से दर्जनों अभिलेखों को एकत्र करना प्रारंभ कर दिया था।
  4. हम्पी के भग्नावशेषों के अध्ययन में विदेशी यात्रियों के वृत्तान्तों का भी अध्ययन किया गया। इतिहासकारों ने इन स्रोतों का विदेशी यात्रियों के वृत्तांतों और तेलुगु, कन्नड़, तमिल एवं संस्कृत में लिखे गए साहित्य से मिलान किया। इनसे उन्हें साम्राज्य के इतिहास के पुनर्निर्माण में महत्त्वपूर्ण सहायता मिली।
  5. 1876 ई० में जे०एफ० फ्लीट ने पुरास्थल के मंदिर की दीवारों के अभिलेखों का प्रलेखन प्रारंभ किया। विरुपाक्ष मन्दिर के पुरोहितों द्वारा प्रदत्त सूचनाओं की पुष्टि ।

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नि:संदेह ये पद्धतियाँ विरुपाक्ष मन्दिर के पुरोहितों द्वारा प्रदत्त सूचनाओं की पूरक थीं। उल्लेखनीय है कि मैकेन्जी द्वारा प्राप्त प्रारंभिक जानकारियाँ विरुपाक्ष मन्दिर और पम्पा देवी के मन्दिर के पुरोहितों की स्मृतियों पर आधारित थीं। उदाहरण के लिए, स्थानीय परंपराओं से पता चलता है कि तुंगभद्रा नदी के किनारे से लगे शहर के उत्तरी भाग की पहाड़ियों में स्थानीय मातृदेवी पम्पा देवी ने राज्य के संरक्षक देवता और शिव के एक रूप विरुपाक्ष से विवाह के लिए तपस्या की थी। विरुपाक्ष पम्पा की तपस्या से प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें हेमकूट में आने का निमंत्रण दिया। परिणय सूत्र में बँध जाने के बाद पम्पा ने विरुपाक्ष से अनुरोध किया कि उस स्थल का नामकरण उनके नाम के आधार पर किया जाए। विरुपाक्ष ने अनुरोध मान लिया और तब से इस स्थल का नाम पम्पा हो गया। हम्पी इसका बदला हुआ थानीय नाम है।

आज भी प्रतिवर्ष विरुपाक्ष मन्दिर में इस विवाह समारोह का आयोजन अत्यधिक धूमधाम से किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि चिरकाल से यह क्षेत्र अनेक धार्मिक मान्यताओं से संबद्ध था।। विद्वान इतिहासकारों का विचार है कि विजयनगर के स्थान का चुनाव वहाँ विरुपाक्ष और पम्पा देवी के मन्दिरों के अस्तित्व से प्रेरित होकर ही किया गया था। हमें याद रखना चाहिए कि विजयनगर के शासक विरुपाक्ष देवता के प्रतिनिधि के रूप में शासन करने का दावा करते थे। विजयनगर के सभी राजकीय आदेशों पर सामान्यतः कन्नड़ लिपि में ‘श्री विरुपाक्ष’ लिखा होता था। समकालीन स्रोतों से पता लगता है कि विजयनगर के शासक ‘हिन्दु सूरतराणा’ की उपाधि धारण करते थे, जो देवताओं से उनके घनिष्ठ संबंधों की परिचायक थी।

प्रश्न 2.
विजयनगर की जल-आवश्यकताओं को किस प्रकार पूरा किया जाता था?
उत्तर:
विजयनगर की जल-आवश्यकताओं को मुख्य रूप में तुंगभद्रा नदी से निकलने वाली धाराओं पर बाँध बनाकर पूरा किया जाता था। बाँधों से विभिन्न आकार के हौज़ों का निर्माण किया जाता था। इस हौज के पानी से न केवल आस-पास के खेतों को सींचा जा सकता था बल्कि इसे एक नहर के माध्यम से राजधानी तक भी ले जाया जाता था। कमलपुरम् जलाशय नामक हौज़ सबसे महत्त्वपूर्ण हौज़ था। तत्कालीन समय के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जल संबंधी संरचनाओं में से एक, हिरिया नहर के भग्नावशेषों को आज भी देखा जा सकता है। इस नहर में तुंगभद्रा पर बने बाँध से पानी लाया जाता था और इस धार्मिक केंद्र से शहरी केंद्र को अलग करने वाली घाटी को सिंचित करने में प्रयोग किया जाता था। इसके अलावा झील, कुएँ, बरसत के पानी वाले जलाशय तथा मंदिरों के जलाशय सामान्य नगरवासियों के लिए पानी की आवश्यकताओं को पूरा करते थे।

प्रश्न 3.
शहर के किलेबन्द क्षेत्र में कृषि क्षेत्र को रखने के आपके विचार में क्या फायदे और नुकसान थे?
उत्तर:
विजयनगर शहर की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी विशाल एवं सुदृढ़ किलेबंदी थी। किलेबंदी की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता | यह थी कि इनसे केवल शहर को ही नहीं अपितु खेती के कार्य में प्रयोग किए जाने वाले आस-पास के क्षेत्र और जंगलों को भी घेरा गया था। अब्दुल रज्जाक के विवरण से भी किलेबन्द कृषि क्षेत्रों की पुष्टि होती है। शहर के किलेबन्द क्षेत्र में कृषि क्षेत्र को रखने के कई लाभ और नुकसान थे।
लाभ

  1. मध्यकाल में विजय प्राप्ति में घेराबन्दियों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता था। घेराबन्दियों का प्रमुख उद्देश्य प्रतिपक्ष को खाद्य सामग्री से वंचित कर देना होता था ताकि वे विवश होकर आत्मसमर्पण करने को तैयार हो जाएँ।
    घेराबन्दियाँ कई-कई महीनों तक और यहाँ तक कि वर्षों तक चलती रहती थीं। इस स्थिति में बाहर से खाद्यान्नों का आना दुष्कर हो जाता था। किलेबन्द क्षेत्र में कृषि क्षेत्र को रखने के परिणामस्वरूप शहर को अनाज की कमी का सामना नहीं करना पड़ता था।
  2. इसके परिणामस्वरूप घेराबन्दी के लम्बे समय तक चलने की स्थिति में भी जनता को भुखमरी से बचाया जा सकता था।
    अतिरिक्त अनाज को अन्नागारों में रख दिया जाता था जिसका प्रयोग आवश्यकता के समय किया जा सकता था। इस प्रकार, स्थानीय जनता को अनाज की उपलब्धि होती रहती थी।
  3. इसके परिणामस्वरूप खेतों में खड़ी फसलें शत्रु द्वारा किए जाने वाले विनाश से बच जाती थीं।
  4. खेतों के किलेबन्द क्षेत्र में होने के कारण प्रतिपक्ष की खाद्यान्न आपूर्ति संकट में पड़ जाती थी, जिससे घेराबन्दी को लम्बे समय तक खींचना कठिन हो जाता था और उसे विवशतापूर्वक घेराबन्दी को उठाना पड़ता था।

हानियाँ

  1. कृषिक्षेत्र को किलेबन्द क्षेत्र में रखने की व्यवस्था बहुत महँगी थी। राज्य को इस पर ज्यादा धने-राशि व्यय करनी पड़ती थी।
  2. किलेबन्द क्षेत्र में कृषि क्षेत्र होने के परिणामस्वरूप घेराबन्दी की स्थिति में बाहर रहने वाले किसानों के लिए खेतों में काम करना कठिन हो जाता था।
  3. घेराबन्दी की स्थिति में कृषि के लिए आवश्यक बीज, उर्वरक, यंत्र आदि को बाहर के बाजारों से लाना प्रायः कठिन हो जाता था।
  4. यदि शत्रु किलेबन्द क्षेत्र में प्रवेश करने में सफल हो जाता था तो खेतों में खड़ी फसल उसके विनाश का शिकार बन जाती थी।

प्रश्न 4.
आपके विचार में महानवमी डिब्बा से सम्बद्ध अनुष्ठानों का क्या महत्त्व था?
उत्तर:
महानवमी डिब्बा से संबद्ध अनुष्ठान सितंबर एवं अक्टूबर के शरद महीनों में 10 दिनों तक मनाया जाने वाला हिंदू त्योहार था। इस अनुष्ठान को उत्तर भारत में दशहरा, बंगाल में दुर्गा पूजा और प्रायद्वीपीय भारत में महानवमी के नाम से निष्पादित किए जाते थे। इस अवसर पर विजयनगर के शासक अपने रुतबे, ताकत तथा सत्ता की शक्ति का प्रदर्शन करते थे।

इस अवसर पर होने वाले अनुष्ठानों में मूर्तिपूजा, अश्व-पूजा के साथ-साथ भैंसों तथा अन्य जानवरों की बलि दी जाती थी। नृत्य, कुश्ती प्रतिस्पर्धा तथा घोड़ों, हाथियों तथा रथों व सैनिकों की शोभा यात्राएँ निकाली जाती थीं। साथ ही, प्रमुख नायकों और अधीनस्थ राजाओं द्वारा राजा को प्रदान की जाने वाली औपचारिक भेंट इस अवसर के प्रमुख आकर्षण थे। त्योहार के अंतिम दिन राजा सेनाओं का निरीक्षण करता था। साथ ही नए सिरे से कर निर्धारित किए जाते थे।

प्रश्न 5.
चित्र 7.1 विरुपाक्ष मंदिर के एक अन्य स्तंभ का रेखाचित्र है। क्या आप कोई पुष्प-विषयक रूपांकन देखते हैं? किन जानवरों को दिखाया गया है? आपके विचार में उन्हें क्यों चित्रित किया गया है? मानव आकृतियों का वर्णन कीजिए।
NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 7 (Hindi Medium) 1
उत्तर:
विरुपाक्ष मन्दिर के इस स्तम्भ को ध्यानपूर्वक देखने से पता लगता है कि इस स्तम्भ में अनेक पुष्पों के चित्रों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों की आकृतियों को भी चित्रित किया गया है। इसमें मोर, घोड़ा जैसे पक्षियों और पशुओं की आकृतियाँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। ऐसा लगता है कि इस समय मन्दिर धार्मिक, सांस्कृतिक एवं अन्य गतिविधियों के केंद्र बिन्दु थे। मन्दिरों को अनेक प्रकार के चित्रों से सजाया जाता था। स्तम्भ पर की गई चित्रकारी को देखकर लगता है कि उस समय यह कला विशेष रूप से उन्नत थी। स्तम्भ पर बने चित्रों से स्पष्ट होता है कि उस समय मूर्तिपूजा का प्रचलन था। मन्दिरों में अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियों की पूजा की जाती थी। अनेक पशु-पक्षियों; जैसे-सिंह, मोर, उल्लू, गुरुड़ आदि को देवी-देवताओं के वाहन चित्र 71 . विरुपाक्ष मन्दिर का स्तम्भ मानकर उनकी भी पूजा की जाती थी।

वैष्णव धर्म और शैव धर्म उस समय के लोकप्रिय धर्म थे। वैष्णव धर्म में परमेश्वर के रूप में विष्णु की पूजा-आराधना की जाती थी। अवतारवाद की भावना–वैष्णव धर्म की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। इसमें विष्णु के अवतारों की पूजा पर बल दिया जाता था। यह विश्वास किया जाता था कि, जब-जब धरती पर पाप बढ़ जाते हैं और धर्म संकट में पड़ जाता है, तब-तब धरती और मानवता की रक्षा के लिए विष्णु अवतार लेते हैं। वैष्णव धर्म की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता विष्णु की पत्नी के रूप में लक्ष्मी अथवा श्री की परिकल्पना किया जाना था। लक्ष्बी की पूजा-आराधना धन-सम्पन्नता और समृद्धि की देवी के रूप में की जाती थी। शैव धर्म के साथ-साथ शाक्त, कार्तिकेय और गणपति जैसे सम्प्रदाय भी इस काल में पर्याप्त लोकप्रिय थे। वस्तुतः धार्मिक सहनशीलता इस काल की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
‘शाही केंन्द्र’ शब्द शहर के किस भाग के लिए प्रयोग किए गए हैं, क्या वे उस भाग का सही वर्णन करते हैं?
उत्तर:
विशाल एवं सुदृढ़ किलेबन्दी विजयनगर शहर की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। हमें इस शहर की तीन-तीन किलेबंदियों का उल्लेख मिलता है। पहली किलेबन्दी के द्वारा केवल शहर को ही नहीं अपितु खेती के कार्य में प्रयोग किए जाने वाले आस-पास का क्षेत्र और जंगलों को भी घेरा गया था। सबसे बाहरी दीवार के द्वारा शहर के चारों ओर की पहाड़ियों को परस्पर जोड़ दिया गया था। दूसरी किलेबन्दी को नगरीय केन्द्र के आंतरिक भाग के चारों ओर किया गया था। एक तीसरी किलेबन्दी शासकीय केन्द्र अथवा ‘शाही केन्द्र’ के चारों ओर की गई थी। इसमें सभी महत्त्वपूर्ण इमारतें अपनी ऊँची चहारदीवारी से घिरी हुई थीं। शाही केन्द्र बस्ती के दक्षिण-पश्चिमी भाग में स्थित था। उल्लेखनीय है कि ‘शाही केन्द्र’ शब्द का प्रयोग शहर के एक भाग विशेष के लिए किया गया है। इसमें 60 से भी अधिक मंदिर और लगभग 30 महलनुमा संरचनाएँ थीं।

इन संरचनाओं और मन्दिरों के मध्य एक महत्त्वपूर्ण अंतर यह था कि मन्दिरों का निर्माण पूर्ण रूप से ईंट-पत्थरों से किया गया था, किंतु धर्मेतर भवनों के निर्माण में विकारी वस्तुओं का प्रयोग किया गया था। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि, ये संरचनाएँ अपेक्षाकृत बड़ी थीं और इनका प्रयोग आनुष्ठानिक कार्यों के लिए नहीं किया जाता था। अंतः क्षेत्र में सर्वाधिक विशाल संरचना, ‘राजा का भवन’ है, किंतु पुरातत्वविदों को इसके राजकीय आवास होने का कोई सुनिश्चित साक्ष्य उपलब्ध नहीं हुआ है। इसमें दो सर्वाधिक प्रभावशाली मंच हैं, जिन्हें सामान्य रूप से ‘सभामंडप’ और ‘महानवमी डिब्बा’ के नाम से जाना जाता है। सभामंडप एक ऊँचा मंच है। इसमें लकड़ी के स्तंभों के लिए पास-पास और निश्चित दूरी पर छेद बनाए गए हैं। इन स्तंभों पर दूसरी मंजिल को टिकाया गया था। दूसरी मंजिल तक पहुँचने के लिए सीढ़ी का निर्माण किया गया था।

महानवमी डिब्बा एक विशाल मंच है जिसका निर्माण शहर के सबसे अधिक ऊँचे स्थानों में से एक पर किया गया था। इसमें एक वार्षिक राजकीय अनुष्ठान किया जाता था जो सितंबर और अक्टूबर के शरद मासों में इस दिन तक चलता रहता था। शाही केन्द्र में अनेक भव्य महल स्थित थे। इनमें से सर्वाधिक सुंदर भवन लोटस महल अथवा कमल महल था। यह नामकरण इस महल की सुंदरता एवं भव्यता से प्रभावित होकर अंग्रेज़ यात्रियों द्वारा किया गया था। संभवतः यह एक परिषद भवन था, जहाँ राजा और उसके परामर्शदाता विचार-विमर्श के लिए मिलते थे। कमल महल के समीप ही हाथियों का विशाल फीलखाना। (हाथियों के रहने का स्थान) था। शाही केन्द्र में अनेक सुंदर मन्दिर थे। इनमें से एक अत्यधिक सुंदर मंदिर हज़ार राम मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है।

‘शाही केंन्द्र’ शब्द का औचित्य :
कुछ विद्वानों का विचार है कि इस स्थान पर इतनी विशाल संख्या में मन्दिर मिले हैं कि इसे संभवत: ‘शाही केंन्द्र’ का नाम देना उचित प्रतीत नहीं होता। किंतु यदि हम निष्पक्षतापूर्वक तथ्यों का अध्ययन करते हैं तो यह भली-भाँति स्पष्ट हो जाता है कि ‘शाही केन्द्र’ शब्द का शहर के एक भाग विशेष के लिए प्रयोग किया जाना सही है। हमें याद रखना चाहिए कि धर्म और धार्मिक वर्गों की विजयनगर साम्राज्य के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। धर्म की कठोर पालना का सिद्धांत विजयनगर साम्राज्य का एक प्रमुख अवयव एवं विशिष्ट लक्षण था।

विजयनगर के शासक इन देव स्थलों में प्रतिष्ठित देवी-देवताओं से संबंध के माध्यम से अपनी सत्ता को स्थापित करने और वैधता प्रदान करने का प्रयास कर रहे थे। अतः मन्दिरों और संप्रदायों को संरक्षण प्रदान करना उनकी प्रशासकीय नीति का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गया था। इसीलिए शाही केन्द्र में भी अनेक मंदिरों की स्थापना की गई थी। संभवत: हज़ार राम मन्दिर का निर्माण केवल राजा और राजपरिवार के सदस्यों के लिए किया गया था और इसीलिए इसकी स्थापना शाही केंन्द्र में की गई थी।

प्रश्न 7.
कमल महल और हाथियों के अस्तबल जैसे भवनों का स्थापत्य हमें उनके बनवाने वाले शासकों के विषय में क्या । बताता है?
उत्तर:
विजयनगर के लगभग सभी शासकों की स्थापत्य कला में विशेष रुचि थी। मध्यकालीन अधिकांश राजधानियों के समान विजयनगर की संरचना में भी विशिष्ट भौतिक रूपरेखा तथा स्थापत्य शैली परिलक्षित होती है। अनेक पर्वतश्रृंखलाओं के मध्य स्थित विजयनगर एक विशाल शहर था। इसमें अनेक भव्य महल, सुन्दर आवास-स्थान, उपवन और झीलें थीं जिनके कारण नगर देखने में अत्यधिक आकर्षक एवं मनमोहक लगता था। बस्ती के दक्षिण-पश्चिमी भाग में शाही केन्द्र स्थित था जिसमें अनेक महत्त्वपूर्ण भवनों को बनाया गया था। लोटस महल अथवा कमल महल और हाथियों का अस्तबल इसी प्रकार की दो महत्त्वपूर्ण संरचनाएँ थीं। इन दोनों संरचनाओं से हमें उनके निर्माता शासकों की अभिरुचियों एवं नीतियों के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है। शाही केन्द्र के भव्य महलों में सर्वाधिक सुन्दर कमल महल था।

यह नामकरण इस महल की सुंदरता एवं भव्यता से प्रभावित होकर अंग्रेज़ यात्रियों द्वारा किया गया था। स्थानीय रूप से इस महल को चित्तरंजनी-महल के नाम से जाना जाता है। यह दो मंज़िलों वाला एक खुला चौकोर मंडप है। नीचे की मंज़िल में पत्थर का एक सुसज्जित अधिष्ठान है। ऊपर की मंज़िल में खिड़कियों वाले कई सुन्दर झरोखे हैं। कमल महल में नौ मीनारें थीं। बीच में सबसे ऊँची मीनार थी और आठ मीनारें उसकी भुजाओं के साथ-साथ थीं। महल की मेहराबों में इंडो-इस्लामी तकनीकों का स्पष्ट प्रभाव था, जो विज़यनगर शासकों की धर्म-सहनशीलता की नीति का परिचायक है। अभी तक विद्वान इतिहासकार इस विषय पर एकमत नहीं हो सके हैं कि इस महल का निर्माण किस प्रयोजन अथवा कार्य के लिए किया गया था।

संभवत: यह एक परिषद भवन था, जहाँ राजा और उसके परामर्शदाता विचार-विमर्श के लिए मिलते थे। हाथियों का विशाल फीलखाना (हाथियों का अस्तबल अथवा रहने का स्थान) कमल महल के समीप ही स्थित था। फीलखाना की विशालता से स्पष्ट होता है कि विजय नगर के शासक अपनी सेना में हाथियों को अत्यधिक महत्त्व देते थे। उनकी विशाल एवं सुसंगठित सेना में हाथियों की पर्याप्त संख्या थी। फीलखाना की स्थापत्य कला शैली पर इस्लामी स्थापत्य कला शैली का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इसके निर्माण में भारतीय इस्लामी स्थापत्य कला शैली का अनुसरण किया गया है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि विजय नगर के शासक धार्मिक दृष्टि से उदार एवं सहनशील थे।

प्रश्न 8.
स्थापत्य की कौन-कौन सी परम्पराओं ने विजयनगर के वस्तुविदों को प्रेरित किया? उन्होंने इन परम्पराओं में किस प्रकार बदलाए किए?
अथवा किन्हीं दो स्थापत्य परंपराओं का उल्लेख कीजिए जिन्होंने विजयनगर के वास्तुविदों को प्रेरित किया। उन्होंने इन परंपराओं का मंदिर स्थापत्य में किस प्रकार प्रयोग किया? स्पष्ट किजिए।  (All India 2014)
उत्तर:
विजयनगर के लगभग सभी शासकों की स्थापत्यकला में विशेष अभिरुचि थी। अतः उनके शासनकाल में स्थापत्यकला का विशेष विकास हुआ। स्थापत्य की परम्परागत सभी परम्पराओं ने विजयनगर के वास्तुविदों को प्रभावित किया, किन्तु उन्होंने आवश्यकता एवं समय के अनुसार इन परम्पराओं में अनेक परिवर्तन भी किए। विजयनगर अर्थात् ‘विजय का शहर’ एक शहर और राज्य दोनों के लिए प्रयुक्त नाम था। कृष्णदेव राय विजयनगर का महानतम शासक था। उसके काल में स्थापत्यकला का विशेष विकास हुआ। उसने अपनी माता के नाम पर विजयनगर के निकट नगलपुरम् नामक उपनगर की स्थापना की, जिसमें उसने अनेक भव्य भवनों एवं मंदिरों का निर्माण करवाया। उल्लेखनीय है कि विजयनगर साम्राज्य के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन में धर्म और धार्मिक वर्गों का महत्त्वपूर्ण स्थान था।

राजा स्वयं को देवता विशेष का प्रतिनिधि बताते थे और स्वयं को ईश्वर से जोड़ने के लिए मन्दिर निर्माण की गतिविधियों को प्रोत्साहित करते थे। राजधानी के रूप में विजयनगर के स्थान का चुनाव भी संभवतः वहाँ विरुपाक्ष और पम्पा देवी के मन्दिरों के अस्तित्व से प्रेरित होकर किया गया था। इस काल में मन्दिर राजत्व के स्थायित्व के प्रमुख आधार थे। संप्रदायी मुखिया राजाओं और मन्दिरों के मध्य एक पुल का काम करते थे। परिणामस्वरूप विजयनगर साम्राज्य में मन्दिर स्थापत्यकला का विशेष विकास हुआ। प्राचीन काल से ही मंदिर निर्माण क्षेत्र में स्थापत्य की तीन प्रमुख शैलियों-नागर शैली, द्रविड़ शैली और बेसर शैली का प्रचलन था। ये तीनों शैलियाँ मन्दिरों के आकार-प्रकार और भौगोलिक विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करती थीं। नागर शैली के मन्दिर चौकोर आकार के होते थे, द्रविड़ शैली के मंदिर अष्टकोणीय होते थे और बेसर शैली के मन्दिर बहुकोणीय होते थे। सामान्य रूप से नागर शैली उत्तरी और द्रविड़ शैली दक्षिण मंदिर का प्रतिनिधित्व करती थी।

स्थापत्य की प्रचलित सभी परंपराओं ने विजयनगर के वास्तुविदों को प्रभावित किया। उन्होंने इनमें कुछ परिवर्तन भी किए। उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारतीय राजशाही में वंशपरंपरा की एक प्रमुख विशेषता वंश देवता की सामूहिक भक्ति थी। अतः 1350 ई०-1650 ई० की अवधि में दक्षिण भारत में अनेक महत्त्वपूर्ण मन्दिरों का निर्माण हुआ। विजयनगर के शासकों ने मन्दिरों से संबद्ध पूर्वकालिक परम्पराओं के अनुसरण के साथ-साथ उन्हें नवीनता प्रदान की तथा और विकसित किया। राजकीय प्रतिकृति मूर्तियों को मन्दिर में प्रदर्शित किया जाने लगा तथा राजा की मन्दिर यात्रा को महत्त्वपूर्ण राजकीय अवसर माना जाने लगा। गोपुरम् और मंडप जैसी विशाल संरचनाएँ इस काल के मंदिर स्थापत्य की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ बन गईं। इन संरचनाओं का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उदाहरण रायगोपुरम् अथवा राजकीय प्रवेशद्वारों में मिलता है।

गोपुरम् बहुत दूर से ही मन्दिर होने का संकेत देते थे। इनकी ऊँचाई और भव्यता के सामने केन्द्रीय देवालयों की दीवारें प्रायः बौनी-सी प्रतीत होती थीं। मंदिर परिसर में स्थित देवस्थलों के चारों ओर मंडप और लम्बे स्तम्भों वाले गलियारे भी बनाए जाने लगे। विजयनगर के शासकों ने विरुपाक्ष के प्राचीन मंदिर में गोपुरम् और मंडप जैसी अनेक संरचनाओं को जोड़कर इसके आकार को और अधिक बढ़ा दिया। कृष्णदेव राय ने अपने राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में मुख्य मन्दिर के सामने एक भव्य मंडप का निर्माण करवाया। इस मंडप को सुंदर उत्कीर्ण चित्रों वाले स्तम्भों से सुसज्जित किया गया था। इसके पूर्वी गोपुरम् के निर्माण का श्रेय भी कृष्णदेव राय को ही दिया जाता है। मन्दिर में कई सभागारों का निर्माण करवाया गया था। सभागारों का प्रयोग विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए किया जाता था।

कुछ सभागारों में संगीत, नृत्य और नाटकों के विशेष कार्यक्रमों को देखने के लिए देवताओं की मूर्तियों को रखा जाता था। कुछ अन्य सभागारों में देवी-देवताओं के विवाह समारोहों का आयोजन किया जाता था तो कुछ का प्रयोग देवी-देवताओं को झूला झुलाने के लिए किया जाता था। विजयनगर के वास्तुविदों ने दिल्ली सुल्तानों के स्थापत्य की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का समावेश अपनी स्थापत्यशैली में किया। किलेबन्द बस्ती में जाने के लिए बनाए गए प्रवेश द्वार पर बनाई गई मेहराब और द्वार पर बना गुम्बद इस काल के प्रवेश द्वार स्थापत्य की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ थीं। इन दोनों विशेषताओं को दिल्ली सुल्तानों के स्थापत्य के चारित्रिक तत्व माना जाता है।

स्थापत्यकला की इस शैली का विकास इस्लामिक कला के विभिन्न क्षेत्रों की स्थानीय स्थापत्य की परम्पराओं के संपर्क में आने के परिणामस्वरूप हुआ था, अतः कला इतिहासकारों ने इसे स्थापत्य की इंडो-इस्लामिक कला शैली का नाम दिया है।
इसी प्रकार विजय नगर के शहरी केन्द्र में उपलब्ध मकबरों एवं मस्जिदों की स्थापत्यकला शैली और हम्पी में उपलब्ध मन्दिरों के मंडपों के स्थापत्य में अनेक महत्त्वपूर्ण समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। कमले महल की स्थापत्यकला शैली को भी इस्लामी स्थापत्यकला शैली ने पर्याप्त सीमा तक प्रभावित किया। कमल महल में नौ मीनारें थीं। बीच में सबसे ऊँची मीनार थी और आठ मीनारें उसकी भुजाओं के साथ-साथ थीं। महल की मेहराबों में इंडो-इस्लामी तकनीकों का स्पष्ट प्रभाव झलकता है।

प्रश्न 9.
अध्याय के विभिन्न विवरणों से आप विजयनगर के सामान्य लोगों के जीवन की क्या छवि पाते हैं?
उत्तर:
अध्याय के विभिन्न विवरणों से विजयनगर के सामान्य लोगों के जीवन के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है। इस दृष्टि से 15वीं शताब्दी में विजयनगर शहर की यात्रा करने वाले निकोलों दे कॉन्ती (इतालवी व्यापारी), अब्दुरज्जाक (फारस के राजा का दूत), अफानासी निकितिन (रूस का एक व्यापारी) और 16वीं शताब्दी में विजयनगर जाने वाले दुआर्ते बरबोसा, डोमिंगो पेस तथा फर्नावो नूनिज के विवरण विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। इन विवरणों से पता चलता है कि, समाज सुसंगठित था। समाज में वर्ण-व्यवस्था का प्रचलन था, जिसमें ब्राह्मणों का स्थान सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। उन्हें राज्य की सैनिक एवं असैनिक सेवाओं में उच्च पद प्रदान किए जाते थे तथा उन्हें किसी भी अपराध के लिए मृत्युदंड नहीं दिया जाता था। ब्राह्मण जिन स्थानों पर रहते थे, वहाँ भूमि पर उनका नियंत्रण था। उस भूमि पर आश्रित लोग भी उनके नियंत्रण में थे।

पुजारी-वर्ग की हैसियत से उन्हें समाज में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त थी। असंख्य वैदिक मन्दिरों के आविर्भाव के कारण मन्दिर अधिकारियों के रूप में ब्राह्मणों की शक्ति में बहुत अधिक वृद्धि हो गई थी। विजयनगर युग में किसान सामाजिक व्यवस्था का आधार था, जिस पर समाज के सभी अन्य वर्ग निर्भर थे। विभिन्न अभिलेखों में शेट्टी और चेट्टी नामक एक समूह का भी उल्लेख मिलता है। यह प्रमुख व्यापारी वर्ग था, जो अत्यधिक धनी एवं संपन्न था। समाज में दास प्रथा को भी प्रचलन था। दास-दासियों का क्रय-विक्रय होता था। ऐसा प्रतीत होता है कि सामान्य लोग छप्पर वाले कच्चे घरों में रहते थे। 16वीं शताब्दी में पुर्तगाली यात्री बारबोसा ने सामान्य लोगों के आवासों का वर्णन करते हुए लिखा था, “लोगों के अन्य आवास छप्पर के हैं, पर फिर भी सुदृढ़ हैं और व्यवसाय के आधार पर कई खुले स्थानों वाली लम्बी गलियों में व्यवस्थित हैं।”

विजयनगर में विभिन्न सम्प्रदायों और विभिन्न समुदायों के लोग रहते थे। विजयनगर के लगभग सभी शासक-वर्ग धर्म-सहिष्णु थे। उन्होंने बिना किसी भेद-भाव के सभी मंदिरों को अनुदान प्रदान किए। बारबोसा ने कृष्णदेव राय के साम्राज्य में प्रचलित न्याय और समानता के व्यवहार की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि “राजा इतनी आजादी देता है कि कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छानुसार आ-जा सकता है और अपने धर्म के अनुसार जीवन व्यतीत कर सकता है। उसे उसके लिए किसी प्रकार की नाराजगी नहीं झेलनी पड़ती है और न उसके बारे में यह जानकारी हासिल करने की कोशिश की जाती है कि वह ईसाई है। अथवा यहूदी, मूर है या नास्तिक।” अधिकांश जनसंख्या हिन्दू धर्म की अनुयायी थी।

बौद्ध, जैन, मुसलमान एवं ईसाई भी पर्याप्त संख्या में थे। विजयनगर के सभी शासकों ने सभी धर्मों के अनुयायियों के प्रति सहनशीलता की नीति का अनुसरण किया। समाज में स्त्रियों का सम्मानजनक स्थान था। वे साम्राज्य के राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में भाग लेती थीं। स्त्रियाँ लिए शिक्षा का प्रबंध था। कुछ स्त्रियाँ उच्च कोटि की शिक्षा भी प्राप्त करती थीं। स्त्रियाँ संगीत, नृत्य तथा अन्य ललित कलाओं में पुरुषों की अपेक्षा अधिक पारंगत थीं। धनी और संपन्न लोगों में बहु-विवाह की प्रथा प्रचलित थी। समाज में बाल-विवाह का प्रचलन था। सती प्रथा भी प्रचलन में थी। उच्च वर्गों की स्त्रियाँ पति की मृत्यु पर उसके शव के साथ जलकर सती हो जाती थीं।

शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार का भोजन किया जाता था। ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य जातियों के लिए खान-पान के प्रतिबंध नहीं थे। लोग आमोद-प्रमोद प्रिय थे। वे उत्सवों एवं मेलों में उत्साहपूर्वक भाग लेते थे। उनके प्रकार के खेलों द्वारा मनोरंजन किया जाता था। कुश्ती, घुड़दौड़ आदि पशु-पक्षियों के युद्ध भी आमोद-प्रमोद के साधन थे। विजयनगर साम्राज्य में उद्योग-धंधे एवं व्यापार-वाणिज्य उन्नत अवस्था में थे। कताई-बुनाई करना, लोहे के अस्त्र-शस्त्र बनाना आदि प्रमुख उद्योग थे। इत्र निकालना भी एक महत्त्वपूर्ण उद्योग था। समुद्र के तटवर्ती क्षेत्रों में नमक बनाने और मोती निकालने का उद्योग व्यापक स्तर पर किया जाता था। वास्तुकला, शिल्पकला और चित्रकला द्वारा भी अनेक लोग अपना जीविकोपार्जन करते थे। आंतरिक तथा विदेशी व्यापार उन्नत अवस्था में थे। व्यापारी शक्तिशाली संघों और निगमों में संगठित थे।

अब्दुर्रज्ज़ाक के अनुसार विजयनगर साम्राज्य में तीन सौ बंदरगाह थे। विजयनगर की प्रसिद्धि विशेष रूप से मसालों, वस्त्रों एवं रत्नों के बाजारों के लिए थी। नूनिज के विवरण के अनुसार इसकी हीरे की खाने विश्व में सबसे बड़ी थीं। नगरों में अनेक बाजार होते थे, जिनमें व्यापारियों द्वारा व्यवसाय किया जाता था। विशेष वस्तुओं के पृथक बाजार होते थे। व्यापार से प्राप्त राजस्व राज्य की आय का एक महत्त्वपूर्ण साधन था। इस प्रकार की विवरण विजयनगर के जनसामान्य के जीवन के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी प्रदान करते हैं।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
विश्व के सीमारेखा मानचित्र पर इटली, पुर्तगाल, ईरान तथा रूस की सन्निकटता से अंकित कीजिए। उन भागों को पहचानिए जिनका प्रयोग पाठ्यपुस्तक की पृष्ठ संख्या-176 पर उल्लिखित यात्रियों ने विजयनगर पहुँचने के लिए किया था।
उत्तर:
इस प्रश्न का हल छात्र अपने शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
भारतीय उपमहाद्वीप के किसी एक ऐसे प्रमुख शहर के विषय में और जानकारी हासिल कीजिए जो लगभग चौदहवीं-सत्रहवीं शताब्दियों में फला-फूला। शहर के स्थापत्य का वर्णन कीजिए। क्या कोई ऐसे लक्षण हैं जो इनके राजनीतिक केंद्र होने की ओर संकेत करें? क्या ऐसे भवन हैं जो आनुष्ठानिक रूप से महत्त्वपूर्ण हों? कौन-से ऐसे लक्षण हैं जो शहरी भाग को आस-पास के क्षेत्रों से विभाजित करते हैं?
उत्तर:
स्वयं करें।

प्रश्न 12.
अपने आस-पास के किसी धार्मिक भवन को देखिए। रेखाचित्र के माध्यम से छत, स्तंभों, मेहराबों यदि हों तो, गलियारों, रास्तों, सभागारों, प्रवेशद्वारों, जल-आपूर्ति आदि का वर्णन कीजिए। इन सभी की तुलना विरुपाक्ष मंदिर के अभिलक्षणों से कीजिए। वर्णन कीजिए कि भवन का हर भाग किस प्रयोग में लाया जाता था। इसके इतिहास के विषय में पता कीजिए।
उत्तर:
स्वयं करें।

Hope given NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 7 are helpful to complete your homework.

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NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 9 Kings and Chronicles The Mughal Courts (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 9 Kings and Chronicles The Mughal Courts (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 9 Kings and Chronicles The Mughal Courts (Hindi Medium)

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अभ्यास-प्रश्न 
(NCERT Textbook Questions Solved)

उत्तर दीजिए ( लगभग 100-150 शब्दों में)।

प्रश्न 1.
मुग़ल दरबार में पांडुलिपि तैयार करने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर: 
पांडुलिपि तैयार करने की एक लंबी प्रक्रिया होती थी। इस प्रक्रिया में कई लोग शामिल होते थे। जो अलग-अलग कामों में दक्ष होते थे। सबसे पहले पांडुलिपि का पन्ना तैयार किया जाता था जो कागज़ बनाने वालों का काम था। तैयार किए गए पन्ने पर अत्यंत सुंदर अक्षर में पाठ की नकल तैयार की जाती थी। उस समय सुलेखन अर्थात हाथ से लिखने की कला अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी। इसका प्रयोग भिन्न-भिन्न शैलियों में होता था। सरकंडे के टुकड़े को स्याही में डुबोकर लिखा जाता था। इसके बाद कोफ्तगार पृष्ठों को चमकाने का काम करते थे। चित्रकार पाठ के दृश्यों को चित्रित करते थे। अन्त में, जिल्दसाज प्रत्येक पन्ने को इकट्ठा करके उसे अलंकृत आवरण देता था। तैयार पांडुलिपि को एक बहुमूल्य वस्तु, बौद्धिक संपदा और सौंदर्य के कार्य के रूप में देखा जाता था।

प्रश्न 2.
मुग़ल दरबार से जुड़े दैनिक-कर्म और विशेष उत्सवों के दिनों ने किस तरह से बादशाह की सत्ता के भाव को प्रतिपादित किया होगा?
उत्तर: 
दरबार में किसी की हैसियत इस बात से निर्धारित होती थी कि वह शासक के कितना पास या दूर बैठा है। किसी भी दरबारी को शासक द्वारा दिया गया स्थान बादशाह की नज़र में उसकी महत्ता का प्रतीक था। एक बार जब बादशाह सिंहासन पर बैठ जाता था तो किसी को भी अपनी जगह से कहीं और जाने की अनुमति नहीं थी और न ही कोई अनुमति के बिना दरबार से बाहर जा सकता था। दरबारी समाज में सामाजिक नियंत्रण का व्यवहार दरबार में मान्य संबोधन, शिष्टाचार तथा बोलने के निर्धारित किए गए नियमों के अनुसार होता था। शिष्टाचार का जरा-सा भी उल्लंघन होने पर ध्यान दिया जाता था और उसे व्यक्ति को तुरंत ही दंडित किया जाता था।

शासक को किए गए अभिवादन के तरीके से पदानुक्रम में उस व्यक्ति की हैसियत का पता चलता था। जैसे जिस व्यक्ति के सामने ज्यादा झुककर अभिवादन किया जाता था, उस व्यक्ति की हैसियत ज्यादा ऊँची मानी जाती थी। आत्मनिवेदन का उच्चतम रूप सिजदा या दंडवत् लेटना था। शाहजहाँ के शासनकाल में इन तरीकों के स्थान पर चार तसलीम तथा जमींबोसी (जमीन चूमना) के तरीके अपनाए गए। सिंहासनारोहण की वर्षगाँठ, शब-ए-बरात तथा होली जैसे कुछ विशिष्ट अवसरों पर दरबार का माहौल जीवंत हो उठता था। सजे हुए सुगंधित मोमबत्तियाँ और महलों की दीवारों पर लटक रहे रंग-बिरंगे बंदनवार आने | वालों पर आश्चर्यजनक प्रभाव छोड़ते थे। ये सभी बादशाह की शक्ति, सत्ता और प्रतिष्ठा को दर्शाते थे।

प्रश्न 3.
मुगल साम्राज्य में शाही परिवार की स्त्रियों द्वारा निभाई गई भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर: 
मुग़ल शाही परिवार में बादशाह की पत्नियाँ और उपपत्नियाँ, उसके नजदीकी एवं दूर के रिश्तेदार (जैसे-माता, सौतेली व उपमाताएँ, बहन, पुत्री, बहू, चाची-मौसी, बच्चे आदि) के साथ-साथ महिला परिचारिकाएँ तथा गुलाम होते थे। नूरजहाँ के बाद मुगल रानियों और राजकुमारियों ने महत्त्वपूर्ण वित्तीय स्रोतों पर नियंत्रण रखना शुरू कर दिया। शाहजहाँ की पुत्रियों-जहाँआरा और रोशनआरा, को ऊँचे शाही मनसबदारों के समान वार्षिक आय होती थी। इसके अतिरिक्त जहाँआरा को सूरत के बंदरगाह नगर जो कि विदेशी व्यापार का एक लाभप्रद केंद्र था, से राजस्व प्राप्त होता था। संसाधनों पर नियंत्रण ने मुगल परिवार की महत्त्वपूर्ण स्त्रियों को इमारतों व बागों के निर्माण का अधिकार दे दिया।

जहाँआरा ने शाहजहाँ की नयी राजधानी शाहजहाँनाबाद (दिल्ली) की कई वास्तुकलात्मक परियोजनाओं में हिस्सा लिया। इनमें से आँगन व बाग के साथ एक दोमंजिली भव्य कारवाँसराय थी। शाहजहाँनाबाद के हृदय स्थल चाँदनी चौक की रूपरेखा जहाँआरा द्वारा बनाई गई थी। गुलबदन बेगम द्वारा लिखी गई एक रोचक पुस्तक हुमायूँनामा से हमें मुगलों की घरेलू दुनिया की एक झलक मिलती है। गुलबदन बेगम बाबर की पुत्री, हुमायूँ की बहन तथा अकबर की चाची थी। गुलबदन स्वयं तुर्की तथा फ़ारसी में धाराप्रवाह लिख सकती थी।

जब अकबर ने अबुल फज्ल को अपने शासन का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया तो उसने अपनी चाची से बाबर और हुमायूँ के समय के अपने पहले संस्मरणों को लिपिबद्ध करने का आग्रह किया ताकि अबुल फज्ल उनका लाभ उठाकर अपनी कृति को पूरा कर सके। गुलबदन ने जो लिखा वह मुगल बादशाहों की प्रशस्ति नहीं थी बल्कि उसने राजाओं और राजकुमारों के बीच चलने वाले संघर्षों और तनावों के साथ ही इनमें से कुछ संघर्षों को सुलझाने में परिवार की उम्रदराज स्त्रियों की महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं के बारे में विस्तार से लिखा।

प्रश्न 4.
वे कौन से मुहे थे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर क्षेत्रों के प्रति मुग़ल नीतियों व विचारों को आकार प्रदान किया?
उत्तर: 
मुगल बादशाह देश की सीमाओं से परे भी अपने राजनैतिक दावे प्रस्तुत करते थे। अपने साम्राज्य की सीमाओं की सुरक्षा, पड़ोसी देशों से यथासंभव मैत्रीपूर्ण संबंधों की स्थापना, आर्थिक और धार्मिक हितों की रक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों का भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर क्षेत्रों के प्रति मुग़ल नीतियों एवं विचारों को आकार प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण स्थान था। मुग़ल सम्राटों ने इन्हीं मुद्दों को ध्यान में रखते हुए उपमहाद्वीप से बाहर के क्षेत्रों के प्रति अपनी नीतियों का निर्धारण किया। मुगल तथा कंधार ।

1. मध्यकाल में अफ़गानिस्तान को ईरान और मध्य एशिया के क्षेत्रों से अलग करने वाले हिंदूकुश पर्वतों द्वारा निर्मित सीमा का विशेष महत्त्व था। मुगल शासकों के ईरान एवं तूरान के पड़ोसी देशों के साथ राजनैतिक एवं राजनयिक संबंध इसी सीमा के नियंत्रण पर निर्भर करते थे। उल्लेखनीय है कि भारतीय उपमहाद्वीप में आने का इच्छुक कोई भी विजेता हिंदूकुश पर्वत को पार किए बिना उत्तर भारत तक पहुँचने में सफल नहीं हो सकता था। अत: मुग़ल शासक उत्तरी-पश्चिमी सीमांत में सामरिक महत्त्व की चौकियों विशेष रूप से काबुल और कंधार पर अपना कुशल नियंत्रण स्थापित करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे।

2. मुगलों के लिए काबुल की सुरक्षा के लिए कंधार पर अधिकार करना नितांत आवश्यक था, क्योंकि कंधार के आस-पास का प्रदेश खुला होने के कारण कंधार की ओर से काबुल पर भी आक्रमण हो सकता था। अत: मुग़ल सम्राट कंधार, जो मुग़ल साम्राज्य की सुरक्षा की प्रथम पंक्ति का निर्माण करता था, पर अधिकार बनाए रखने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे।

3. भारत और पश्चिमी एशिया तथा यूरोप तक के व्यापार के स्थल मार्ग पर स्थित होने के कारण कंधार व्यापारिक दृष्टि से भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण था। समुद्र पर पुर्तगाली शक्ति का आधिपत्य स्थापित हो जाने के कारण मध्य एशिया का समस्त व्यापार इसी मार्ग से होता था। अत: कंधार जैसे सामरिक एवं व्यापारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण क्षेत्र पर अपनी प्रभुत्व स्थापित करना मुग़ल सम्राटों की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था। कंधार मुग़ल तथा ईरानी साम्राज्य की सीमा पर स्थित था, अत: दोनों ही साम्राज्यों के लिए इसका विशेष महत्त्व था।

परिणामस्वरूप दोनों शक्तियाँ कंधार पर अपना अधिकार बनाए रखने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहीं। 1545 ई० में मुग़ल सम्राट हुमायूँ ने कंधार पर अधिकार कर लिया, किन्तु दो वर्ष बाद ही इस पर ईरान ने भी अधिकार कर लिया। 1595 ई० में अकबर के शासनकाल में कंधार पर मुग़लों का प्रभुत्व स्थापित हो गया किन्तु 1622 ई० में यह उनके हाथों से निकल गया। 1638 ई० में मुग़लों ने कंधार पर अधिकार कर लिया, किन्तु 1649 ई० में कंधार पर पुनः ईरान का अधिकार हो गया। तत्पश्चात् बार-बार प्रयास करने पर भी कंधार को मुगल साम्राज्य का अंग नहीं बनाया जा सका।

मुगल तथा ऑटोमन साम्राज्य ऑटोमन साम्राज्य के साथ संबंधों के निर्धारण में मुगलों का प्रमुख उद्देश्य ऑटोमन नियंत्रण वाले क्षेत्रों, विशेष रूप से हिजाज अर्थात् ऑटोमन अरब के उस भाग जहाँ मक्का एवं मदीना के महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थल स्थित थे, में व्यापारियों और तीर्थयात्रियों के स्वतंत्र आवागमन को बनाए रखना था। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र के साथ अपने संबंधों के निर्धारण में मुगल शासक सामान्य रूप से धर्म और वाणिज्य के विषयों को मिलाकर देखते थे। साम्राज्य लाल सागर के बंदरगाहों-अदन और मोखा को बहुमूल्य वस्तुओं के निर्यात हेतु प्रोत्साहित करता था। इनकी बिक्री से जो आय होती थी, उसे उस क्षेत्र के धर्मस्थलों एवं फ़कीरों को दान कर दिया जाता था।

प्रश्न 5.
मुगल प्रांतीय प्रशासन के मुख्य अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। केंद्र किस तरह से प्रांतों पर नियंत्रण रखता था?
उत्तर: 
मुग़ल सम्राटों की प्रांतीय शासन व्यवस्था का स्वरूप केंद्रीय शासन व्यवस्था के स्वरूप के समान ही था। प्रशासनिक सुविधा
की दृष्टि से साम्राज्य का विभाजन प्रांतों अथवा सूबों में कर दिया गया था। मुगलकाल में विभिन्न सम्राटों के शासनकाल में प्रांतों की संख्या भिन्न-भिन्न रही। अकबर के शासनकाल में प्रांतों की संख्या पंद्रह थी; जहाँगीर के शासनकाल में सत्रह और शाहजहाँ के शासनकाल में यह संख्या बाईस तक पहुँच गई थी। औरंगजेब के शासनकाल में साम्राज्य में इक्कीस प्रांत थे।
प्रांतीय शासन व्यवस्था के प्रमुख अभिलक्षण इस प्रकार थे :

  1. सूबेदार-सूबेदार प्रांत का सर्वोच्च अधिकारी था, जिसे साहिब-ए-सूबा, नाज़िम, सिपहसालार आदि नामों से भी जाना जाता था। सूबेदार की नियुक्ति स्वयं सम्राट के द्वारा की जाती थी और वह सम्राट के प्रति ही उत्तरदायी होता था। सूबे के सभी अधिकारी उसके अधीन होते थे।
  2. दीवान-दीवान प्रांत का प्रमुख वित्तीय अधिकारी था। इसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा केंद्रीय दीवान के परामर्श से की जाती थी। प्रांतीय दीवान सूबेदार के अधीन नहीं अपितु केंद्रीय दीवान के अधीन होता था। प्रांतीय खजाने की देखभाल करना, प्रांत की आय-व्यय का हिसाब रखना, दीवानी मुकद्दमों का फैसला करना, प्रांतीय आर्थिक स्थिति के संबंध में केंद्रीय दीवान को सूचना देना तथा राजस्व विभाग के कर्मचारियों के कार्यों की देखभाल करना आदि दीवान के महत्त्वपूर्ण कार्य थे।
  3. बख्शी-बख्शी प्रांतीय सैन्य विभाग का प्रमुख अधिकारी था। प्रांत में सैनिकों की भर्ती करना तथा उनमें अनुशासन बनाए | रखना उसके प्रमुख कार्य थे।
  4. वाक्रिया-नवीस-वाक़िया-नवीस प्रांत के गुप्तचर विभाग का प्रधान था। वह प्रांतीय प्रशासन की प्रत्येक सूचना केंद्रीय सरकार को भेजता था।
  5. कोतवाल-प्रांत की राजधानी तथा महत्त्वपूर्ण नगरों की आंतरिक सुरक्षा, शांति एवं सुव्यवस्था तथा स्वास्थ्य और सफाई का प्रबंध कोतवाल द्वारा किया जाता था।
  6. सदर और काज़ी-प्रांत में सदर और काज़ी का पद सामान्यतः एक ही व्यक्ति को दिया जाता था। सदर के रूप में वह प्रजा के नैतिक चरित्र की देखभाल करता था और काज़ी के रूप में वह प्रांत का मुख्य न्यायाधीश था।

इन प्रमुख अधिकारियों के अतिरिक्त कुछ प्रांतों में दरोग़ा-ए-तोपखाना तथा मीर-ए-बहर नामक महत्त्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्ति भी की जाती थी। केंद्र का प्रांतों पर नियंत्रण अथवा प्रांतीय प्रशासन की कुशलता के कारण नि:संदेह मुग़ल सम्राटों द्वारा कुशल प्रांतीय प्रशासन की स्थापना की गई थी।

मुग़ल सम्राटों ने प्रांतों पर केंद्र का नियंत्रण बनाए रखने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाए थे :

  1. सम्राट स्वयं प्रांतीय प्रशासन में पर्याप्त रुचि लेता था।
  2. प्रांत के प्रमुख अधिकारी सूबेदार की नियुक्ति स्वयं सम्राट के द्वारा की जाती थी और वह सम्राट के प्रति ही उत्तरदायी होता था।
  3. प्रशासनिक कार्यकुशलता को बनाए रखने तथा सूबेदार की शक्तियों में असीमित वृद्धि को रोकने के उद्देश्य से प्रायः तीन या पाँच वर्षों के बाद सूबेदार का एक प्रांत से दूसरे प्रांत में तबादला कर दिया जाता था।
  4. प्रांतों में कुशल गुप्तचर व्यवस्था की स्थापना की गई थी। परिणामस्वरूप प्रांतीय प्रशासन से संबंधित सभी सूचनाएँ सम्राट को मिलती रहती थीं।
  5. सम्राट द्वारा समय-समय पर स्वयं प्रांतों का भ्रमण किया जाता था।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
उदाहरण सहित मुग़ल इतिहास के विशिष्ट अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए।
उत्तर: 
मुग़ल सम्राटों की धारणा थी कि परम शक्ति द्वारा उनकी नियुक्ति विशाल एवं विजातीय जनता पर शासन करने के लिए की गई थी। इस धारणा के प्रचार-प्रसार का एक महत्त्वपूर्ण उपाय उन्होंने राजवंशीय इतिहास को लिखने-लिखवाने के रूप में ढूंढ निकाला। मुग़ल सम्राटों ने अपने शासन के विवरणों के लेखन कार्य को अपने दरबारी इतिहासकारों को सौंपा, जिन्होंने यह कार्य विद्वतापूर्वक सम्पन्न किया। इन विवरणों में उन्होंने संबद्ध बादशाह अथवा सम्राट के काल में घटित होने वाले घटनाओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। इन विवरणों, जिन्हें अंग्रेजी भाषा में लेखन कार्य करने वाले आधुनिक इतिहासकारों ने ‘क्रॉनिकल्स’ अर्थात् इतिवृत्त अथवा इतिहास का नाम दिया है, में घटनाओं का अनवरत एवं कालक्रमानुसार विवरण प्राप्त होता है।
मुग़ल इतिवृत्तों अथवा इतिहासों के प्रमुख लक्षण :

1. मुग़ल इतिवृत्तों के लेखक दरबारी इतिहासकार थे। उन्होंने मुग़ल शासकों के संरक्षण में इतिवृत्तों की रचना की। अतः स्वाभाविक रूप से शासक पर केंद्रित घटनाएँ, शासक का परिवार, दरबार और अभिजात वर्ग के लोग, युद्ध और प्रशासनिक व्यवस्थाएँ उनके द्वारा लिखे जाने वाले इतिहास के केन्द्रीय विषय थे। अकबर, शाहजहाँ और औरंगजेब की जीवन कथाओं पर आधारित इतिवृत्तों के क्रमशः ‘अकबरनामा’, ‘शाहजहाँनामा’ और ‘आलमगीरनामा’ जैसे शीर्षक इस तथ्य के प्रतीक हैं कि इनके लेखकों की दृष्टि में बादशाह का इतिहास ही साम्राज्य व दरबार का इतिहास था।

2. इतिवृत्त हमें मुग़ल राज्य-संस्थाओं के विषय में तथ्यात्मक सूचनाएँ प्रदान करते हैं तथा उन आशयों का भी परिचय देते हैं, जिन्हें मुग़ल शासक अपने साम्राज्य में लागू करना चाहते थे।

3. मुग़ल इतिवृत्तों का एक महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले सभी लोगों के सामने एक प्रबुद्ध राज्य की छवि को प्रस्तुत करना था।

4. इतिवृत्तों का एक अन्य अभिलक्षण मुग़ल शासन का विरोध करने वाले लोगों को यह स्पष्ट रूप से बता देना था कि साम्राज्य की शक्ति के सामने उनके सभी विरोधों का असफल हो जाना सुनिश्चित था।

5. मुग़ल इतिवृत्तों का एक अन्य महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण भावी पीढ़ियों को शासन का विवरण उपलब्ध करवाना था।

6. मुग़ल इतिवृत्तों का एक प्रमुख अभिलक्षण उनकी रचना फ़ारसी भाषा में किया जाना था। मुग़लकाल में सभी दरबारी इतिहास फ़ारसी भाषा में लिखे गए थे। उल्लेखनीय है कि मुग़ल चगताई मूल के थे। अतः उनकी मातृभाषा तुर्की थी, किन्तु अकबर ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए फ़ारसी को राजदरबार की भाषा बनाया। प्रारंभ में फ़ारसी राजा, शाही परिवार और दरबार के विशिष्ट सदस्यों की ही भाषा थी। किंतु शीघ्र ही यह सभी स्तरों पर प्रशासन की भाषा बन गई। अतः लेखाकार, लिपिक तथा अन्य अधिकारी भी इस भाषा का ज्ञान प्राप्त करने लगे। फ़ारसी भाषा में अनेक स्थानीय मुहावरों का प्रवेश हो जाने से इसका भारतीयकरण होने लगा। फ़ारसी और हिन्दवी के पारस्परिक सम्पर्क से एक नयी भाषा का जन्म हुआ, जिसे हम ‘उर्दू’ के नाम से जानते हैं।

7. मुग़ल इतिवृत्तों का एक अन्य अभिलक्षण उनके रंगीन चित्र हैं। मुग़ल पांडुलिपियों की रचना में अनेक चित्रकारों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। एक मुग़ल शासक के शासनकाल में घटित होने वाली घटनाओं का विवरण देने वाले ऐतिहासिक ग्रंथों में लिखित पाठ के साथ-साथ उन घटनाओं को चित्रों के माध्यम से दृश्ये रूप में भी व्यक्त किया जाता था। हमें याद रखना चाहिए कि चित्रों का अंकन केवल किसी पुस्तक के सौंदर्य में वृद्धि करने वाली सामग्री के रूप में ही नहीं किया जाता था। वास्तव में, चित्रांकन ऐसे विचारों के संप्रेषण का भी एक शक्तिशाली माध्यम माना जाता था, जिन्हें लिखित माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता था। उदाहरण के लिए, राजा और राजा की शक्ति के विषय में जिन बातों को लेखबद्ध नहीं किया जा सकता था, उन्हें चित्रों के माध्यम से व्यक्त किया जाता था।

प्रश्न 7.
इस अध्याय में दी गई दृश्य-सामग्री किस हद तक अबुल फज्ल द्वारा किए गए ‘तसवीर’ के वर्णन (स्रोत 1) से मेल खाती है?
उत्तर: 
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस अध्याय में दी गई दृश्य सामग्री अबुल फज्ल द्वारा वर्णित ‘तसवीर’ के वर्णन से पर्याप्त सीमा तक मेल खाती है। उल्लेखनीय है कि मुग़लकाल में चित्रकारी अथवा चित्रकला का सराहनीय विकास हुआ था। लगभग सभी मुग़ल सम्राट (अपवादस्वरूप औरंगजेब को छोड़कर) चित्रकारी के प्रेमी थे। प्रथम मुग़ल सम्राट बाबर ने चित्रकला को राज्याश्रय प्रदान किया और अपनी आत्मकथा के कुछ भागों को चित्रित करवाया। बाबर के उत्तराधिकारी हुमायूँ को चित्रकला से विशेष लगाव था। राजनैतिक उथल-पुथल के कारण जब उसे भारत छोड़कर फ़ारस में शरण लेनी पड़ी, तो वहाँ उसे इस कला के अध्ययन का सुअवसर प्राप्त हुआ। यहीं उसका परिचय फ़ारस के उच्चकोटि के चित्रकारों से हुआ।

उल्लेखनीय है कि जिस काल में मुग़ल साम्राज्य निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा था, उस समय कई एशियाई क्षेत्रों के शासकों द्वारा कलाकारों को उनके चित्र एवं उनके राज्य के जीवन के दृश्य चित्रित करने के लिए नियमित रूप से नियुक्त किया गया था। उदाहरण के लिए, ईरान के सफ़ावी शासकों को चित्रकला से विशेष प्रेम था। उन्होंने दरबार में स्थापित कार्यशालाओं में प्रशिक्षित उत्कृष्ट कलाकारों को संरक्षण प्रदान किया। बिहज़ाद जैसे चित्रकारों के नाम ने सफ़ावी दरबार की सांस्कृतिक प्रसिद्धि का चारों ओर प्रसार करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। फ़ारस के कई चित्रकार हुमायूँ के साथ भारत आ गए। इनमें प्रसिद्ध थे-मीर सैय्यद अली, अब्दुस्समद, मीर मुसव्बिर और दोस्त मुहम्मद। हुमायूँ और अकबर ने इन्हीं से चित्रकारी की शिक्षा प्राप्त की। सम्राट के आदेश से मीर सैय्यद अली और ख्वाजा अब्दुस्समद ने सुप्रसिद्ध फ़ारसी ग्रंथ ‘दास्ताने अमीर-हमज़ा’ को चित्रित करना प्रारंभ किया।

मुग़लकालीन चित्रकला का वास्तविक आरंभ सम्राट अकबर के शासनकाल से हुआ। चित्रकला को प्रोत्साहन देने के लिए अकबर ने ख्वाजा अब्दुस्समद की अध्यक्षता में एक पृथक् चित्रकला विभाग स्थापित किया। ख्वाजा अब्दुस्समद् एक योग्य चित्रकार था। सम्राट ने उसे ‘शीरीकलम’ की उपाधि से अलंकृत किया था। अकबर ने एक चित्रशाला का भी निर्माण करवाया था। उसके दरबार में लगभग सौ चित्रकार थे। अकबर के शासनकाल में हम्ज़नामा’, ‘रज्मनामी’, ‘तारीख-ए-अल्फी’, ‘तैमूरनामा’ और ‘अकबरनामा’ जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों को चित्रित किया गया। उसके शासनकाल में फ़ारसी और हिन्दू चित्र-शैलियों का अद्भुत सम्मिश्रण हुआ। जहाँगीर के शासनकाल में चित्रकला विकास की चरम सीमा को प्राप्त हुई। शाहजहाँ के शासनकाल में ‘बादशाहनामा’ का चित्रांकन किया गया। मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में चित्रकला का सराहनीय विकास हुआ।

यद्यपि उलमा अथवा उलेमा वर्ग के विचारानुसार इस्लाम में प्राकृतिक तरीके से जीवित रूपों के चित्रण की मनाही थी किन्तु अकबर उलमा की इस विचारधारा से सहमत नहीं था। अबुल फ़ज़ल (अकबर का दरबारी इतिहासकार) बादशाह को यह कहते हुए उधृत करता है, “कई लोग ऐसे हैं जो चित्रकला से घृणा करते हैं पर मैं ऐसे व्यक्तियों को नापसंद करता हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि कलाकार के पास खुदा को पहचानने का बेजोड़ तरीका है। चूंकि, कहीं-न-कहीं उसे यह महसूस होता है कि खुदा की रचना को वह जीवन नहीं दे सकता।” परिणामस्वरूप, अकबर के शासनकाल में उच्चकोटि के चित्रों की रचना की गई। इसीलिए अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फ़ज़ल ने चित्रकारी का उल्लेख एक ‘जादुई कला’ के रूप में किया है। उनके विचारानुसार अकबरकालीन चित्रकला में किसी निर्जीव वस्तु को भी सजीव रूप में प्रस्तुत करने की शक्ति थी।

अबुल फ़ज़ल के विवरण ‘तसवीर की प्रशंसा में से पता चलता है कि सम्राट अकबर की इस कला में विशेष अभिरुचि थी। सम्राट इसे अध्ययन और मनोरंजन दोनों का साधन मानते थे। अतः उन्होंने इस कला को प्रत्येक संभव प्रोत्साहन दिया। प्रत्येक सप्ताह शाही कार्यशाला के अनेक निरीक्षक और लिपिक बादशाह के सामने प्रत्येक कलाकार का कार्य प्रस्तुत करते थे और बादशाह प्रदर्शित उत्कृष्टता के आधार पर इनाम देते थे तथा कलाकारों के मासिक वेतन में वृद्धि करते थे। इस प्रोत्साहन के परिणामस्वरूप विश्व में व्यापक ख्याति प्राप्त अनेक उत्कृष्ट चित्रकार राजदरबार में एकत्रित होने लगे थे, जिनकी संख्या सौ से भी अधिक थी। इन चित्रकारों द्वारा बनाए गए चित्र इतने उत्कृष्ट थे कि उनमें निर्जीव वस्तुएँ भी सजीव जैसी प्रतीत होती थीं, इस प्रकार, जैसा कि अबुल फ़ज्ल ने ‘तसवीर की प्रशंसा में लिखा है, “ब्योरे की सूक्ष्मता, परिपूर्णता और प्रस्तुतीकरण की निर्भीकता जो अब चित्रों में दिखाई पड़ती है, वह अतुलनीय है। यहाँ तक कि निर्जीव वस्तुएँ भी सजीव प्रतीत होती हैं।”

नि:संदेह, प्रस्तुत अध्याय में ये सभी विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। इनमें गोवर्धन द्वारा लगभग 1630 ई० में चित्रित चित्र जिसमें तैमूर, बाबर को राजवंशीय मुकुट सौंप रहा है, अबुल हसन द्वारा चित्रित चित्र जिसमें जहाँगीर को देदीप्यमान कपड़ों और आभूषणों में अपने पिता के चित्र को हाथ में लिए हुए दिखाया गया है, कलाकार पयाग द्वारा लगभग 1640 ई० में चित्रित, चित्र जिसमें जहाँगीर शहज़ादे खुर्रम को पगड़ी में लगाई जाने वाली मणि दे रहा है, अबुलहसन द्वारा बनाया गया चित्र, जिसमें मुग़ल सम्राट जहाँगीर को दरिद्रता की आकृति को मारते हुए तथा न्याय की जंजीर को स्वर्ग से उतरते हुए दिखाया गया है, दाराशिकोह के विवाह से संबंधित चित्र, कंधार की घेराबंदी को दिखाने वाला चित्र और दरबार में धार्मिक वाद-विवाद को दिखाने वाला चित्र विशेष रूप से सराहनीय हैं। इन सभी चित्रों में निर्जीव वस्तुएँ भी सजीव प्रतीत होती हैं तथा सभी में ब्योरे की सूक्ष्मता, परिपूर्णता तथा प्रस्तुतीकरण की निर्भीकता जैसी महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ देखने को मिलती हैं।

प्रश्न 8.
मुग़ल अभिजात वर्ग के विशिष्ट अभिलक्षण क्या थे? बादशाह के साथ उनके संबंध किस तरह बने?
उत्तर: 
मुग़ल राज्य का महत्त्वपूर्ण स्तम्भ अधिकारियों का दल था जिसे इतिहासकारों ने सामूहिक रूप से अभिजात वर्ग की संज्ञा से अभिहित किया है। अभिजात वर्ग में भर्ती विभिन्न नृ-जातीय तथा धार्मिक समूहों से होती थी। इससे यह सुनिश्चित हो जाता था कि कोई भी दल इतना बड़ा ने हो कि वह राज्य की सत्ता को चुनौती दे सके। मुगलों के अधिकारी-वर्ग को गुलदस्ते के रूप में वर्णित किया जाता था जो वफ़ादारी से बादशाह के साथ जुड़े हुए थे। साम्राज्य के आरंभिक चरण से ही तुरानी और ईरानी अभिजात अकबर की शाही सेवा में उपस्थित थे। इनमें से कुछ हुमायूँ के साथ भारत चले आए थे। कुछ अन्य बाद में मुगल दरबार में आए थे।

1560 से आगे भारतीय मूल के दो शासकीय समूहों-राजपूतों व भारतीय मुसलमानों (शेखज़ादाओं) ने शाही सेवा में प्रवेश किया। इनमें नियुक्त होने वाला प्रथम व्यक्ति एक राजपूत मुखिया आंबेर का राजा भारमल कछवाहा था जिसकी पुत्री से अकबर का विवाह हुआ था। शिक्षा और लेखाशास्त्र की ओर झुकाव वाले हिंदू जातियों के सदस्यों को भी पदोन्नत किया जाता था। इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण अकबर के वित्तमंत्री टोडरमल का है जो खत्री जाति का था। जहाँगीर के शासन में ईरानियों को उच्च पद प्राप्त हुए। जहाँगीर की राजनीतिक रूप से प्रभावशाली रानी नूरजहाँ (1645) ईरानी थी। औरंगजेब ने राजपूतों को उच्च पदों पर नियुक्त किया।

फिर भी शासन में अधिकारियों के समूह में मराठे अच्छी-खासी संख्या में थे। अभिजात-वर्ग के सदस्यों के लिए शाही सेवा शक्ति, धन तथा उच्चतम प्रतिष्ठा प्राप्त करने का एक ज़रिया थी। सेवा में आने का इच्छुक व्यक्ति एक अभिजात के जरिए याचिका देता था जो बादशाह के सामने तजवीज प्रस्तुत करता था। अगर याचिकाकर्ता को सुयोग्य माना जाता था तो उसे मनसब प्रदान किया जाता था। मीरबख्शी (उच्चतम वेतनदाता) खुले दरबार में बादशाह के दाएँ ओर खड़ा होता था तथा नियुक्ति और पदोन्नति के सभी उम्मीदवारों को प्रस्तुत करता था; जबकि उसका कार्यालय उसकी मुहर व हस्ताक्षर के साथ-साथ बादशाह की मुहर व हस्ताक्षर वाले आदेश तैयार करता था।

प्रश्न 9.
राजत्व के मुगल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्वों की पहचान कीजिए।
उत्तर: 
मुगलों के राजत्व सिद्धांत का वास्तविक प्रस्फुटन सम्राट अकबर के शासनकाल में हुआ। अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर
ने पर्याप्त सीमा तक उसके द्वारा प्रतिपादित राजत्व सिद्धांत का ही अनुकरण किया। शाहजहाँ धीरे-धीरे अकबर की नीति से हटने लगा। शाहजहाँ के उत्तराधिकारी औरंगजेब ने इस नीति का परित्याग करके राजत्व के विशुद्ध इस्लामी आदर्श का अनुसरण किया। मुगलों की राजकीय विचारधारा का निर्माण सम्राट अकबर के परम मित्र और वैचारिक सहयोगी अबुल फ़ज़ल द्वारा किया गया था।

विद्वानों के विचारानुसार इस पर राजतंत्र के तैमूरी ढाँचे और सुप्रसिद्ध ईरानी सूफ़ी शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी (1191 ई० में मृत्यु) के विचारों का प्रभाव था। शिहाबुद्दीन के विचारानुसार प्रत्येक व्यक्ति में एक दिव्य चमक (फ़र-ए-इज़ादी) है, किंतु केवल उच्चतम व्यक्ति ही अपने युग के नेता हो सकते हैं। अबुल फ़ज़ल द्वारा प्रतिपादित राजत्व सिद्धांत के मूल में भी यही विचारधारा निहित थी।

राजत्व के मुग़ल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्व इस प्रकार थेः
1. राजपद का दिव्य सिद्धांत-
सभी मुग़ल सम्राट राजपद के दिव्य सिद्धांत में विश्वास करते थे। उनका विचार था कि यह पद सर्वोच्च शक्ति द्वारा व्यक्ति विशेष को ही प्रदान किया जाता था। मुग़ल दरबार के इतिहासकारों ने अनेक साक्ष्यों के आधार पर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि मुग़ल बादशाहों को शक्ति सीधे ईश्वर से प्राप्त हुई थी। उनके द्वारा वर्णित एक दंतकथा में यह बताया गया कि मंगोल रानी अलानकुआ अपने शिविर में आराम करते समय सूर्य की एक किरण द्वारा गर्भवती हुई थी। उसने जिस संतान को जन्म दिया उस दिव्य प्रकाश का प्रभाव था। यह प्रकाश पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित । होता रहा।

राजत्व के दिव्य सिद्धांत की व्याख्या करते हुए अबुल फ़ज़ल ने लिखा था, “राजा एक सामान्य मानव से कहीं अधिक है; वह पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि है, ईश्वर का रूप है, और उसे एक सामान्य मनुष्य की अपेक्षा बुद्धि-विवेक का ईश्वरीय वरदान अधिक मात्रा में प्राप्त होता है। उसके अनुसार, “राज्य-शक्ति ईश्वर से फूटने वाला प्रकाश और सूर्य से निकलने वाली किरण है।” राजपद के इसी सिद्धांत के कारण मुग़ल सम्राट स्वयं को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि समझते थे। अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब आदि सभी ने ‘जिल्ल-ए-इलाही’ अर्थात् ‘ईश्वर की छाया’ की उपाधि धारण की थी। राजपद के इस दैवी सिद्धांत ने मुग़ल सम्राटों की शक्ति में वृद्धि की तथा जन-सामान्य में सम्राट पद के प्रति आदर-सम्मान तथा श्रद्धा की भावनाएँ उत्पन्न कीं।

2. चित्रों द्वारा दिव्य सिद्धान्त के विचार का संप्रेषण-
उल्लेखनीय है कि इतिवृत्तों के विवरणों के साथ चित्रित किए जाने वाले चित्रों ने इन विचारों के सम्प्रेषण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ये चित्र देखने वालों के मन-मस्तिष्क पर स्थायी प्रभाव डालते थे। 17वीं शताब्दी से मुग़ल कलाकार बादशाहों को प्रभामंडल के साथ चित्रित करने लगे। उन्होंने ईश्वरीय प्रकाश के प्रतीक रूप इन प्रभामंडलों को ईसा और वर्जिन मेरी के यूरोपीय चित्रों में देखा था।

3. धर्म और राजनीति में पृथक्कीकरण-
मुग़ल राजत्व सिद्धांत में धर्म और राजनीति में पृथक्कीकरण स्थापित करने का प्रयास किया गया। अकबर को राजनीति में उलेमा वर्ग का अनुचित हस्तक्षेप पसंद नहीं था। वह उलेमा वर्ग के प्रभाव को समाप्त करके अपनी शासन-नीति को जन-हितैषी सिद्धांतों के आधार पर संचालित करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने सितंबर 1579 ई० में ‘निर्भूत घोषणा’ (महज़र) की उद्घोषणा की। इस घोषणा के अनुसार सम्राट को कुरान की व्याख्या संबंधी उठने वाले विवादास्पद विषयों में अंतिम निर्णय लेने वाली सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्वीकार कर लिया गया।

4. सुलह-ए-कुल की नीति का अनुसरण-
राजत्व के मुग़ल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्वों में सुलह-ए-कुल की नीति का महत्त्वपूर्ण स्थान था। राज्य के लौकिक स्वरूप को स्वीकार करना तथा धार्मिक सहनशीलता की नीति का अनुसरण करना मुगलों के राजत्व सिद्धान्त की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। अबुल फ़ज़ल के अनुसार सुलह-ए-कुल (पूर्ण शान्ति) का आदर्श प्रबुद्ध शासन की आधारशिला था। सुलह-ए-कुल में सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी; शर्त केवल यही थी कि वे न तो राजसत्ता को हानि पहुँचाएँगे और न आपस में झगड़ेंगे।

औरंगजेब के अतिरिक्त प्रायः सभी मुग़ल सम्राट धार्मिक दृष्टि से उदार एवं सहनशील थे, अतः उन्होंने राजपद के संकीर्ण इस्लामी सिद्धांत का उल्लंघन करते हुए अपनी हिन्दू और मुस्लिम प्रजा को समान अधिकार प्रदान किए। अकबर वह पहला मुस्लिम शासक था, जिसने धर्म एवं जाति के भेद-भावों का त्याग करके अपनी समस्त प्रजा के साथ समान एवं निष्पक्ष व्यवहार किया। उसका विचार था कि शासक को प्रत्येक धर्म और जाति के प्रति समान रूप से सहनशीलता | होना चाहिए।

5. राज्य-नीतियों के माध्यम से सुलह-ए-कुल के आदर्श को लागू करना-
मुग़ल शासकों ने सुलह-ए-कुल के आदर्श को राज्य-नीतियों के माध्यम से लागू किया। मुगलों ने अपने अभिजात वर्ग (अमीर वर्ग) में ईरानी, तूरानी, अफ़गानी, राजपूत, दक्कनी आदि सभी अमीरों को सम्मिलित करके उसे एक मिश्रित रूप प्रदान किया। इन सबको पद और पुरस्कार प्रदान करते हुए उनकी जाति अथवा धर्म को नहीं अपितु राजा के प्रति उनकी सेवा और निष्ठा को ध्यान में रखा गया। अकबर ने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर और 1564 ई० में जज़िया को समाप्त कर यह सिद्ध कर दिया कि उसका शासन धार्मिक पक्षपात पर आधारित नहीं था।

साम्राज्य के अधिकारियों को भी स्पष्ट निर्देश दे दिए गए थे कि वे प्रशासन में ‘सुलह-ए-कुल’ के नियमों का अनुपालन करें। उपासना-स्थलों के रख-रखाव व निर्माण के लिए सभी मुग़ल बादशाहों द्वारा अनुदान प्रदान किए गए। यद्यपि औरंगजेब के शासनकाल में गैर-मुस्लिम प्रजा पर पुनः जज़िया लगा दिया गया था, किंतु, समकालीन स्रोतों से यह पता लगता है कि शाहजहाँ और औरंगजेब के शासनकाल में यदि युद्धकाल में मंदिरों को नष्ट कर दिया जाता था, तो बाद में उनकी मरम्मत के लिए अनुदान जारी कर दिए जाते थे।

6. न्यायपूर्ण संप्रभुता सामाजिक अनुबंध के रूप में-
अबुल फ़ज़ल के विचारानुसार संप्रभुता राजा और प्रजा के मध्य होने वाली एक सामाजिक अनुबंध था। बादशाह अपनी प्रजा के चार सत्त्वों-जीवन (जन), धन (माल), सम्मान (नामस) और विश्वास (दोन) की रक्षा करता था और इसके बदले में वह प्रजा से आज्ञापालन तथा संसाधनों में भाग की माँग करता था। केवल न्यायपूर्ण संप्रभु ही शक्ति और दैवी मार्गदर्शन के साथ इन अनुबंधों का सम्मान करने में समर्थ हो पाते थे।

अकबर का विचार था कि एक राजा या शासक अपनी प्रजा का सबसे बड़ा शुभचिंतक एवं संरक्षक होता है। उसे न्यायप्रिय, निष्पक्ष एवं उदार होना चाहिए; अपनी प्रजा को अपनी संतान के समान समझना चाहिए और प्रतिक्षण प्रजा की भलाई के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। अकबर के उत्तराधिकारियों ने भी प्रजा-हित के इस सिद्धांत को अपने राजत्व संबंधी विचारों का प्रमुख आधार बनाए रखा।

7. प्रतीकों द्वारा न्याय-विचार का दृश्य रूप में निरूपण करना-
न्याय के विचार का दृश्य रूप में निरूपण करने के लिए अनेक प्रतीकों की रचना की गई। मुग़ल राजतंत्र में न्याय के विचार को सर्वोत्तम सद्गुण माना जाता था। शांतिपूर्वक एक-दूसरे के साथ चिपटकर बैठे हुए शेर और बकरी अथवा गाय कलाकारों द्वारा प्रयुक्त सर्वाधिक लोकप्रिय प्रतीक था। इसका उद्देश्य राज्य को एक ऐसे क्षेत्र के रूप में दिखाना था, जहाँ दुर्बल और सबल सभी पारस्परिक सद्भाव से शांतिपूर्वक रह सकते थे। सचित्र ‘बादशाहनामा’ के दरबारी दृश्यों में इस प्रतीक का अंकन बादशाह के सिंहासन के ठीक नीचे बने एक ओले में किया गया है। नि:संदेह मुग़लों का राजत्व सिद्धांत पर्ववर्ती मुस्लिम शासकों के राजत्व सिद्धांत की अपेक्षा अधिक उदार एवं निष्पक्ष था।

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NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 8 Peasants, Zamindars and the State Agrarian Society and the Mughal Empire (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 8 Peasants, Zamindars and the State Agrarian Society and the Mughal Empire (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 8 Peasants, Zamindars and the State Agrarian Society and the Mughal Empire (Hindi Medium)

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अभ्यास-प्रश्न
(NCERT Textbook Questions Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
कृषि इतिहास लिखने के लिए आइन को स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने में कौन-सी समस्याएँ हैं? इतिहासकार इन समस्याओं से कैसे निपटते हैं?
उत्तर: 
आइन में कृषि इतिहास के सन्दर्भ में संख्यात्मक आँकड़ों की दृष्टि से विषमताएँ पाई गई हैं। सभी सूबों से आँकड़े एक ही शक्ल में नहीं एकत्रित किए गए। मसलन, जहाँ कई सूबों के लिए जमींदारों की जाति के मुतलिक विस्तृत सूचनाएँ संकलित की गईं, वहीं बंगाल और उड़ीसा के लिए ऐसी सूचनाएँ मौजूद नहीं हैं। इसी तरह, जहाँ सूबों से लिए गए राजकोषीय आँकड़े बड़ी तफ़सील से दिए गए हैं, वहीं उन्हीं इलाकों से कीमतों और मज़दूरी जैसे इतने ही महत्त्वपूर्ण मापदंड इतने अच्छे से दर्ज नहीं किए गए हैं।

कीमतों और मजदूरी की दरों की जो विस्तृत सूची आइन में दी गई है, वह साम्राज्य की राजधानी आगरा या उसके इर्द-गिर्द के इलाकों से ली गई है। जाहिर है कि देश के बाकी हिस्सों के लिए इन आँकड़ों की प्रासंगिकता सीमित है। इतिहासकार आमतौर पर यह मानते हैं कि इस तरह की समस्याएँ तब आती हैं जब व्यापक स्तर पर इतिहास लिखा जाता है। आँकड़ों के संग्रह की अधिकता से छोटी-मोटी चूक होना आम बात है और इससे किताबों के आँकड़ों की सच्चाई को कम करके नहीं आँका जा सकता।

प्रश्न 2.
सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कृषि उत्पादन को किस हद तक महज़ गुज़ारे के लिए खेती कह सकते हैं? अपने उत्तर के कारण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: 
16वीं-17वीं सदी में दैनिक आहार की खेती पर ज्यादा जोर दिया जाता था, लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि उस काल में खेती केवल गुजारा करने के लिए की जाती थी। तत्कालीन स्रोतों में जिन्स-ए-कामिल अर्थात् सर्वोत्तम फ़सलें जैसे लफ्ज़ मिलते हैं। मुगल राज्य किसानों को ऐसी फ़सलों को खेती करने के लिए बढ़ावा देता था, क्योंकि इनसे राज्य को ज्यादा कर मिलता था। कपास और गन्ने जैसी फ़सलें बेहतरीन जिन्स-ए-कामिल थीं। चीनी, तिलहन और दलहन भी नकदी फ़सलों के अंतर्गत आती थीं। इससे पता चलता है कि एक औसत किसान की ज़मीन पर किस तरह पेट भरने के लिए होने वाले उत्पादन और व्यापार के लिए किए जाने वाले उत्पादन एक-दूसरे से जुड़े थे।

प्रश्न 3.
कृषि उत्पादन में महिलाओं की भूमिका का विवरण दीजिए।

                                      अथवा

16 वीं-17वीं शताब्दियों के दौरान मुगल साम्राज्य के अंतर्गत कृषि समाज में महिलाओं की भूमिका स्पष्ट कीजिए। (Foreign 2014)
उत्तर: 
मध्यकालीन भारतीय कृषि समाज में उत्पादन प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। खेतिहर अर्थात् किसान परिवारों
से संबंधित महिलाएँ कृषि उत्पादन में सक्रिय सहयोग प्रदान करती थीं तथा पुरुषों के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर खेतों में काम करती थीं। पुरुष खेतों की जुताई और हल चलाने का काम करते थे। महिलाएँ मुख्य रूप में बुआई, निराई तथा कटाई का काम करती थीं और पकी हुई फ़सल का दाना निकालने में भी सहयोग प्रदान करती थीं। वास्तव में मध्यकाल, विशेष रूप से 16वीं और 17वीं शताब्दियों में ग्रामीण इकाइयों एवं व्यक्तिगत खेती का विकास होने के कारण घर-परिवार के संसाधन श्रम उत्पादन को प्रमुख आधार बन गए थे।

अतः महिलाओं और पुरुषों के कार्य क्षेत्र में एक विभाजक रेखा खींचना (अर्थात् घर के लिए महिला और बाहर के लिए पुरुष) कठिन हो गया था। उत्पादन के कुछ पहलू; जैसे-सूत कातना, बरतन बनाने के लिए मिट्टी को साफ़ करना और गुँधना, कपड़ों पर कढ़ाई करना आदि मुख्य रूप से महिलाओं के श्रम पर ही आधारित थे। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी वस्तु के वाणिज्यीकरण के साथ-साथ उसके उत्पादन के लिए महिला-श्रम की माँग में भी वृद्धि होने लगती थी। किसान और दस्तकार महिलाएँ न केवल खेती में सहयोग प्रदान करती थीं अपितु आवश्यकता होने पर नियोक्ताओं के घरों में भी काम करती थीं और अपने उत्पादन को बेचने के लिए बाजारों में भी जाती थीं। उल्लेखनीय है कि श्रम प्रधान समाज में महिलाओं को श्रम का एक महत्त्वपूर्ण संसाधन समझा जाता था, क्योंकि उनमें बच्चे उत्पन्न करने की क्षमता थी।

किन्तु बार-बार बच्चों को जन्म देने तथा प्रसव के समय मृत्यु हो जाने के कारण महिलाओं की मृत्युदर बहुत ऊँची थी। अतः समाज में विवाहित महिलाओं की संख्या अधिक नहीं थी। भूमिहर भद्रजनों अर्थात् ज़मींदारों के परिवारों में महिलाओं के पुश्तैनी सम्पत्ति के अधिकारों को मान्यता प्रदान की जाती थी। तत्कालीन पंजाब के दस्तावेज़ों में अनेक ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें महिलाओं, मुख्य रूप से विधवाओं के पुश्तैनी सम्पत्ति के विक्रेता के रूप में अधिकारों की पुष्टि की गई है। इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि पति की मृत्यु के बाद विधवी का उसका पुश्तैनी सम्पत्ति में भाग स्वीकार किया जाता था। समकालीन स्रोतों में उपलब्ध उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि अनेक हिन्दू और मुस्लिम महिलाओं ने उत्तराधिकार में जमींदारियाँ प्राप्त की थीं।

वे उन ज़मींदारियों को बेच सकती थीं अथवा गिरवी भी रख सकती थीं। बंगाल में भी महिला ज़मींदारों का उल्लेख मिलता है। उदाहरण के लिए, 18वीं शताब्दी की सर्वाधिक विशाल एवं प्रसिद्ध जमींदारी की कर्ताधर्ता एक महिला थी। किन्तु हमें याद रखना चाहिए कि महिलाओं की जैव-वैज्ञानिक क्रियाओं से संबंधित पूर्वाग्रह अब भी विद्यमान थे। उदाहरण के लिए, पश्चिमी भारत में रजस्वला महिलाएँ हल अथवा कुम्हार के चाक को नहीं छू सकती थीं। इसी प्रकार बंगाल में महिलाओं को मासिक धर्म की अवधि में पान बागानों में जाने की मनाही थी।

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प्रश्न 4.
विचाराधीन काल में मौद्रिक कारोबार की अहमियत की विवेचना उदाहरण देकर कीजिए।
उत्तर: 
16वीं और 17वीं शताब्दियों में कृषि अर्थव्यवस्था में मौद्रिकीकरण का उल्लेखनीय विस्तार हुआ और वस्तु विनिमय पर आधारित
अर्थव्यवस्था का स्थान मुद्रा अर्थव्यवस्था ने ले लिया। मुगल सम्राटों की वित्तीय एवं आर्थिक नीतियों के कारण साम्राज्य में मुद्रा का संचरण बढ़ने लगा। शाही टकसाल में खुली सिक्का-ढलाई की पद्धति ने मुद्रा संचरण को और अधिक विस्तृत बनाया। शीघ्र ही मौद्रिक कारोबार के महत्त्व में वृद्धि होने लगी। मुगल सम्राटों की राजस्व नीति ने मुद्रा अर्थव्यवस्था की संवृद्धि में विशेष रूप से योगदान दिया। 16वीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में ही राज्य द्वारा किसानों को यह छूट दे दी गई कि वे भू-राजस्व का भुगतान नकद अथवा जिन्स के रूप में कर सकते थे। इस सुविधा के परिणामस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था में मौद्रिक कारोबार के महत्त्व में वृद्धि होने लगी। यह सत्य है कि इस काल में ग्रामों में दस्तकार विशाल संख्या में रहते थे और उन्हें उनकी सेवाओं के बदले प्रायः जिन्स के रूप में अर्थात् उत्पादन के रूप में भुगतान किया जाता था।

किन्तु हमें इस काल में सेवाओं के बदले नकद भुगतान के उदाहरण भी उपलब्ध होते हैं। उदाहरण के लिए, 18वीं शताब्दी के स्रोतों में बंगाल में ‘जजमानी’ नामक एक व्यवस्था का उल्लेख मिलता है, इसके अंतर्गत बंगाल में जमीदार लोहारों, बढ़इयों और सुनारों तक को उनकी सेवाओं के बदले रोज़ का भत्ता तथा रखने के लिए नकदी देते थे। विचाराधीन काल में ग्रामों और शहरों के मध्य होने वाले व्यापार के परिणामस्वरूप ग्रामों के कारोबार में भी मौद्रिकीकरण का महत्त्व बढ़ने लगा था। ग्राम समुदाय महाजनों और बनजारों के माध्यम से कस्बों और शहरों को अनाज भेजते थे। इस प्रकार ग्रामों में पैसा वापस आ जाता था। मुगल साम्राज्य के केन्द्रीय क्षेत्रों में कर की गणना और वसूली भी नकद रूप में की जाती थी। किसान सुविधा एवं इच्छानुसार अनाज अथवा नकद रूप में भू-राजस्व का भुगतान कर सकते थे, किन्तु राज्य नकद रूप में भू-राजस्व प्राप्त करना अधिक अच्छा समझता था।

निर्यात के लिए उत्पादन करने वाले दस्तकारों को भी उनकी मज़दूरी का भुगतान अथवा अग्रिम भुगतान नकद रूप में ही किया जाता था। व्यावसायिक फ़सलों के उत्पादन ने भी मौद्रिक कारोबार में वृद्धि की। कपास, रेशम अथवा नील जैसी फ़सलें पैदा करने वाले अपनी फ़सलों का भुगतान नकदी में ही प्राप्त करते थे। यही कारण है कि हमें 17वीं शताब्दी के सभी भारतीय ग्रामों में सराफ़ों का उल्लेख मिलता है। ज़मींदारियों के विस्तार ने भी मौद्रिकीकरण के विकास को बढ़ावा दिया। जमींदारों ने किसानों को कृषि योग्य भूमि के विस्तार के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने किसानों को कृषि संबंधी उपकरण तथा उधार देकर वहाँ बसने में सहायता प्रदान की। जमींदारियों के क्रय-विक्रय ने ग्रामों में मौद्रिकीकरण की प्रक्रिया को तीव्र बनाया। ज़मींदार किसानों से राजस्व की माँग नकद रूप में करते थे। वे अपने स्वामित्व की जमीनों की फ़सल भी बेचते थे। समकालीन स्रोतों से पता चलता है कि ज़मींदार प्रायः अपने बाजारों अथवा मंडियों की स्थापना कर लेते थे।

किसान यहाँ अपनी फ़सल बेचकर नकदी प्राप्त कर लेते थे और जमींदार को कर का भुगतान भी कर देते थे। कारोबार में मौद्रिकीकरण का महत्त्व बढ़ने के परिणामस्वरूप किसान उन्हीं फ़सलों के उत्पादन पर बल देने लगे, जिनकी बाजार में पर्याप्त माँग थी और जिनकी अच्छी कीमत मिलती थी। व्यापार के विस्तार ने भी मौद्रिकीकरण को प्रोत्साहन दिया। भारत से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं का भुगतान करने के लिए भारी मात्रा में चाँदी भारत आने लगी। उल्लेखनीय है कि भारत में चाँदी के प्राकृतिक संसाधन नहीं थे। इस प्रकार बाहर से विशाल मात्रा में चाँदी आना भारत के लिए वरदान सिद्ध हुआ। इसके परिणामस्वरूप 16वीं से 18वीं शताब्दी के काल में भारत में धातु मुद्रा, विशेष रूप से चाँदी के रुपयों की उपलब्धि में स्थिरता बनी रही। इससे वहाँ एक ओर अर्थव्यवस्था में मुद्रा-संचरण को बढ़ावा मिला तथा सिक्की ढलाई के कार्य का विस्तार हुआ वहीं दूसरी ओर साम्राज्य को अधिकाधिक राजस्व नकद रूप में प्राप्त होने लगा।

प्रश्न 5.
उन सबूतों की जाँच कीजिए जो ये सुझाते हैं कि मुगल राजकोषीय व्यवस्था के लिए भू-राजस्व बहुत महत्त्वपूर्ण था।
उत्तर: 
‘वित्त’ साम्राज्य रूपी शरीर का मेरुदंड होता है। अतः लगभग सभी मुगल सम्राट साम्राज्य को सुदृढ़ वित्तीय आधार प्रदान करने
के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे। जजिया, जकात, खम्स, खिराज, व्यापार, टकसाल, अधीन राजाओं और मनसबदारों से समय-समय पर प्राप्त होने वाले उपहार, उत्तराधिकारीविहीन सम्पत्ति, व्यापारिक एकाधिकार, राज्य द्वारा चलाए जाने वाले उद्योग, विभिन्न प्रकार की चुगियाँ आदि राज्य की आय के अनेक साधन थे। इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान भू-राजस्व का था। भू-राजस्व ही साम्राज्य की आर्थिक बुनियाद का आधार था। अत: कृषि उत्पादन पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए तथा तीव्र गति से विस्तृत होते हुए साम्राज्य के सभी क्षेत्रों में राजस्व के आकलन एवं वसूली के लिए एक प्रशासनिक तंत्र का निर्माण करना नितांत आवश्यक हो गया।

दीवान अथवा वित्त मंत्री, जो संपूर्ण राज्य की वित्तीय व्यवस्था की देख-रेख के लिए उत्तरदायी था, इस तंत्र में सम्मिलित था। वित्त के साथ-साथ राजस्व विभाग भी उसी के नियंत्रण में था। इस प्रकार आय-व्यय का हिसाब रखने वाले अधिकारियों और राजस्व अधिकारियों ने कृषि-जगत में प्रवेश किया और शीघ्र ही वे कृषि-संबंधों के निर्धारण में एक निर्णायक शक्ति बन गए। लोगों पर कर का भार निर्धारित करने में पहले मुगल राज्य ने जमीन और उस पर होने वाले उत्पादन के विषय में विशेष सूचनाएँ इकट्ठा करने का प्रयास किया। कर निर्धारण और वास्तविक वसूली भू-राजस्व के प्रबंध के दो महत्त्वपूर्ण चरण थे। अकबर प्रथम मुगल सम्राट था, जिसने भू-राजस्व व्यवस्था को सुचारु रूप से व्यवस्थित किया और मध्ययुग की सर्वोत्तम भू-राजस्व प्रणाली का निर्माण किया।

उसने अपने सुयोग्य वित्तमंत्री राजा टोडरमल के सहयोग से भू-राजस्व व्यवस्था के क्षेत्र में जिस प्रशंसनीय प्रणाली को स्थापित किया, वह संपूर्ण मुगलकाल में भू-राजस्व व्यवस्था का प्रमुख आधार बनी रही। इस प्रणाली को इतिहास में दहसाला प्रबंध, आइन-ए-दहसाला, जब्ती-प्रणाली एवं राजा टोडरमल की भू-राजस्व पद्धति आदि नामों से जाना जाता है। अकबर के शासनकाल में भू-राजस्व की दो अन्य प्रणालियाँ भी प्रचलित थीं। ये थीं-1. गल्लाबख्शी प्रणाली 2. नस्क अथवा कनकूत प्रणाली। दहसाला व्यवस्था 1580 ई० में साम्राज्य के आठ महत्त्वपूर्ण प्रांतों-दिल्ली, आगरा, अवध, इलाहाबाद, मालवा, अजमेर, लाहौर और मुल्तान में प्रचलित की गई।

दहसाला व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ1. भूमि की पैमाइश – इस प्रणाली के अंतर्गत ऊपर लिखे गए आठों प्रांतों की समस्त कृषि योग्य भूमि की पैमाइश 41-अंगुल | वे इलाही गज से करवाई गई। 2. भूमि का वर्गीकरण – पैमाइश के बाद काश्त की निरंतरता के आधार पर समस्त भूमि को पोलज, परौती, चचर और बंजर इन चार भागों में विभक्त कर दिया गया। पोलज सर्वाधिक उपजाऊ भूमि थी जिस पर सदैव काश्त होती थी। परौती अपेक्षाकृत कम उपजाऊ थी। दो-तीन वर्ष तक निरंतर खेती करने के उपरांत इसे एकाध वर्ष के लिए परती (खाली) छोड़ दिया जाता था। छज्छर भूमि को एक फ़सल के बाद पुनः उर्वरा-शक्ति प्राप्त करने के लिए तीन-चार वर्ष के लिए खाली छोड़ना पड़ता था।

बंजर सर्वाधिक निम्नकोटि की भूमि थी। राज्य का भाग निश्चित करना । जैसा कि पहले बताया जा चुका है, कर निर्धारण और वास्तविक वसूली मुगल भू-राजस्व प्रबन्ध के दो महत्त्वपूर्ण चरण थे। वास्तविक वसूली अर्थात् वास्तव में वसूल की जाने वाली रकम हासिल के नाम से जानी जाती थी। राज्य राजस्व निर्धारण के समय अपना भाग अधिक-से-अधिक रखने का प्रयत्न करता था, किंतु स्थानीय परिस्थितियों के कारण कभी-कभी वास्तव में इतनी वसूली नहीं हो पाती थी, इसलिए जमा और हासिल में काफी अंतर हो जाता था। ‘पोलज’ और ‘परौती’ श्रेणियों की भूमि से राज्य उपज का 1/3 भाग भू-राजस्व के रूप में लेता था। नकद मूल्य निश्चित करना ।

कर को नकद दर (दस्तूर) में परिवर्तित करने के लिए भिन्न-भिन्न हलकों की पिछले दस वर्षों की औसत दरों के आधार पर दर-सूचियाँ (रे) तैयार की जाती थीं और उन सूचियों के आधार पर राज्य का भाग अनाज़ से नकद धनराशि के रूप में परिवर्तित कर लिया जाता था। राज्य नकद रूप में भू-राजस्व प्राप्त करना अधिक अच्छा समझता था। गल्ला बख्शी प्रणाली सिंध, कश्मीर, काबुल, कंधार और गुजरात में भू-राजस्व की परम्परागत प्रणाली ही प्रचलित रही, जिसे गुल्ला बख्शी अथवा बटाई के नाम से जाना जाता है।

नस्क अथवा कनकूत प्रणाली : मुगल साम्राज्य के कुछ भागों; जैसे- बंगाल, उड़ीसा और बरार में नस्क अथवा कनकूत प्रणाली का प्रचलन था। भूमि-कर वर्ष में दो बार (पहली बार रबी की फ़सल और दूसरी बार खरीफ़ की फ़सल पकने पर) सीधे किसानों से वसूल किया जाता था। सरकार की ओर से किसान को ‘पट्टा’ नामक एक पत्र दिया जाता था और किसान ‘कबूलियतनामा’ पर हस्ताक्षर करके सरकार को देता था। भू-राजस्व प्रबंध के संबंध में उठाए गए इन कदमों से यह भली-भाँति
स्पष्ट हो जाता है कि मुगल राजकोषीय व्यवस्था के लिए भू-राजस्व अत्यधिक महत्त्वपूर्ण था।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
आपके मुताबिक कृषि समाज में सामाजिक व आर्थिक संबंधों को प्रभावित करने में जाति किस हद तक एक कारक थी?
उत्तर: 
16वीं-17वीं शताब्दियों के काल में भारत एक कृषि प्रधान देश था। देश की लगभग 85 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामों में निवास
करती थी और प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से संबंधित थी। ग्राम कृषक समाज की मौलिक इकाई था। किसान ग्रामों में रहकर कृषि कार्य करते थे। वे पूरा साल अलग-अलग मौसम में पैदावार से जुड़ी विभिन्न गतिविधियों; जैसे- जमीन की जुताई, बुवाई (बीज बोना) और कटाई में व्यस्त रहते थे। कृषि समाज में सामाजिक-आर्थिक संबंधों के निर्धारण में जाति की भूमिका कठोर जाति-व्यवस्था भारतीय समाज की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। समाज अनेक जातियों तथा उपजातियों में विभक्त था जिनकी संख्या दो हजार से भी अधिक थी।

उच्च जाति के लोग निम्न जातियों से घृणा करते थे तथा उनसे किसी प्रकार का संबंध नहीं रखते थे। निम्न जातियों के लोग विशेषतः शूद्र जिनकी संख्या कुल हिन्दू जनसंख्या को लगभग बीस प्रतिशत थी, सवर्ण अर्थात् उच्च जातीय हिन्दुओं द्वारा अछूत समझे जाते थे। व्यवसाय जाति के आधार पर निर्धारित किए जाते थे। स्वाभाविक रूप से कृषि समाज में सामाजिक एवं आर्थिक संबंधों के निर्धारण में जाति की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती थी। जाति एवं जाति जैसे अन्य भेदभावों ने खेतिहर किसानों को अनेक भागों में विभक्त कर दिया था। यद्यपि कृषि योग्य भूमि का अभाव नहीं था तथापि कुछ जातियों के लोगों से केवल निम्न समझे जाने वाले कार्य ही करवाये जाते थे। खेतों की जुताई का कार्य अधिकांशतः ऐसे लोगों से करवाया जाता था, जो सवर्ण हिन्दुओं द्वारा निम्न समझे जाने वाले कार्यों को करते थे अथवा खेतों में मजदूरी करते थे। जाति संस्था के नियंत्रणों के कारण उनके पास पर्याप्त आर्थिक संसाधन नहीं होते थे। परिणामस्वरूप, ग्रामीण समुदाय के एक विशाल भाग का निर्माण करने वाले ये लोग विवशतापूर्वक दरिद्रता का जीवन व्यतीत करते थे।

उच्च जातीय हिन्दू शूद्रों से घृणा करते थे और उनके साथ किसी प्रकार का सामाजिक मेलजोल नहीं रखते थे। हिन्दुओं के घनिष्ठ सम्पर्क में रहते-रहते मुसलमानों में भी जातीय भेदभावों को प्रसार होने लगा था। निम्न जातीय हिन्दुओं के समान निम्न जातीय मुसलमानों को भी गरीबी और तंगहाली का जीवन जीना पड़ता था। वे न तो उच्च जातीय मुसलमानों की बस्तियों में रह सकते थे और न उनके साथ सामाजिक संबंध स्थापित कर सकते थे। मुस्लिम समुदायों में हलालखोरान जैसे नीच कामों को करने वाले लोग ग्राम की सीमाओं के बाहर रहते थे। इसी प्रकार बिहार में मल्लाहज़ादाओं को निम्न जातीय समझा जाता था। उनकी स्थिति दासों से बेहतर नहीं थी। निम्न जातियों से संबंधित लोगों, चाहे वे हिन्दू थे अथवा मुसलमान, को न तो समाज में सम्मानित स्थान प्राप्त था और न ही उनकी आर्थिक दशा अच्छी थी।

ऐसा प्रतीत होता है कि मध्यकालीन भारतीय समाज में जाति, गरीबी और सामाजिक स्तर के मध्य प्रत्यक्ष संबंध था। उदाहरण के लिए, यद्यपि ग्राम पंचायत में भिन्न-भिन्न जातियों और सम्प्रदायों का प्रतिनिधित्व होता था, किन्तु इसमें छोटे-मोटे एवं ‘नीच’ काम करने वाले खेतिहर मजदूरों को संभवतः कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता था। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि कृषि समाज में सामाजिक एवं आर्थिक संबंधों का निर्धारण मुख्य रूप से जाति द्वारा ही किया जाता था। उल्लेखनीय है कि कृषि समाज के मध्यम वर्गों में स्थिति इस प्रकार की नहीं थी। उदाहरण के लिए, 17वीं शताब्दी में मारवाड़ में लिखी गई एक पुस्तक में राजपूतों का उल्लेख किसानों के रूप में किया गया है। इस पुस्तक में जाटों को भी किसान बताया गया है, किन्तु जाति व्यवस्था में उन्हें राजपूतों की अपेक्षा नीचा स्थान दिया गया था।

इसी प्रकार आधुनिक उत्तर प्रदेश के वृन्दावन क्षेत्र में रहने वाले गौरव समुदाय के लोग शताब्दियों से ज़मीन की जुताई का कार्य करते थे, किन्तु 17वीं शताब्दी में उनके द्वारा राजपूत होने का दावा किया गया। पशुपालन तथा बागवानी के काम को करने वाले अहीर, गुज्जर और माली जैसी जातियों का सामाजिक स्तर भी उनकी आर्थिक उन्नति के साथ-साथ उन्नत होने लगा। पूर्वी क्षेत्रों में सदगोप एवं कैवर्त जैसी पशुपालक और मछुआरी (मछली पकड़ने वाली) जातियाँ भी सामाजिक स्तर में ऊपर उठकर किसानों जैसी स्थिति को प्राप्त करने लगीं। इस प्रकार, स्पष्ट हो जाता है कि मध्यकालीन कृषि समाज में सामाजिक एवं आर्थिक संबंधों के निर्धारण में जाति का महत्त्वपूर्ण भाग था। किन्तु हमें यह भी याद रखना चाहिए कि मध्यम क्रम में आने वाली जातियों का सामाजिक स्तर उनकी आर्थिक स्थिति में उन्नति होने के साथ-साथ उन्नत होने लगा था।

प्रश्न 7.
सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में जंगलवासियों की जिंदगी किस तरह बदल गई?
उत्तर: 
वाणिज्यिक खेती का असर, जंगलवासियों की जिंदगी पर भी पड़ता था। जंगल के उत्पाद; जैसे-शहद, मधुमोम और लाक
की बहुत माँग थी। लाक जैसी कुछ वस्तुएँ तो सत्रहवीं सदी में भारत से समुद्र पार होने वाले निर्यात की मुख्य वस्तुएँ थीं। हाथी भी पकड़े और बेचे जाते थे। व्यापार के तहत वस्तुओं की अदला-बदली भी होती थी। कुछ कबीले भारत और अफ़गानिस्तान के बीच होने वाले जमीनी व्यापार में लगे थे; जैसे-पंजाब का लोहानी कबीला। इस क़बीले के लोग गाँवों और शहरों के बीच होने वाले व्यापार में भी शिरकत करते थे। सामाजिक कारणों से भी जंगलवासियों के जीवन में बदलाव आए। कबीलों के भी सरदार होते थे, कई कबीलों के सरदार जमींदार बन गए, कुछ तो राजा भी हो गए। ऐसे में उन्हें सेना खड़ी करने की ज़रूरत हुई। उन्होंने अपने ही खानदान के लोगों को सेना में भर्ती किया; या फिर अपने ही भाई-बंधुओं से सैन्य सेवा की माँग की।

हालाँकि कबीलाई व्यवस्था से राजतांत्रिक प्रणाली की तरफ़ संक्रमण बहुत पहले ही शुरू हो चुका था, लेकिन ऐसा लगता है कि सोलहवीं सदी में आकर ही यह प्रक्रिया पूरी तरह विकसित हुई। इसकी जानकारी हमें उत्तर-पूर्वी इलाकों में कबीलाई राज्यों के बारे में आइन की बातों से मिलती है। उदाहरण के तौर पर, सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कोच राजाओं ने पड़ोसी कबीलों के साथ एक के बाद एक युद्ध किया और उन पर अपना कब्ज़ा जमा लिया। जंगल के इलाकों में नए सांस्कृतिक प्रभावों के विस्तार की भी शुरुआत हुई। कुछ इतिहासकारों ने तो दरअसल यह भी सुझाया है कि नए बसे इलाकों के खेतिहर समुदायों ने जिस तरह धीरे-धीरे इस्लाम को अपनाया, उसमें सूफ़ी संतों (पीर) ने एक बड़ी भूमिका अदा की थी।

प्रश्न 8.
मुग़ल भारत में ज़मींदारों की भूमिका की जाँच कीजिए।

                                         अथवा

16वीं – 17वीं शताब्दी में मुगल भारत में जमींदारों की भूमिका की व्याख्या कीजिए। (All India 2014)
उत्तर: 
मुग़ल भारत में जमींदार जमीन के मालिक होते थे। ग्रामीण समाज में उनकी ऊँची हैसियत होती थी। जमींदारों की समृद्धि
का मुख्य कारण था, उनकी विस्तृत व्यक्तिगत जमीन, जिसे ‘मिल्कियत’ कहा जाता था। मिल्कियत जमीन पर दिहाड़ी मजदूर काम करते थे। ज़मींदारों को राज्य की ओर से कर वसूलने का अधिकार प्राप्त होता था। इसके बदले उन्हें वित्तीय मुआवजा मिलता था। जमींदारों के पास अपने किले भी होते थे। अधिकांश ज़मींदार अपनी सैनिक टुकड़ियाँ भी रखते थे। ज़मींदारों ने खेती लायक जमीनों को बसाने में अगुआई की और खेतिहरों को खेती के साजो-सामान व उधार देकर उन्हें वहाँ बसने में भी मदद की।

जमींदारी की खरीद-बिक्री से गाँवों में मौद्रीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई। ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि ज़मींदार एक प्रकार का हाट (बाजार) स्थापित करते थे जहाँ किसान अपनी फ़सलें बेचने आते थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि जमींदार शोषणकारी नीति अपनाते थे। लेकिन किसानों के साथ उनके रिश्तों में पारस्परिकता, पैतृकवाद और संरक्षण की भावना रहती थी। यही कारण है कि तत्कालीन साहित्यों में जमींदारों को अत्यंत क्रूर शोषक के रूप में नहीं दिखाया गया है। किसान प्रायः राजस्व अधिकारियों को ही दोषी ठहराते थे। परवर्ती काल में अनेक कृषक विद्रोह हुए और उनमें राज्य के खिलाफ़ जमींदारों को अकसर किसानों का समर्थन और सहयोग मिला।

प्रश्न 9.
पंचायत और गाँव का मुखिया किस तरह से ग्रामीण समाज का नियमन करते थे? विवेचना कीजिए।

अथवा

16वीं – 17वीं सदियों में मुग़ल ग्रामीण भारतीय समाज में पंचायत की भूमिका की व्याख्या कीजिए। (Delhi 2014)
उत्तर: 
16वीं और 17वीं शताब्दियों के काल में ग्रामीण समाज में पंचायत और मुखिया का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान था। ग्रामीण
समाज के नियमन में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। पंचायत-ग्राम पंचायत सामान्यतः ग्राम के सम्मानित एवं महत्त्वपूर्ण बुजुर्गों, जिसके पास अपनी सम्पत्ति के पुश्तैनी अधिकार होते थे, की सभा होती थी। इस प्रकार, ग्राम पंचायत एक अल्पतंत्र के रूप में कार्य करती थी जिसमें भिन्न-भिन्न जातियों एवं सम्प्रदायों के लोगों का प्रतिनिधित्व होता था। किन्तु छोटे-मोटे एवं नीच कार्य करने वाले खेतिहर मजदूरों को संभवतः पंचायत में कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता था। मुखिया : मुकद्दम अथवा मंडल-प्रत्येक पंचायत का एक मुखिया अथवा अध्यक्ष होता था, जिसे मुकद्दम अथवा मंडल कहा जाता था। तत्कालीन स्रोतों से पता लगता है कि मुखिया का चुनाव ग्राम के बुजुर्गों को सहमति से किया जाता था। चुनाव के बाद उसे जमींदार से स्वीकृत करवाना आवश्यक था।

मुखिया अपने पद पर तभी तक बना रह सकता था जब तक उसे ग्राम के बुजुर्गों का विश्वास प्राप्त होता था। बुजुर्गों का विश्वास खोने के साथ ही उसे अपने पद से वंचित होना पड़ता था। पंचायत के कार्य एवं आय के स्रोत-पंचायत ग्राम की हर प्रकार की व्यवस्था के लिए उत्तरदायी होती थी। ग्राम की रक्षा, स्वास्थ्य एवं सफाई, प्रारंभिक शिक्षा, न्याय, सिंचाई, निर्माण-कार्य, मनोरंजन, जनसामान्य के नैतिक, धार्मिक विकास की व्यवस्था आदि सभी कार्य पंचायत के द्वारा ही किए जाते थे। ग्राम की आय एवं व्यय का हिसाब रखना मुखिया का एक प्रमुख कार्य था। वह पंचायत के पटवारी की सहायता से इस कार्य को सम्पन्न करता था। प्रत्येक पंचायत का अपना कोष अथवा खज़ाना होता था, जिसमें ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति द्वारा योगदान किया जाता था। कोष की धनराशि से ही पंचायत के विभिन्न प्रकार के खर्चे को चलाया जाता था।

समय-समय पर ग्राम का दौरा करने वाले कर अधिकारियों की खातिरदारी का खर्च भी इसी धनराशि से पूरा किया जाता था। इस कोष का उपयोग बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपत्तियों का सामना करने के लिए तथा कुछ सामुदायिक कार्यों को करने के लिए भी किया जाता था। उदाहरण के लिए, मिट्टी के छोटे-छोटे बाँध बनाने अथवा नहर खोदने के कार्य, जो किसान स्वयं नहीं कर सकते थे, पंचायत के कोष से करवाए जाते थे। पंचायत एवं मुखिया ग्रामीण समाज के नियामक के रूप में-मध्यकालीन भारत में पंचायत का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य ग्रामीण समाज का नियमन करना था। पंचायत यह प्रयास करती थी कि ग्राम में रहने वाले भिन्न-भिन्न समुदायों के लोग अपनी-अपनी जाति के नियमों का पालन करें तथा  अपनी जाति की सीमाओं को पार न करें। इस प्रकार, “जाति की अवहेलना रोकने के लिए जन सामान्य के आचरण पर नियंत्रण स्थापित करना मुखिया अथवा मंडल का एक महत्त्वपूर्ण कार्य माना जाता था। हमें याद रखना चाहिए कि हिन्दू समाज में जाति-नियम अत्यधिक कठोर थे।

पूर्वी भारत में सभी विवाह मंडल की उपस्थिति में सम्पन्न किए जाते थे। जाति-नियम की किसी भी प्रकार अवहेलना करने वाले व्यक्ति को कठोर सज़ा का भागीदार बनना पड़ता था। पंचायत उस पर जुर्माना लगा सकती थी अथवा उसे जाति से बहिष्कृत करने जैसी कठोर सजा भी दे सकती थी। जाति बहिष्कार की सजा तीन रूपों में दी जाती थी; अपराधी व्यक्ति के जाति के अन्य सदस्यों के साथ खान-पान पर प्रतिबंध लगाकर, जाति में विवाह संबंधों पर निषेध लगाकर, अभियुक्त को संपूर्ण सामान्य समुदाय से बाहर निकालकर। जाति से निकाला गया व्यक्ति ग्राम समुदाय की दृष्टि में भी अपराधी माना जाता था। उसे पंचायत द्वारा निर्धारित समय के लिए ग्राम छोड़ना पड़ता था और इस अवधि में वह अपनी जाति और व्यवसाय अर्थात् पेशे से भी वंचित हो जाता था। किन्तु हमें याद रखना चाहिए कि संपूर्ण जाति समुदाय से बाहर कर देने जैसी कठोर सज़ा केवल कुछ ही समय के लिए दी जाती थी। वास्तव में, इन नियमों एवं नीतियों का प्रमुख उद्देश्य जाति संबंधी रीति-रिवाजों की अवहेलना पर नियंत्रण स्थापित करना था ताकि समाज में व्यवस्था बनी रहे।

जाति पंचायत-ग्राम पंचायत के अतिरिक्त ग्राम में प्रत्येक जाति की अपनी पंचायत भी होती थी, जिसे जाति पंचायत के नाम से जाना जाता था। मध्यकालीन भारतीय समाज में जाति पंचायतों का अत्यधिक महत्त्व था और ये बहुत शक्तिशाली होती थीं। जाति पंचायतें शक्तिशाली निकायों के रूप में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करती थीं। वे भिन्न-भिन्न जातियों के मध्य होने वाले दीवानी के झगड़ों का फैसला करती थीं। ज़मीन से संबंधित दावेदारियों के झगड़ों का फैसला भी जाति पंचायतों द्वारा किया जाता था। जाति पंचायतों का एक प्रमुख कार्य जाति-विशेष के सदस्यों के आचरण को नियंत्रित करना था। वे विवाह संबंधों में जातिगत मानदंडों के अनुसरण पर बल देती थीं और यह निश्चित करती थीं कि विवाह संबंधों में जातीय मानदंडों का पालन किया जा रहा था या नहीं। ग्राम के उत्सवों में जाति के किस सदस्य को कितना महत्त्व दिया जाएगा, इसका

निश्चय भी जाति पंचायत के द्वारा ही किया जाता था। फौजदारी के मामलों के अतिरिक्त अन्य अधिकांश मामलों में राज्य भी जाति पंचायत के निर्णयों को महत्त्व देता था। जाति पंचायत अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करती थी तथा उनके साथ होने वाले अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाती थी। यदि ऊँची जातियों के लोगों अथवा राज्य के अधिकारियों द्वारा जबर्दस्ती कर वसूल किया जाता था अथवा बलपूर्वक बेगार के लिए विवश किया जाता था, तो इसकी शिकायत जाति पंचायत से की जा सकती थी। हमें याद रखना चाहिए कि निचली जाति के किसानों तथा राज्य के अधिकारियों अथवा स्थानीय जमींदारों से संबंधित झगड़ों में पंचायत का निर्णय सभी मामलों में एक जैसा नहीं होता था।

उल्लेखनीय है कि जाति पंचायत के निर्णय सदैव निष्पक्ष नहीं होते थे। प्रभावशाली एवं साधन सम्पन्न व्यक्तियों के प्रति यह प्राय: उदार निर्णय लेती थी। कभी-कभी व्यक्तिगत द्वेष के आधार पर भी जाति-बहिष्कार जैसी कठोर सज़ा दे दी जाती थी। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि सम्पन्न और उच्च वर्गों की अपेक्षा निर्धनों तथा निम्नवर्गों पर पंचायत का प्रभाव अधिक होता था। इसका प्रमुख कारण यह था कि संपन्न और उच्च वर्गों के लोग पंचायत के आपत्तिजनक फैसलों के विरुद्ध कचहरियों और न्यायालयों में जाने को तैयार रहते थे, किन्तु निम्न जातीय और निर्धन व्यक्ति अपनी अज्ञानता और आर्थिक स्थिति के कारण ऐसा करने में असमर्थ थे।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
विश्व के बहिरेखा वाले नक्शे पर उन इलाकों को दिखाएँ जिनका मुग़ल साम्राज्य के साथ आर्थिक संपर्क था। इन इलाकों के साथ यातायात मार्ग को भी दिखाएँ।
उत्तर: 
स्वयं करें।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
पड़ोस के एक गाँव का दौरा कीजिए। पता कीजिए कि वहाँ कितने लोग रहते हैं, कौन-सी फ़सले उगाई जाती हैं, कौन-से जानवर पाले जाते हैं, कौन-से दस्तकार समूह रहते हैं, महिलाएँ ज़मीन की मालिक है या नहीं, ओर वहाँ की पंचायत किस तरह काम करती है। जो आपने सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के बारे में सीखा है उससे इस सूचना की। तुलना करते हुए, समानताएँ नोट कीजिए। परिवर्तन और निरंतरता दोनों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: 
स्वयं करें।

प्रश्न 12.
‘आइन’ का एक छोटा-सा अंश चुन लीजिए। इसे ध्यान से पढ़िए और इस बात का ब्योरा दीजिए कि इसका | इस्तेमाल एक इतिहासकार किस तरह से कर सकता है?
उत्तर: 
स्वयं करें।

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NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 1 Bricks, Beads and Bones The Harappan Civilisation (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 1 Bricks, Beads and Bones The Harappan Civilisation (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 1 Bricks, Beads and Bones The Harappan Civilisation (Hindi Medium)

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अभ्यास-प्रश्न
(NCERT Textbook Questions Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
हड़प्पा सभ्यता के शहरों में लोगों को उपलब्ध भोजन सामग्री की सूची बनाइए। इन वस्तुओं को उपलब्ध कराने वाले समूहों की पहचान कीजिए।
उत्तर:
शहरों में रहने वाले हड़प्पा सभ्यता के लोगों की भोजन सामग्रियाँ हैं-

  1. पेड़-पौधों के उत्पाद,
  2. अंडे, मांस और मछली,
  3. विभिन्न प्रकार के अनाज; जैसे-गेहूँ, जौ, चावल, सफ़ेद चना, दालें और तिलहन आदि
  4. दूध, दही, घी एवं संभवत: शहद। पुरातत्वविदों ने हड़प्पा से प्राप्त जले हुए अनाज के दानों, बीजों और हड्डियों आदि की सहायता से वहाँ के लोगों की खान-पान की आदतों का पता लगाया है।

हड़प्पा के लोग अधिक मात्रा में पेड़-पौधों के उत्पादों और जानवरों से प्राप्त उत्पादों का सेवन करते थे तथा भेड़-बकरी, गाय, भैंस आदि को दूध के लिए पालते थे तथा मछली, हिरन, सांभर बारहसिंगा और सूअर को मांस के लिए पालते थे। पूर्व और प्रौढ़ हड़प्पाई लोगों द्वारा इसी भोजन का उपयोग किया जाता था। गुजरात के लोग दुधारू पशुओं को ज्यादातर पालते थे। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा आदि की खुदाई से कछुओं की भी हड्डियाँ प्राप्त हुई हैं। सेलखड़ी की बनी नींबू की पत्ती से स्पष्ट है कि लोग नींबू, खजूर, अनार और नारियल जैसे फलों की भी जानकारी रखते थे। बड़े-बड़े घरों में अन्न के भंडार थे। अनाज के संरक्षण से पता चलता है कि हड़प्पा में अन्न का आगमन और निर्गमन शासन द्वारा नियंत्रित रहा होगा। यही नहीं, अनाज विनिमय का एक सबसे महत्त्वपूर्ण साधन रहा होगा।

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प्रश्न 2.
पुरातत्वविद हड़प्पाई समाज में सामाजिक-आर्थिक भिन्नताओं का पता किस प्रकार लगाते हैं? वे कौन-सी भिन्नताओं पर ध्यान देते हैं?
उत्तर: 
पुरातत्त्वविद किसी संस्कृति विशेष के लोगों की सामाजिक एवं आर्थिक भिन्नताओं का पता लगाने के लिए अनेक विधियों का प्रयोग करते हैं। इनमें से दो प्रमुख विधियाँ हैं-शवाधानों का अध्ययन और विलासिता की वस्तुओं की खोज। |

1. शवाधानों का अध्ययन-
शवाधानों का अध्ययन सामाजिक एवं आर्थिक भिन्नताओं का पता लगाने का एक महत्त्वपूर्ण तरीका है। हड़प्पाई शवाधानों का अध्ययन करते हुए पुरातत्त्वविदों को अनेक भिन्नताएँ दृष्टिगोचर हुईं। उल्लेखनीय है कि हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न पुरास्थलों से जो शवाधान मिले हैं, उनसे स्पष्ट होता है कि मृतकों को सामान्य रूप से गर्ते अथवा गड्ढों में दफनाया जाता था। किंतु सभी शवाधान गर्तों की बनावट एक जैसी नहीं थी। अधिकांश शवाधान गर्तो की बनावट सामान्य थी, किंतु कुछ सतहों पर ईंटों की चिनाई की गई थी। गर्गों की बनावट में पाई जाने वाली विविधताओं से लगता है कि संभवतः हड़प्पाई समाज में भिन्नताएँ विद्यमान थीं। ईंटों की चिनाई वाले गर्त उच्चाधिकारी वर्ग अथवा संपन्न वर्ग के शवाधान रहे होंगे। शवाधान गर्गों में शव सामान्य रूप से उत्तर-दक्षिण दिशा में रखकर दफनाए जाते थे। कुछ कब्रों में शव मृदभांडों और आभूषणों के साथ दफनाए गए मिले हैं और कुछ में ताँबे के दर्पण, सीप और सुरमे की सलाइयाँ भी मिली हैं। कुछ शवाधानों से बहुमूल्य आभूषण एवं अन्य सामान मिले हैं, तो कुछ से बहुत ही सामान्य आभूषणों की प्राप्ति हुई है। हड़प्पा में एक कब्र में ताबूत भी मिला है।

एक शवाधान में एक पुरुष की खोपड़ी के पास से एक ऐसा आभूषण मिला है जिसे शंख के तीन छल्लों, जैस्पर (एक प्रकार का उपरत्न) के मनकों और सैकड़ों छोटे-छोटे मनकों से बनाया गया था। कालीबंगन में छोटे-छोटे वृत्ताकार गड्ढों में राखदानियाँ तथा मिट्टी के बर्तन मिले हैं। कुछ गड्ढों में हड्डियाँ एकत्रित मिली हैं। इनसे स्पष्ट होता है कि हड़प्पाई समाज में शव का अंतिम संस्कार विभिन्न तरीकों से, कम-से-कम तीन तरीकों से, किया जाता था। शवों का सावधानीपूर्वक अंतिम संस्कार करने और आभूषण एवं प्रसाधन सामग्री उनके साथ रख देने जैसे तथ्यों से स्पष्ट होता है कि हड़प्पावासी मरणोपरांत जीवन में विश्वास करते थे। उल्लेखनीय है कि संभवतः हड़प्पाई लोग शवों के साथ बहुमूल्य वस्तुएँ दफनाने में विश्वास नहीं करते थे।

2. विलासिता की वस्तुओं का पता लगाना-
सामाजिक एवं आर्थिक भिन्नताओं के अस्तित्व का पता लगाने की एक अन्य विधि ‘विलासिता’ की वस्तुओं का पता लगाना है। शवाधानों से उपलब्ध होने वाली पुरावस्तुओं का अध्ययन करके पुरातत्त्वविद उन्हें दो वर्गों अर्थात् उपयोगी और विलास की वस्तुओं में विभक्त कर देते हैं। प्रथम वर्ग अर्थात् उपयोगी वस्तुओं के अंतर्गत दैनिक उपयोग की वस्तुएँ; जैसे–चक्कियाँ, मृभांड, सूइयाँ, झाँवा आदि आती हैं। इन्हें पत्थर अथवा मिट्टी जैसे सामान्य पदार्थों से सरलतापूर्वक बनाया जा सकता था। इस प्रकार की वस्तुएँ सामान्यतः सभी हड़प्पाई पुरास्थलों से प्राप्त हुई हैं। विलासिता की वस्तुओं के अन्तर्गत वे महँगी अथवा दुर्लभ वस्तुएँ सम्मिलित थीं जिनका निर्माण स्थानीय स्तर पर अनुपलब्ध पदार्थों से अथवा जटिल तकनीकों द्वारा किया जाता था।

ऐसी वस्तुएँ मुख्य रूप से हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे महत्त्वपूर्ण नगरों से ही मिली हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हड़प्पाई समाज में विद्यमान विभिन्नताओं का प्रमुख आधार आर्थिक घटक ही रहे होंगे। उदाहरण के लिए, कालीबंगन में मिले साक्ष्य से पता लगता है कि पुरोहित दुर्ग के ऊपरी भाग में रहते थे और निचले भाग में स्थित अग्नि वेदिकाओं पर धार्मिक अनुष्ठान करते थे। इस प्रकार पुरातत्त्वविद हड़प्पाई समाज की सामाजिक-आर्थिक भिन्नताओं का पता लगाने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण बातों जैसे विभिन्न लोगों की सामाजिक स्थिति, आर्थिक स्थिति, नगरों अथवा छोटी बस्तियों में निवास, खान-पान एवं रहन-सहन और शवाधानों से प्राप्त होने वाली बहुमूल्य अथवा सामान्य वस्तुओं आदि पर विशेष रूप से ध्यान देते हैं।

प्रश्न 3. 
क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि हड़प्पा सभ्यता के शहरों की जल-निकास प्रणाली, नगर-योजना की ओर संकेत करती है? अपने उत्तर के कारण बताइए।
अथवा हड़प्पा सभ्यता की जल-निकासी प्रणाली नगर-नियोजन की ओर संकेत करती है।” इस कथन की उदाहरण सहित पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
हड़प्पाई नगरों को स्थापना वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित ढंग से की गई थी। हम इस कथन से पूर्णरूप से सहमत हैं कि हड़प्पा सभ्यता
के नगरों की जल निकास प्रणाली नगर-योजना की ओर संकेत करती है। अपने उत्तर की पुष्टि में हम निम्नलिखित कारण प्रस्तुत कर सकते हैं

  1. प्रत्येक घर में पकी ईंटों से बनी छोटी नालियाँ होती थीं जो स्नानघरों तथा शौचालयों से जुड़ी होती थीं। इनके द्वारा घर का | गंदा पानी पास की गली में बनी हुई मध्य आकार की निकास नालियों तक पहुँच जाता था।
  2. मध्य आकार वाली नालियाँ बड़ी सड़कों के साथ-साथ बने हुए नालों में मिलती थीं। सामान्यतया नालियाँ लगभग 9 इंच
    चौड़ी और एक फुट गहरी होती थीं, किंतु कुछ इससे दुगुनी बड़ी होती थीं।
  3. नालियाँ पकी ईंटों से बनी तथा ढकी होती थीं। उनमें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर हटाने वाले पत्थर लगे होते थे ताकि आवश्यकतानुसार उन्हें हटाकर नालियों की सफाई की जा सके।
  4. ऐसा लगता है कि पहले नालियों के साथ गलियों का निर्माण किया गया था और फिर उनके अगल-बगल घरों को बनाया गया था, क्योंकि घरों की नालियों को गलियों से जोड़ने के लिए प्रत्येक घर की कम-से-कम एक दीवार का गली के साथ सटा होना आवश्यक था।
  5. बड़े नाले ईंटों से अथवा तराशे गए पत्थरों से ढके हुए होते थे। कुछ स्थलों में टोडा-मेहराबदार नाले भी मिले हैं। उनमें से एक लगभग 6 फुटा गहरा है जो संपूर्ण नगर के गंदे पानी को बाहर ले जाता था।
  6. मल-जल निकासी के मुख्य नालों पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर आयताकार हौदियाँ बनी होती थीं। नालियों के मोड़ों पर तिकोनी ईंटों का प्रयोग किया जाता था।
  7. घरों का कूड़ा-करकट नालियों में नहीं अपितु घरों के बाहर रखे गए ढके हुए कूड़ेदानों में डाला जाता था।
  8. जल निकासी प्रणालियाँ केवल बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं थीं। अनेक छोटी बस्तियों में भी इनके अस्तित्व के प्रमाण | मिले हैं। उदाहरण के लिए लोथल में निवास स्थानों का निर्माण कच्ची ईंटों से किया गया था, किंतु नालियाँ पकी ईंटों से बनाई गई थीं।

प्रश्न 4.
हड़प्पा सभ्यता में मनके बनाने के लिए प्रयुक्त पदार्थों की सूची बनाइए। कोई भी एक प्रकार का मनका बनाने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनके बनाने के लिए कई प्रकार के पदार्थ प्रयोग में लाए जाते थे-कार्जीलियन, जैस्पर, स्फटिक, क्वाटर्ज तथा सेलखड़ी जैसे
पत्थर, ताँबा, काँसा तथा सोने जैसी धातुएँ तथा फयॉन्स और पकी मिट्टी आदि। कुछ मनके दो या दो से अधिक पत्थरों को मिलाकर भी बनाए जाते थे। कुछ मनकों पर सोने का टोप होता था। ज्यामितीय आकारों को लिए, भिन्न-भिन्न रंग-रूप देकर उन मनकों को तैयार किया जाता था। मनकों पर अलग-अलग तरह के कृतियाँ और रंगों का इस्तेमाल होता था।

तकनीकी दृष्टि से मनकों पर अलग-अलग तरीकों से कार्य किया जाता था। सेलखड़ी जैसे मुलायम पत्थर से मनके बनाने का काम आसानी से ही हो जाता था। सेलखड़ी के चूर्ण से लेप तैयार करके साँचे में डालकर विभिन्न प्रकार के मनके तैयार किए जाते थे। कठोर या ठोस पत्थरों से मनके बनाने की प्रक्रिया जटिल थी। ऐसे पत्थरों से मात्र ज्यामितीय आकारों के मनके ही बनाए जाते थे। पुरातत्त्वविदों के अनुसार अकीक का लाल रंग एक जटिल प्रक्रिया द्वारा अर्थात् पीले रंग के कच्चे माल और उत्पादन के विभिन्न चरणों में मनकों को आग में पकाकर प्राप्त किया जाता था। सर्वप्रथम बड़े पत्थर को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ा जाता था। उनमें से बारीकी से शल्क निकाले जाते थे फिर मनके बनाए जाते थे। मनकों को अंतिम रूप देने के लिए घिसाई फिर पॉलिश फिर उनमें छेद किए जाते थे।

प्रश्न 5.
दिए गए चित्र को ध्यान से देखिए और उसका वर्णन कीजिए। शव किस प्रकार रखा गया है? उसके समीप कौन-सी वस्तुएँ रखी गई हैं? क्या शरीर पर कोई पुरावस्तुएँ हैं? क्या इनसे कंकाल के लिंग का पता चलता है?
उत्तर:
इस शव को देखने से पता चलता है कि शव को उत्तर-दक्षिण दिशा में रखकर दफनाया गया है। शव के साथ कुछ दैनिक उपयोग की वस्तुएँ रखी गई हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि हड़प्पा निवासी मरणोपरांत जीवन में विश्वास करते थे। शव के पास कुछ बर्तन रखे गए हैं। इनमें से एक पानी का जग है और दूसरे ढके हुए बर्तन में संभवतः खाने की सामग्री रखी गई होगी। शव के पास ही एक छोटी-सी तिपाई दिखाई देती है। इसके ऊपर की प्लेट को देखकर लगता है कि इसे खाना परोसने के लिए रखा गया होगा।

मृत शरीर पर कुछ पुरावस्तुएँ भी दिखाई देती हैं। यद्यपि ये स्पष्ट नहीं हैं। लगता है कि मृत चित्र 1.1: एक हडप्पाई शवाधान ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ शरीर को कुछ आभूषण पहनाए गए होंगे। मृत शरीर की पुरावस्तुओं से उसके लिंग का पता लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए हार, कंगन, भुजबंद, अंगूठी आदि स्त्री-पुरुष दोनों धारणा करते थे, किंतु चूड़ियाँ, करधनी, बाली, बुंदे, नथुनी और पाजेब जैसे आभूषणों का प्रयोग केवल महिलाएँ ही करती थीं।

निन्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)

प्रश्न 6.
मोहनजोदड़ो की कुछ विशिष्टताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मोहनजोदड़ो, सिंधु के लरकाना जिले में स्थापित था। सिंधी भाषा के अनुसार मोहनजोदड़ो का अर्थ है-“मृतकों अथवा प्रेतों का टीला”। यह नाम मोहनजोदड़ो के पतन के बाद इसे दिया गया। 5000 वर्ष पहले यह एक विकसित शहर था। यह सात बार स्थापित होकर पुनः नष्ट हुआ। इस पुरास्थल की खोज हड़प्पा के बाद ही हुई थी। संभवतः हड़प्पा सभ्यता का सर्वाधिक अनोखा पक्ष शहरी केंद्रों का विकास था। ऐसे ही केंद्रों में एक महत्त्वपूर्ण केंद्र मोहनजोदड़ो था। इसकी खुदाई से निम्नलिखित विशिष्टताएँ प्रकट हुई हैं
सुनियोजित नगर

  1. मोहनजोदड़ो एक विशाल शहर था जो 125 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ था। यह शहर दो भागों में विभक्त था। शहर के पश्चिम में एक दुर्ग या किला था और पूर्व में नीचे एक नगर बसा हुआ था।
  2. दुर्ग की संरचनाएँ कच्ची ईंटों के ऊँचे चबूतरे पर बनाई गई थी। इसमें बड़े-बड़े भवन थे, जो संभवतः प्रशासनिक अथवा धार्मिक केंद्रों के रूप में कार्य करते थे।
  3. दुर्ग के चारों ओर ईंटों की दीवार थी, जो दुर्ग को निचले शहर से अलग करती थी। दुर्ग में शासक और शासक वर्ग से संबंधित लोग रहते थे।
  4. निचले शहर का क्षेत्र दुर्ग की अपेक्षा कहीं अधिक बड़ा था। इसमें रिहायशी क्षेत्र होते थे, जिनमें सामान्य जन अर्थात् शिल्पी आदि रहते थे। निचले शहर के चारों ओर भी दीवार बनाई गई थी। निचले शहर में अनेक भवनों को ऊँचे चबूतरों पर बनाया गया था।
  5. नगर में प्रवेश करने के लिए परकोटे अर्थात् बाहरी चारदीवारी में कई बड़े-बड़े प्रवेशद्वार थे।
  6. नगर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में प्रवेश करने के लिए आंतरिक चारदीवारी में प्रवेशद्वार थे।
  7. नगर में अलग-अलग दिशाओं में ऊँची दीवार से घिरे हुए कई सेक्टर थे।
  8. प्रायः सभी बड़े मकानों में रसोईघर, स्नानागार, शौचालय और कुएँ होते थे। सभी बड़े मकानों का नक्शा लगभग एक जैसा था-एक चौरस आँगन और चारों तरफ कई कमरे।
  9. घरों के दरवाजे और खिड़कियाँ प्रायः सड़क की ओर नहीं खुलते थे। बड़े घरों में सामने के दरवाजे के चारों ओर एक कमरा अर्थात् पोल बना दिया जाता था ताकि सामने के मुख्यद्वार से घर के अंदर ताक-झाँक न की जा सके।

सुव्यवस्थित सड़कें एवं नालियाँ
मोहनजोदड़ो की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ इसकी सुव्यवस्थित सड़कें एवं नालियाँ थीं।

  1. सड़कें पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण की तरफ बिछी होती थीं और नगर को अनेक खंडों में विभक्त करती थीं।
  2. सड़कों का निर्माण इस प्रकार किया जाता था कि स्वयं हवा से ही उनकी सफाई होती रहती थी।
  3. मोहनजोदड़ो की सड़कों की चौड़ाई 13.5 फुट से 33 फुट तक थी। नालियाँ प्रायः 9 फुट से 12 फुट तक चौड़ी होती थीं।
  4. नालियाँ पकी ईंटों से बनी तथा ढकी हुई होती थीं। उनमें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर हटाने वाले पत्थर लगे होते थे ताकि आवश्यकतानुसार | नालियों की सफाई की जा सके।
  5. मल-जल की निकासी के लिए मुख्य कनालों पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर आयताकार हौदियाँ बनी होती थीं।
  6. एक टोडा-मेहराबदार नाला संपूर्ण नगर के गंदे पानी को बाहर ले जाता था।

विशाल स्नानागार, अन्नागार एवं भवन

  1. मोहनजोदड़ो का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक भवन स्नानागार है। इसका जलाशय दुर्ग के टीले में है। उत्तम कोटि की पकी ईंटों से बना स्नानागार स्थापत्यकला का सुंदर उदाहरण है। इस संरचना के अनोखेपन तथा दुर्ग क्षेत्र में कई विशिष्ट संरचनाओं के साथ, इसके मिलने से ऐसा लगता है कि इसका प्रयोग धर्मानुष्ठान संबंधी स्नान के लिए किया जाता होगा, जो आज भी भारतीय जनजीवन का आवश्यक अंग है।
  2. मोहनजोदड़ो की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता दुर्ग में मिलने वाला विएल अन्नागार है। इसमें ईंटों से बने सत्ताईस खंड (Blocks) थे, जिनमें प्रकाश के लिए आड़े-तिरछे रोशनदान बने हुए थे। अन्न भंडार के दक्षिण में ईंटों के चबूतरों की कई कतारें थीं। इन चबूतरों में से एक चबूतरे के मध्य भाग में एक बड़ी ओखली का बना निशान मिला है।
  3. मोहनजोदड़ो के दुर्ग क्षेत्र में विशाल स्नानागार की एक तरफ एक लंबा भवन (280 x 78 फुट) मिला है। इतिहासकारों के मतानुसार यह भवन किसी बड़े उच्चाधिकारी का निवास स्थान रहा होगा। महत्त्वपूर्ण भवनों में एक सभाकक्ष भी था, जिसमें पाँच-पाँच ईंटों की ऊँचाई की चार चबूतरों की पंक्तियाँ थीं। ये ऊँचे चबूतरे ईंटों के बने थे और उन पर लकड़ी के खंभे खड़े किए गए थे। इसके पश्चिम की ओर कमरों की एक कतार में एक पुरुष की प्रतिमा बैठी हुई मुद्रा में पाई गई है।

कुशल एवं व्यवस्थित नागरिक प्रबंध-
मोहनजोदड़ो का नागरिक प्रबंध अत्यधिक कुशल एवं व्यवस्थित था। यद्यपि यह कहना कठिन है कि हड़प्पा सभ्यता के शासक कौन थे; संभव है वे राजा रहे हों या पुरोहित अथवा व्यापारी। कांस्यकालीन सभ्यताओं में आर्थिक, धार्मिक एवं प्रशासनिक इकाइयों में कोई स्पष्ट भेद नहीं था। एक ही व्यक्ति प्रधान पुरोहित भी हो सकता था, राजा भी हो सकता था और धनी व्यापारी भी। किंतु इतना अवश्य कि मोहनजोदड़ो का नागरिक प्रबंध कुशल हाथों में था। प्रशासन अत्यधिक कुशल एवं उत्तरदायी था। सुनियोजित नगर, सफाई और जल-निकास की उत्तम व्यवस्था, अच्छी सड़कें, रात्रि के समय प्रकाश की व्यवस्था, यात्रियों की सुविधा के लिए सरायों की व्यवस्था, उन्नत व्यापार, माप-तौल के एकरूप मानक, सांस्कृतिक विकास, विकसित उद्योग-धंधे, संपन्नता आदि सभी इसके प्रबल प्रमाण हैं।

प्रश्न 7.
हड़प्पा सभ्यता में शिल्प उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल की सूची बनाइए और चर्चा कीजिए कि ये किस | प्रकार प्राप्त किए जाते होंगे?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के लोगों की शिल्प तथा उद्योग संबंधी प्रतिभा उच्चकोटि की थी। मिट्टी और धातु के बर्तन बनाना, मूर्तियाँ,
औजार एवं हथियार बनाना, सूत एवं ऊन की कताई, बुनाई एवं रंगाई, आभूषण बनाना, मनके बनाना, लकड़ी का सामान विशेष रूप से कृषि संबंधी उपकरण, बैलगाड़ी तथा नौकाएँ बनाना आदि उनके महत्त्वपूर्ण व्यवसाय थे। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चन्हुदड़ो, लोथल, धौलावीरा, नागेश्वर बालाकोट आदि शिल्प उत्पादन के महत्त्वपूर्ण केंद्र थे। चन्हुदड़ो की छोटी-सी बस्ती (7 हेक्टेयर क्षेत्र में विस्तृत) लगभग पूरी तरह शिल्प उत्पादन में लगी हुई थी।
शिल्प उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चा माल-
विभिन्न प्रकार के शिल्प उत्पादनों के लिए अनेक प्रकार के कच्चे माल की आवश्यकता थी। उदाहरण के लिए, चिकनी मिट्टी, पकी मिट्टी, ताँबा, टिन, काँसा, सोना, चाँदी, शंख, सीपियाँ, कौड़ियाँ, विभिन्न प्रकार के पत्थर; जैसे-अकीक, नीलम, स्फटिक, क्वार्ज, सेलखड़ी आदि, मिट्टी के बर्तन, सुइयाँ, फयान्स, तकलियाँ मनके, सुगंधित पदार्थ, कपास, सूत, ऊन, विभिन्न प्रकार की लकड़ियाँ, हड्डियाँ, घिसाई, पालिश और छेद करने के औजार आदि विभिन्न शिल्प उत्पादनों के लिए आवश्यक थे।
कच्चा माल प्राप्त करने के स्रोत–
विभिन्न शिल्प उत्पादों के लिए आवश्यक कच्चा माल अनेक उपायों द्वारा प्राप्त किया जाता था। कुछ कच्चा माल स्थानीय स्तर पर उपलब्ध था, किंतु कुछ जलोढ़क मैदान के बाहर से मँगवाना पड़ता था। इस प्रकार हड़प्पा सभ्यता के लोग शिल्प उत्पादनों के लिए उपमहाद्वीप और बाहर से कच्चा माल अनेक उपायों द्वारा प्राप्त करते थे।

  1. वस्त्र निर्माण के लिए सूत कपास से प्राप्त किया जाता था। कपास की खेती की जाती थी। ऊनी कपड़ों के निर्माण के लिए ऊन भेड़ों से प्राप्त किया जाता था।
  2. ईंटों, मिट्टी के बर्तनों, मूर्तियों एवं खिलौनों के लिए चिकनी मिट्टी स्थानीय रूप से उपलब्ध हो जाती थी। चोलीस्तान (पाकिस्तान) और बनावली (हरियाणा) से मिलने वाले मिट्टी के हल साक्षी हैं कि वहाँ उत्तम कोटि की चिकनी मिट्टी मिलती थी।
  3. हड्डयाँ विभिन्न पशुओं से प्राप्त की जाती थीं। मछलियों की हड्डियाँ मछुआरों से, पक्षियों की हड्डियाँ तथा जंगली पशुओं | की हड्डियों शिकारियों से अथवा स्वयं शिकार करके प्राप्त की जाती थीं।
  4. लकड़ी के हलों, विभिन्न वस्तुओं, औज़ारों एवं उपकरणों के निर्माण के लिए लकड़ी आस-पास के जंगलों से प्राप्त की | जाती थी। बढ़िया किस्म की लकड़ी मेसोपोटासिया से मँगवाई जाती थी।
  5. सुगंधित द्रव्यों को बनाने के लिए फयान्स जैसे मूल्यवान पदार्थ मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त किए जाते थे।
  6. हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने उन-उन स्थानों में अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं जिन-जिन स्थानों से आवश्यक कच्चा माल सरलतापूर्वक उपलब्ध हो सकता था। उदाहरण के लिए, इन्होंने नागेश्वर और बालाकोट में, जहाँ से शंख सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता था, अपनी बस्तियाँ स्थापित की थीं।
  7. वे कार्नीलियन मनके गुजरात से, सीसा दक्षिण भारत से और लाजवर्द मणियाँ कश्मीर और अफगानिस्तान से लेते थे।
  8. उन्होंने सुदूर अफगानिस्तान में शोर्तुघई में अपनी बस्ती स्थापित की क्योंकि यह स्थान नीले रंग के पत्थर यानी लाजवर्द मणि के सबसे अच्छे स्रोत के निकट था। इसी प्रकार लोथल जो कार्नीलियन (गुजरात में भडौंच), सेलखड़ी (दक्षिणी राजस्थान और उत्तरी गुजरात से) एवं धातु (राजस्थान से) के स्रोतों के निकट स्थित था।
  9. सिंधु सभ्यता के लोग कच्चे माल वाले क्षेत्रों में अभियान भेजकर भी वहाँ से कच्चा माल प्राप्त करते थे। इन अभियानों का प्रमुख उद्देश्य स्थानीय लोगों के साथ संपर्क स्थापित करना होता था। वे अभियान भेजकर राजस्थान के खेतड़ी क्षेत्र से ताँबा और दक्षिण भारत से सोना प्राप्त करते थे।
  10. हड़प्पाई लोग संभवतः अरब प्रायद्वीप के दक्षिण-पश्चिमी छोर पर स्थित ओमान से भी ताँबा मँगवाते थे। हड़प्पाई पुरावस्तुओं और ओमानी ताँबे दोनों में निकल के अंशों का मिलना दोनों के साझा उद्भव का परिचायक है। व्यापार संभवतः वस्तु विनिमय के आधार पर किया जाता था। वे बड़ी-बड़ी नावों एवं बैलगाड़ियों पर अपने तैयार माल को पड़ोस के इलाकों में ले जाते थे तथा उनके बदले धातुएँ तथा अन्य आवश्यक सामान ले आते थे। इन क्षेत्रों से जब-तब मिलने वाली हड़प्पाई पुरावस्तुओं से ऐसे संपर्को का संकेत मिलता है।

प्रश्न 8.
चर्चा कीजिए कि पुरातत्वविद किस प्रकार अतीत का पुनर्निर्माण करते हैं?
उत्तर:
जैसा कि हम देखते हैं कि विद्वानों को हड़प्पा में पाई गई लिपियों को पढ़ने में सफलता नहीं मिली। ऐसे में पुरातत्वविदों के लिए
पुरावस्तुएँ ही हड़प्पा संस्कृति के पुनर्निर्माण में सहायक रही हैं; जैसे-मिट्टी के बर्तन, औजार, आभूषण, धातु, मिट्टी और पत्थरों की घरेलू वस्तुएँ आदि। कुछ अजलनशील कपड़ा, चमड़ा, लकड़ी और रस्सी आदि लुप्त हो चुके हैं। कुछ चीजें ही बचीं हैं; जैसे–पत्थर, चिकनी मिट्टी, धातु और टेराकोटा आदि। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि शिल्पियों द्वारा कार्य करते हुए कुछ प्रस्तर पिंड और अपूर्ण वस्तुओं को उत्पादन के स्थान पर काटते या बनाते समय फेंक दिया जाता था, जिन्हें पुन: निर्मित नहीं किया जा सकता था। यही पुरावस्तुएँ हमारे लिए उपयोगी साबित हुई हैं। नहीं तो हमें संस्कृति के महत्त्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी अधूरी ही प्राप्त होती।। पुरातत्वविदों ने उन्हीं पुरावस्तुओं के आधार पर मानव जाति के क्रमिक विकास को चिहनित किया है। उनका वर्गीकरण धातु, मिट्टी, पत्थर, हड्डियों आदि में किया गया है।

पुरातत्वविदों ने दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रभाव मौसम और उन तत्कालीन कारणों को माना जो उन्हें आभूषणों और औज़ारों आदि पर दिखाई दिए। पुरातत्वविद पुरा वस्तुओं की पहचान एक विशेष प्रकार की प्रक्रिया द्वारा करते हैं। जैसे किसी संस्कृति विशेष में रहने वाले लोगों के बीच क्या सामाजिक और आर्थिक भिन्नताएँ थीं। जैसे हड़प्पा सभ्यता कालीन मिस्र के पिरामिडों में कुछ राजकीय शवाधान प्राप्त हुए, जहाँ बहुत बड़ी मात्रा में धन-संपत्ति दफनाई गई थी। पुरातत्वविदों ने कुछ घटनाओं को अनुमानित भी किया है। उदाहरणस्वरूप पुरातत्वविदों ने हड़प्पाई धर्म को अनुमान के आधार पर आँका है। अर्थात् कुछ विद्वान वर्तमान से अतीत की ओर बढ़ते हैं। कुछ नीतियाँ पात्रों के संबंध में और पत्थर की चक्कियों के बारे में युक्तिसंगत रही हैं तो कुछ धार्मिक प्रतीकों के संबंध में शंकाग्रस्त रहीं; जैसे-कई मुहरों पर रुद्र के चित्र अंकित हैं। पुरावस्तुओं की उपयोगिता की समझ हम आधुनिक समय में प्रयुक्त वस्तुओं से उनकी समानता के आधार पर ही लगाते हैं।

उदाहरणस्वरूप कुछ हड़प्पा स्थलों पर मिले कपास के टुकड़ों के विषय में जानने के लिए हमें अप्रत्यक्ष साक्ष्यों जैसे मूर्तियों के चित्रण पर निर्भर रहना पड़ता है तथा कुछ वस्तुएँ पुरातत्वविदों को अपरिचित लगीं तो उन्होंने उन्हें धार्मिक महत्त्व की समझ ली। कुछ मुहरों पर भी अनुष्ठान के दृश्य, पेड़-पौधे अर्थात् प्रकृति की पूजा के संकेत मिलते हैं तथा पत्थर की शंक्वाकार वस्तुओं को लिंग के रूप में दर्शाया गया है। पुरातत्त्वविदों ने कोटदीजी सिंधु नदी के तट पर 39 फीट नीचे मानव जीवनवृत्ति के अवशेष प्राप्त किए हैं। कौशांबी के निकट चावल और हड़प्पाकालीन मिट्टी के बर्तन मिले हैं। लोथल से बाँट, चूड़ियाँ और पत्थर के आभूषण भी प्राप्त हुए हैं। काले और लाल रंग की मिट्टी के बर्तन, आकृतियाँ और अवशेष मिले हैं। पुरातत्वविदों ने विभिन्न वैज्ञानिकों की मदद से मोहनजोदड़ो और हड़प्पा पर कार्य किए हैं। कई अन्वेषण, व्याख्या और विश्लेषण से निष्कर्ष निकाले हैं, जिनमें कुछ असफल भी रहे।

प्रश्न 9.
हड़प्पाई समाज में शासकों द्वारा किए जाने वाले संभावित कार्यों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
हडप्पा सभ्यता के राजनैतिक संगठन के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी कहना कठिन है। हमें ज्ञात नहीं है कि हड़प्पा के शासक कौन थे; संभव है वे राजा रहे हों या पुरोहित अथवा व्यापारी। कांस्यकालीन सभ्यताओं में आर्थिक, धार्मिक एवं प्रशासनिक इकाइयों में कोई स्पष्ट भेद नहीं था। एक ही व्यक्ति प्रधान पुरोहित भी हो सकता था, राजा भी हो सकता था और धनी व्यापरी भी। हंटर महोदय यहाँ के शासन को जनतंत्रात्मक शासन मानते हैं किंतु, पिग्गाट और व्हीलर के मतानुसार सुमेर एवं अक्कड़ के समान हड़प्पा में भी पुरोहित राजा शासन करते थे। कुछ विद्वानों के अनुसार हड़प्पा साम्राज्य पर दो राजधानियों-हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से शासन किया जाता था।

कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार संभवत: संपूर्ण क्षेत्र अनेक राज्यों, रजवाड़ों में विभक्त था और उनमें से प्रत्येक की एक अलग राजधानी थी; जैसे-सिंधु में मोहनजोदड़ो, पंजाब में हड़प्पा, राजस्थान में कालीबंगन और गुजरात में लोथल। कुछ अन्य विद्वानों के मतानुसार हड़प्पा सभ्यता में अनेक राज्यों का अस्तित्व नहीं था अपितु यह एक राजा के नेतृत्व में एक ही राज्य था। हड़प्पा सभ्यता के शासन का स्वरूप चाहे जो भी हो, इतना तो निश्चित है कि प्रशासन अत्यधिक कुशल एवं उत्तरदायी था। हड़प्पाई समाज में शासकों द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों को किया जाता होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि शासक राज्य में शांति व्यवस्था को बनाए रखने तथा आक्रमणकारियों से अपने राज्य की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी होता था। हड़प्पा सभ्यता के सुनियोजित नगर, सफाई तथा जल निकास की उत्तम व्यवस्था, अच्छी सड़कें, उन्नत व्यापार, माप-तौल के एकरूप मानक, सांस्कृतिक विकास, विकसित उद्योग-धंधे, संपन्नता आदि सभी इस तथ्य के प्रबल प्रमाण हैं कि हड़प्पा के शासक प्रशासनिक कार्यों में विशेष रुचि लेते थे। संभवतः हड़प्पा के शहरों की योजना में भी राज्य का महत्त्वपूर्ण भाग रहा होगा।

इतिहासकारों का विचार है कि प्राचीन विश्व में जहाँ-जहाँ नियोजित वस्तुओं के प्रमाण मिलते हैं वहाँ-वहाँ इस बात का पता चलती है कि सड़कों की योजना का विकास धीरे-धीरे नहीं हुआ अपितु एक विशेष ऐतिहासिक समय में इसका निर्माण हुआ और अनेक विषयों में बस्ती को फिर से बसाने के कारण ऐसा किया गया। इतिहासकारों का विचार है कि हड़प्पा के शहरों की ईंटों का एक जैसा आकार या तो ‘कड़े प्रशासनिक नियंत्रण के कारण था या इसलिए कि लोगों को व्यापक पैमाने पर ईंट बनाने । के लिए नियुक्त किया गया होगा। इसी प्रकार, हड़प्पा के विभिन्न स्थानों पर एक ही प्रकार के ताँबे, काँसे और मिट्टी के बर्तन मिलने से भी यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है। इसी प्रकार यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि विभिन्न नगरों की योजना भी राज्य द्वारा बनाई गई होगी और विभिन्न स्थलों पर सड़कों और नालियों के निर्माण का कार्य भी राज्य ने किया होगा। उल्लेखनीय है कि हड़प्पा के शहरी केंद्रों की योजना का अध्ययन करने पर वहाँ की नागरिक व्यवस्थाओं की देख-रेख और एक विशाल जल और निकास व्यवस्था का पता चलता है। निकास के लिए प्रत्येक गली में नाली बनी होती थी।

गली में बनी यह नाली पूरे शहर नियोजन का एक भाग थी। घर अपने-अपने ढंग से अलग-अलग इस कार्य को नहीं कर सकते थे। इसका स्पष्ट तात्पर्य है कि प्रशासन द्वारा स्वयं सभी कार्यों को नियंत्रित किया जाता था तथा इनकी देख-रेख का कार्य किया जाता था। ऐसा लगता है कि शिल्प उत्पादन और वितरण का कार्य भी शासकों द्वारा नियंत्रित होता था; यही कारण था कि कुछ उद्योग विशेष रूप से कम वजन वाले कच्चे माल अथवा ईंधन के स्रोत के निकट स्थित होते थे और कुछ वहाँ स्थित थे जहाँ उनकी खपत सबसे अधिक थी। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे नगरों में विशाल अन्नागारों का मिलना इसका प्रबल प्रमाण है कि हड़प्पाई शासकों को सदैव प्रजाहित की चिंता रहती थी, इसीलिए अनाजे को विशाल अन्नागारों में सुरक्षित रख लिया जाता था ताकि किसी भावी आपात स्थिति में उसका प्रयोग किया जा सके।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
पाठ्यपुस्तक के मानचित्र 1 में उन स्थलों पर पेंसिल से घेरा बनाइए जहाँ से कृषि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। उन स्थलों के आगे क्रास का निशान बनाइए जहाँ उत्पादन के साक्ष्य मिले हैं। उन स्थलों पर ‘क’ लिखिए जहाँ कच्चा माल मिलता था।
उत्तर:
स्वयं करें।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
पता कीजिए कि क्या आपके शहर में कोई संग्रहालय है? उनमें से एक को देखने जाइए, और किन्हीं दस वस्तुओं पर रिपोर्ट लिखिए और बताइए कि वे कितनी पुरानी हैं? वे कहाँ मिली थीं, और आपके अनुसार उन्हें क्यों प्रदर्शित किया गया है?
उत्तर:
हाँ, हमारे शहर में इंडिया गेट के पास राष्ट्रीय संग्रहालय है, वहाँ हमने जिन वस्तुओं को देखी उनमें से दस वस्तुओं के बारे में रिपोर्ट निम्नलिखित हैवस्तुएँ समय/काल स्थान प्रदर्शन का कारण
NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 1 (Hindi Medium) 1

प्रश्न 12.
वर्तमान समय में निर्मित और प्रयुक्त पत्थर, धातु और मिट्टी की दस वस्तुओं के रेखाचित्र एकत्रित कीजिए और उनकी तुलना अध्याय में दिए गए हड़प्पा सभ्यता के चित्रों से कीजिए, तथा आपके द्वारा उनमें पाई गई समानताओं और भिन्नताओं पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
स्वयं करें।

Hope given NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 1 are helpful to complete your homework.

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