Author name: Raju

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 5 Through the Eyes of Travellers Perceptions of Society (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 5 Through the Eyes of Travellers Perceptions of Society (Hindi Medium)

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अभ्यास-प्रश्न
(NCERT Textbook Questions Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)।

प्रश्न 1.
‘किताब-उल-हिन्द’ पर एक लेख लिखिए।
उत्तर:
अरबी में लिखी गई अल-बिरूनी की कृति ‘किताब-उल-हिन्द’ की भाषा सरल और स्पष्ट है। यह एक विस्तृत ग्रंथ है जो धर्म और दर्शन, त्योहारों, खगोल-विज्ञान, कीमिया, रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं, सामाजिक-जीवन, भार-तौल तथा मापन विधियों, मूर्तिकला, कानून, मापतंत्र विज्ञान आदि विषयों के आधार पर अस्सी अध्यायों में विभाजित है। सामान्यतः (हालाँकि हमेशा नहीं) अल-बिरूनी ने प्रत्येक अध्याय में एक विशिष्ट शैली का प्रयोग किया जिसमें आरंभ में एक प्रश्न होता था, फिर संस्कृतवादी परंपराओं पर आधारित वर्णन और अंत में अन्य संस्कृतियों के साथ एक तुलना।

आज के कुछ विद्वानों को तर्क है कि इस लगभग ज्यामितीय संरचना, जो अपनी स्पष्टता तथा पूर्वानुमेयता के लिए उल्लेखनीय है, का एक मुख्य कारण अल-बिरूनी का गणित की ओर झुकाव था। अल-बिरूनी जिसने लेखन में भी अरबी भाषा का प्रयोग किया था, ने संभवतः अपनी कृतियाँ उपमहाद्वीप के सीमांत क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए लिखी थीं। वह संस्कृत, पाली तथा प्राकृत ग्रंथों के अरबी भाषा में अनुवादों तथा रूपांतरणों से परिचित था। इनमें दंतकथाओं से लेकर खगोल विज्ञान और चिकित्सा संबंधी कृतियाँ सभी शामिल थीं, पर साथ ही इन ग्रंथों की लेखन-सामग्री शैली के विषय में उसका दृष्टिकोण आलोचनात्मक था और निश्चित रूप से वह उनमें सुधार करना चाहता था।

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प्रश्न 2.
इब्न बतूता और बर्नियर ने जिन दृष्टिकोणों से भारत में अपनी यात्राओं के वृत्तांत लिखे थे, उनकी तुलना कीजिए तथा अंतर बताइए।
उत्तर:
जहाँ इन बतूता ने हर उस चीज़ का वर्णन करने का निश्चय किया जिसने उसे अपने अनूठेपन के कारण प्रभावित किया और उत्सुक किया, वहीं बर्नियर एक भिन्न बुद्धिजीवी परंपरा से संबंधित था। उसने भारत में जो भी देखा, वह उसकी सामान्य रूप से यूरोप और विशेष रूप से फ्रांस में व्याप्त स्थितियों से तुलना तथा भिन्नता को उजागर करने के प्रति अधिक चिंतित था, विशेष रूप से वे स्थितियाँ जिन्हें उसने अवसादकारी पाया। उसका विचार नीति-निर्माताओं तथा बुद्धिजीवी वर्ग को प्रभावित करने का था ताकि वे ऐसे निर्णय ले सकें जिन्हें वह ‘सही’ मानता था। बर्नियर के ग्रंथ ‘ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर’ अपने गहन प्रेक्षण, आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि तथा गहन चिंतन के लिए उल्लेखनीय है।

उसके वृत्तांत में की गई चर्चाओं में मुग़लों के इतिहास को एक प्रकार के वैश्विक ढाँचे में स्थापित करने का प्रयास किया गया। वह निरंतर मुगलकालीन भारत की तुलना तत्कालीन यूरोप से करता रहा, सामान्यतया यूरोप की श्रेष्ठता को रेखांकित करते हुए। उसका भारत का चित्रण द्वि-विपरीतता के नमूने पर आधारित है, जहाँ भारत को यूरोप के प्रतिलोम के रूप में दिखाया गया है, या फिर यूरोप का ‘विपरीत’ जैसा कि कुछ इतिहासकार परिभाषित करते हैं। उसने जो भिन्नताएँ महसूस कीं, उन्हें भी पदानुक्रम के अनुसार क्रमबद्ध किया, जिससे भारत, पश्चिमी दुनिया को निम्न कोटि का प्रतीत हो।

प्रश्न 3.
बर्नियर के वृत्तांत से उभरने वाले शहरी केंद्रों के चित्र पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
बर्नियर मुगलकालीन शहरों को ‘शिविर नगर’ कहता है, जिससे उसका आशय उन नगरों से था जो अपने अस्तित्व और बने रहने के लिए राजकीय शिविर पर निर्भर थे। उसका विश्वास था कि ये राजकीय दरबार के आगमन के साथ अस्तित्व में आते थे और इसके कहीं और चले जाने के बाद तेजी से पतनोन्मुख हो जाते थे। उसने यह भी सुझाया कि इनकी सामाजिक और आर्थिक नींव व्यवहार्य नहीं होती थी और ये राजकीय प्रश्रय पर आश्रित रहते थे।

वास्तव में, सभी प्रकार के नगर अस्तित्व में थे—
उत्पादन केंद्र, व्यापारिक नगर, बंदरगाह नगर, धार्मिक केंद्र, तीर्थ स्थान आदि। इनका अस्तित्व समृद्ध व्यापारिक समुदायों तथा व्यावसायिक वर्गों के अस्तित्व का सूचक है। अहमदाबाद जैसे शहरी केंद्रों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे नगर सेठ कहा जाता था। अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग;, जैसे-चिकित्सक (हकीम तथा वैद्य), अध्यापक (पंडित या मुल्ला), अधिवक्ता (वकील), चित्रकार, वास्तुविद्, संगीतकार, सुलेखक आदि सम्मिलित थे।

प्रश्न 4.
इब्न बतूता द्वारा दास प्रथा के संबंध में दिए गए साक्ष्यों का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
इब्न बतूता के अनुसार, बाजारों में दासे किसी भी अन्य वस्तु की तरह खुलेआम बेचे जाते थे और नियमित रूप से भेंटस्वरूप एक-दूसरे को दिए जाते थे। जब इब्न बतूता सिंध पहुँचा तो उसने सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के लिए भेंटस्वरूप ‘घोड़े, ऊँट तथा दास’ खरीदे। जब वह मुल्तान पहुँचा तो उसने गवर्नर को ‘किशमिश बादाम के साथ एक दास और घोड़ा’ भेंट के रूप में दिए। इब्न बतूता बताता है कि मुहम्मद-बिन-तुगलक नसीरुद्दीन नामक धर्मोपदेशक के प्रवचन से इतना प्रसन्न हुआ कि उसे ‘एक लाख टके (मुद्रा) तथा दो सौ दास’ दे दिए। इब्न बतूता के विवरण से प्रतीत होता है कि दासों में काफी विभेद था। सुल्तान की सेवा में कार्यरत कुछ दासियाँ संगीत और गायन में निपुण थीं।

सुल्तान अपने अमीरों पर नज़र रखने के लिए दासियों को भी नियुक्त करता था। दासों को सामान्यतः घरेलू श्रम के लिए ही इस्तेमाल किया जाता था, और इब्न बतूता ने इनकी सेवाओं को, पालकी या डोले में पुरुषों और महिलाओं को ले जाने में विशेष रूप से अपरिहार्य पाया। दासों की कीमत, विशेष रूप से उन दासियों की, जिनकी आवश्यकता घरेलू श्रम के लिए थी, बहुत कम होती थी और अधिकांश परिवार जो उन्हें रख पाने में समर्थ थे, कम-से-कम एक या दो तो रखते ही थे।

प्रश्न 5.
सती प्रथा के कौन-से तत्वों ने बर्नियर का ध्यान अपनी ओर खींचा?
उत्तर:
उल्लेखनीय है कि यूरोपीय यात्रियों एवं लेखकों ने उन बातों का विस्तृत वर्णन करने में अधिक रुचि दिखाई थी, जो उन्हें
आश्चर्यजनक अथवा यूरोपीय समाजों से भिन्न दृष्टिगोचर हुई थीं। महिलाओं से किए जाने वाले व्यवहार को पूर्वी और पश्चिमी समाजों के मध्य भिन्नता का एक महत्त्वपूर्ण परिचायक समझा जाता था। अत: बर्नियर भारत में प्रचलित सती प्रथा के प्रति अत्यधिक आकर्षित हुआ और उसने इसके वर्णन को अपने वृत्तान्त का एक महत्त्वपूर्ण भाग बनाया। सती प्रथा मध्यकालीन हिन्दू समाज में व्याप्त कुप्रथाओं में सर्वाधिक घृणित प्रथा थी। ‘सती’ शब्द का अर्थ है-‘पतिव्रता और चरित्रवती स्त्री’, किंतु सामान्यतया इसका अर्थ पत्नी के अपने मृत पति के शरीर के साथ जल जाने की प्रथा से लिया जाता था। बर्नियर ने लिखा है कि कुछ महिलाएँ स्वेच्छापूर्वक खुशी-खुशी अपने पति के शव के साथ सती हो जाती थीं।

किंतु अधिकांश को ऐसा करने के लिए विवश कर दिया जाता था। लाहौर में एक बालिका के सती होने की घटना का अत्यधिक मार्मिक विवरण देते हुए उसने लिखा है, “लाहौर में मैंने एक बहुत ही सुन्दर अल्पवयस्क विधवा जिसकी आयु मेरे विचार में बाहर वर्ष से अधिक नहीं थी, की बलि होते देखी। उस भयानक नर्क की ओर जाते हुए वह असहाय छोटी बच्ची जीवित से अधिक मृत प्रतीत हो रही थी; उसके मस्तिष्क की व्यथा का वर्णन नहीं किया जा सकता; वह काँपते हुए बुरी तरह से रो रही थी; लेकिन तीन-चार ब्राह्मण, एक बूढ़ी औरत, जिसने उसे अपनी आस्तीन के नीचे दबाया हुआ था, की सहायता से उस अनिच्छुक पीड़िता को घातक स्थल की ओर ले गए।

उसे लकड़ियों पर बैठाया; उसके हाथ-पाँव बाँध दिए ताकि वह भाग न जाए और इस स्थिति में उस मासूम प्राणी को जिन्दा जला दिया गया। मैं अपनी भावनाओं को दबाने में असमर्थ था….” इस विवरण से स्पष्ट होता है कि सती प्रथा के अन्तर्गत सती होने वाली महिलाओं की अल्पवयस्कता, अनीच्छा, व्यथा, विवशता एवं असहायता जैसे तत्वों ने बर्नियर का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया था।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
जाति व्यवस्था के संबंध में अल-बिरूनी की व्याख्या पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
सुप्रसिद्ध अरब लेखक अल-बिरूनी ने भारत के विषय में अपनी विभिन्न पुस्तकों में लिखा, जिनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान ।
‘किताब-उल-हिन्द’  का है, जिसे ‘तहकीक-ए-हिन्द’ के नाम से भी जाना जाता है। अल-बिरूनी ने भारत की सामाजिक दशा, रीति-रिवाजों, भारतीयों के खान-पान, वेशभूषा, उत्सव त्योहार, आमोद-प्रमोद आदि के विषय में विस्तारपूर्वक लिखा है।

जाति व्यवस्था :
जाति व्यवस्था का वर्णन करते हुए अल-बिरूनी ने लिखा है, “सबसे ऊँची जाति ब्राह्मणों की है, जिनके विषय में हिन्दुओं के ग्रंथ हमें बताते हैं कि वे ब्रह्मा के सिर से उत्पन्न हुए थे और क्योंकि ब्रह्मा प्रकृति नामक शक्ति का ही दूसरा नाम है और सिर… शरीर का सबसे ऊपरी भाग है, इसलिए ब्राह्मण पूरी प्रजाति के सबसे चुनिंदा भाग हैं। इसी कारण से हिन्दू उन्हें मानव जाति में सबसे उत्तम मानते हैं।

अगली जाति क्षत्रियों की है जिनका सृजन ऐसा कहा जाता है, ब्रह्मा के कन्धों और हाथों से हुआ था। उनका दर्जा ब्राह्मणों से अधिक नीचे नहीं है। उनके पश्चात् वैश्य आते हैं, जिनका उद्भव ब्रह्मा की जंघाओं से हुआ था। शूद्र, जिनका सृजन चरणों से हुआ था। अंतिम दो वर्गों के बीच अधिक अंतर नहीं है। किंतु इन वर्गों के बीच भिन्नता होने पर भी ये एक साथ एक ही शहरों और गाँवों में रहते हैं; समान घरों और आवासों में मिल-जुलकर।

जाति व्यवस्था की तुलना प्राचीन फारस की सामाजिक व्यवस्था से
अल-बिरूनी ने भारत में विद्यमान जाति व्यवस्था को अन्य समुदायों में प्रतिरूपों की खोज के द्वारा समझने का प्रयास किया। उसने इस व्यवस्था की व्याख्या करने में भी अन्य समुदायों के प्रतिरूपों का आश्रय लिया। उसने भारत में विद्यमान वर्ण-व्यवस्था की तुलना प्राचीन फारस की सामाजिक व्यवस्था से करते हुए लिखा कि प्राचीन फारस के समाज में भी घुड़सवार एवं शासक वर्ग; भिक्षु, आनुष्ठानिक पुरोहित और चिकित्सक; खगोलशास्त्री एवं अन्य वैज्ञानिक और अंत में कृषक एवं शिल्पकार, ये चार वर्ग अस्तित्व में थे। इस प्रकार, अल-बिरूनी यह स्पष्ट कर देना चाहता था कि ये सामाजिक वर्ग केवल भारत तक ही सीमित नहीं थे। इसके साथ-ही-साथ अल-बिरूनी ने यह भी स्पष्ट किया कि इस्लाम में इस प्रकार का कोई वर्ग विभाजन नहीं था; सामाजिक दृष्टि से सभी लोगों को समान समझा जाता था; उनमें भिन्नताएँ केवल धार्मिकता के पालन के आधार पर विद्यमान थीं।

अपवित्रता की मान्यता को अस्वीकार
उल्लेखनीय है कि अल-बिरूनी ने जाति व्यवस्था के संबंध में ब्राह्मणवादी व्याख्या को तो स्वीकार कर लिया, किंतु वह अपवित्रता की मान्यता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुआ। उसकी मान्यता थी कि प्रत्येक वह वस्तु जो अपवित्र हो जाती है, अपनी पवित्रता की मौलिक स्थिति को पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न करती है और इसमें उसे सफलता भी प्राप्त होती है। उदाहरण देते हुए उसने लिखा कि सूर्य हवा को शुद्ध बनाता है और समुद्र में विद्यमान नमक पानी को गन्दा होने से रक्षा करता है। उसने अपने तर्क पर बल देते हुए कहा कि ऐसा न होने की स्थिति में पृथ्वी पर जीवन सम्भव नहीं हो पाता। उसका विचार था कि जाति व्यवस्था में विद्यमान अपवित्रता की अवधारणा प्रकृति के नियमों के अनुकूल नहीं थी।

मूल्यांकन
इस प्रकार, यह स्पष्ट हो जाता है कि अल-बिरूनी के जाति व्यवस्था संबंधी विवरण पर उसके संस्कृत ग्रंथों के गहन अध्ययन की स्पष्ट छाप थी। हमें याद रखना चाहिए कि इन ग्रंथों में जाति व्यवस्था का संचालन करने वाले नियमों का प्रतिपादन ब्राह्मणों के दृष्टिकोण से किया गया था। वास्तविक जीवन में इस व्यवस्था के नियमों का पालन न तो इतनी कठोरता से किया जाता था और न ही ऐसा किया जाना संभव था। उल्लेखनीय है कि अंत्यज (व्यवस्था से परे) हालाँकि वर्ण-व्यवस्था के दायरे से बाहर थे, किंतु उनसे किसानों एवं जमींदारों लिए सस्ता श्रम उपलब्ध कराने की अपेक्षा की जाती थी। इस प्रकार प्रायः सामाजिक प्रताड़ना के शिकार होते हुए भी वे आर्थिक तंत्र एक भाग थे।

प्रश्न 7.
क्या आपको लगता है कि समकालीन शहरी केंद्रों में जीवन-शैली की सही जानकारी प्राप्त करने में इन बतूता का वृत्तांत सहायक है? अपने उत्तर के कारण दीजिए।
उत्तर:
इब्न बतूता ने उपमहाद्वीप के शहरों को उन लोगों के लिए व्यापक अवसरों से भरपूर पाया जिनके पास आवश्यक इच्छा, साधन
तथा कौशल था। ये शहर घनी आबादी वाले तथा समृद्ध थे सिवाय कभी-कभी युद्धों तथा अभियानों से होने वाले विध्वंस के। इब्न बतूता के वृत्तांत से ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश शहरों में भीड़-भाड़ वाली सड़कें तथा चमक-दमक वाले रंगीन बाज़ार थे जो विविध प्रकार की वस्तुओं से भरे रहते थे। इब्न बतूता दिल्ली को एक बड़ा शहर, विशाल आबादी वाला तथा भारत में सबसे बड़ा बताता है। दौलताबाद (महाराष्ट्र में) भी कम नहीं था। वह आकार में दिल्ली को चुनौती देता था। वस्तुतः इब्न बतूता की शहरों की समृद्धि का वर्णन करने में अधिक रुचि नहीं थी। उसके अनुसार, कृषि का अधिशेष उत्पादन ही वह मूलभूत आधार था, जिसने शहरी जीवन-शैली को गम्भीर रूप से प्रभावित किया।

अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि इन बतूता का वृत्तान्त समकालीन शहरी जीवन-शैली की सही जानकारी देने में हमारी सहायता करता है। जब 19वीं शताब्दी में इब्न बतूता दिल्ली आया था, उस समय तक पूरा भारतीय महाद्वीप एक ऐसे वैश्विक संचार तंत्र का हिस्सा बन चुका था जो पूर्व में चीन से लेकर पश्चिम में उत्तर-पश्चिमी अफ्रीका तथा यूरोप तक फैला हुआ था। इब्न बतूता ने स्वयं इन क्षेत्रों की यात्राएँ कीं, विद्वानों एवं शासकों के साथ समय बिताया तथा शहरी केंद्रों की विश्ववादी संस्कृति को काफी नजदीक से देखा और समझा। इन्हीं अनुभवों एवं ज्ञान के आधार पर उसने भारतीय शहरी जीवन-शैली की तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया जो अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है।

इब्न बतूता ने लिखा है कि भारतीय माल की मध्य और दक्षिण-पूर्व एशिया में बड़ी माँग थी जिससे शिल्पकारों तथा व्यापारियों को भारी मुनाफा होता था। भारतीय कपड़ों, विशेष रूप से सूती कपड़ा, महीने मखमल, रेशम, जरी तथा साटन की अत्यधिक माँग थी। महीन मखमल की कई किस्में इतनी महँगी थीं कि उन्हें अमीर वर्ग या बहुत धनाढ्य लोग ही पहन सकते थे। इस प्रकार कृषि, विश्ववादी संस्कृति तथा व्यापार ने समकालीन शहरी केंद्रों की जीवन-शैली में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया था।

प्रश्न 8.
चर्चा कीजिए कि बर्नियर का वृत्तांत किस सीमा तक इतिहासकारों को समकालीन ग्रामीण समाज को पुनर्निर्मित करने में सक्षम करता है?
उत्तर:
बर्नियर के अनुसार भारत और यूरोप के बीच मूल भिन्नताओं में से एक भारत में निजी भू-स्वामित्व का अभाव था। उसका निजी स्वामित्व के गुणों में दृढ़ विश्वास था और उसने भूमि पर राजकीय स्वामित्व को राज्य तथा उसके निवासियों, दोनों के लिए हानिकारक माना। उसे यह लगा कि मुगल साम्राज्य में सम्राट सारी भूमि का स्वामी था जो इसे अपने अमीरों के बीच बाँटता था, जिससे अर्थव्यवस्था और समाज के लिए अनर्थकारी परिणाम सामने आते थे। इस प्रकार का अवबोधन बर्नियर तक ही सीमित नहीं था बल्कि सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी के अधिकांश यात्रियों के वृत्तांतों में मिलता है। राजकीय भू-स्वामित्व के कारण बर्नियर तर्क देता है कि भू-धारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे।

इसलिए वे उत्पादन के स्तर को बनाए रखने और उसमें बढ़ोत्तरी के दिए दूरगामी निवेश के प्रति उदासीन थे। इस प्रकार निजी भू-स्वामित्व के अभाव ने ‘बेहतर’ भू-धारकों के वर्ग के उदय (जैसा कि पश्चिमी यूरोप में) को रोका जो भूमि के रख-रखाव व बेहतरी के प्रति सजग रहते। इसी के चलते कृषि का समान रूप से विनाश, किसानों का उत्पीड़न तथा समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवरत पतन की स्थिति उत्पन्न हुई है, सिवाय शासक वर्ग के। बर्नियर भारतीय समाज को दरिद्र लोगों के समरूप जनसमूह से बना वर्णित करता है, जो एक बहुत अमीर तथा शक्तिशाली शासक वर्ग, जो अल्पसंख्यक होते हैं, के द्वारा अधीन बनाया जाता है।

गरीबों में सबसे गरीब तथा अमीरों में सबसे अमीर व्यक्ति के बीच नाममात्र का भी कोई सामाजिक समूह या वर्ग नहीं था। बर्नियर बहुत विश्वास से कहता है, “भारत में मध्य की स्थिति के लोग नहीं हैं।” बर्नियर के विवरणों ने अठाहरवीं शताब्दी के पश्चिमी विचारकों को काफी प्रभावित किया। उदाहरण के लिए, फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू ने उसके वृत्तांत का प्रयोग प्राच्य निरंकुशवाद के सिद्धांत को विकसित करने में किया, जिसके अनुसार एशिया में शासक अपनी प्रजा के ऊपर निर्बाध प्रभुत्व का उपभोग करते थे। प्रजा को दासता और गरीबी की स्थितियों में रखा जाता था। इस तर्क का आधार यह था कि सारी भूमि पर राजा का स्वामित्व होता था तथा निजी संपत्ति अस्तित्व में नहीं थी।

इस दृष्टिकोण के अनुसार राजा और उसके अमीर वर्ग को छोड़कर प्रत्येक व्यक्ति मुश्किल से गुजर-बसर कर पाता था। कार्ल मार्क्स ने यह तर्क दिया कि भारत तथा अन्य एशियाई देशों में उपनिवेशवाद से पहले अधिशेष का अधिग्रहण राज्य द्वारा होता था। इससे एक ऐसे समाज का उद्भव हुआ जो बड़ी संख्या में स्वायत्त तथा (आंतरिक रूप से) समतावादी ग्रामीण समुदायों से बना था। इन ग्रामीण समुदायों पर राजकीय दरबार का नियंत्रण होता था और जब तक अधिशेष की आपूर्ति निर्विघ्न रूप से जारी रहती थी, इनकी स्वायत्तता का सम्मान किया जाता था। यह एक निष्क्रिय प्रणाली मानी जाती थी। ग्रामीण समाज का यह चित्रण सच्चाई से बहुत दूर था। बल्कि सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में ग्रामीण समाज में चारित्रिक रूप से बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक विभेद था।

एक ओर बड़े जमींदार थे जो भूमि पर उच्चाधिकारों का उपभोग करते थे और दूसरी ओर ‘अस्पृश्य’ भूमिविहीन श्रमिक (बलाहार)। इन दोनों के बीच बड़ा किसान था जो किराए के श्रम का प्रयोग करता था और माल उत्पादन में संलग्न रहता था; साथ ही अपेक्षाकृत छोटे किसान भी थे जो मुश्किल से ही निर्वहन लायक उत्पादन कर पाते थे। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि बर्नियर का वृत्तांत समकालीन ग्रामीण समाज के पुर्निर्माण में इतिहासकारों की अधिक सहायता नहीं करता। इसका प्रमुख कारण यह है कि उसका भारत संबंधी विवरण पक्षपातपूर्ण है तथा द्वि-विपरीतता के नमूने । पर आधारित है, जिसमें भारत को यूरोप के ‘प्रतिलोम’ के रूप में वर्णित किया गया है। वास्तव में, बर्नियर का मुख्य उद्देश्य पूर्व और पश्चिम का तुलनात्मक अध्ययन करना था। परिणामस्वरूप उसके द्वारा भारत को ‘अल्पविकसित पूर्व के रूप में चित्रित किया गया है।

प्रश्न 9.
यह बर्नियर से लिया गया एक उद्धरण है —

ऐसे लोगों द्वारा तैयार सुंदर शिल्पकारीगरी के बहुत उदाहरण हैं जिनके पास औजारों का अभाव है, और जिनके विषय में यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने किसी निपुण कारीगर से कार्य सीखा है। कभी-कभी वे यूरोप में तैयार वस्तुओं की इतनी निपुणता से नकल करते हैं कि असली और नकली के बीच अंतर कर पाना मुश्किल हो जाता है। अन्य वस्तुओं में, भारतीय लोग बेहतरीन बंदूकें और ऐसे सुंदर स्वर्णाभूषण बनाते हैं कि संदेह होता है कि कोई यूरोपीय स्वर्णकार कारीगरी के इन उत्कृष्ट नमूनों से बेहतर बना सकता है। मैं अकसर इनके चित्रों की सुंदरता, मृदुलता तथा सूक्ष्मता से आकर्षित हुआ हूँ।

उसके द्वारा अलिखित शिल्प कार्यों को सूचीबद्ध कीजिए तथा इसकी तुलना अध्याय में वर्णित शिल्प गतिविधियों से कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत उद्धरण से पता लगता है कि बर्नियर की भारतीय कारीगरों के विषय में अच्छी राय थी। उसके मतानुसार भारतीय कारीगर
अच्छे औज़ारों के अभाव में भी कारीगरी के प्रशंसनीय नमूने प्रस्तुत करते थे। वे यूरोप में निर्मित वस्तुओं की इतनी कुशलतापूर्वक नकल करते थे कि असली और नकली में अंतर कर पाना मुश्किल हो जाता था। बर्नियर भारतीय चित्रकारों की कुशलता से अत्यधिक प्रभावित था। वह भारतीय चित्रों की सुंदरता, मृदुलता एवं सूक्ष्मता से विशेष रूप से आकर्षित हुआ था। इस उद्धरण में बर्नियर ने बंदूक बनाने, स्वर्ण आभूषण बनाने तथा चित्रकारी जैसे शिल्पों की विशेष रूप से प्रशंसा की है। अलिखित शिल्प कार्य ।

बर्नियर द्वारा अलिखित शिल्पों या शिल्पकारों को इस प्रकार सूचीबद्ध किया जा सकता है-बढ़ई, लोहार, जुलाहा, कुम्हार, खरादी, प्रलाक्षा रस को रोगन लगाने वाले, कसीदकार दर्जी, जूते बनाने वाले, रेशमकारी और महीन मलमल का काम करने वाले, वास्तुविद, संगीतकार तथा सुलेखक आदि।। प्रस्तुत उद्धरण में बर्नियर ने लिखा है कि भारतीय कारीगर औजार एवं प्रशिक्षण के अभाव में भी कारीगरी के प्रशंसनीय नमूने प्रस्तुत करने में सक्षम थे। अध्याय में वर्णित शिल्प गतिविधियों से पता चलता है कि कारखानों अथवा कार्यशालाओं में कारीगर विशेषज्ञों की देख-रेख में कार्य करते थे। कारखाने में भिन्न-भिन्न शिल्पों के लिए अलग-अलग कक्ष थे। शिल्पकार अपने कारखाने में प्रतिदिन सुबह आते थे और पूरा दिन अपने कार्य में व्यस्त रहते थे।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
विश्व के सीमारेखा मानचित्र पर उन देशों को चिह्नित कीजिए जिनकी यात्रा इन बतूता ने की थी। कौन-कौन से | समुद्रों को उसने पार किया होगा?
उत्तर:
संकेत-1332-33 में भारत के लिए प्रस्थान करने से पहले इब्न बतूता ने मक्का की तीर्थयात्रा की और सीरिया, इराक, फारस, यमन, ओमान और पूर्वी अफ्रीका के तटीय व्यापारिक बंदरगाहों की यात्राएँ कर चुका था। 1342 में दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक के आदेश पर वह सुल्तान के दूत के रूप में चीन गया। भारत में उसने मालाबार तट से महाद्वीप की यात्रा की। उसके वृत्तांत की तुलना 13वीं शताब्दी के अंत में वेनिस से चीन तक यात्रा करने वाले मार्कोपोलो के यात्रा-वृत्तांत से की जाती है।।
उपर्युक्त संकेत के आधार पर विद्यार्थी स्वयं करें।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
अपने ऐसे किसी बड़े संबंधी (माता-पिता/दादा-दादी तथा नाना-नानी/चाचा-चाची) का साक्षात्कार कीजिए जिन्होंने आपके नगर अथवा गाँव के बाहर यात्राएँ की हों। पता कीजिए-

  1. वे कहाँ गए थे
  2. उन्होंने यात्रा कैसे की
  3. उन्हें कितना समय लगा
  4. उन्होंने यात्रा क्यों की
  5. क्या उन्होंने किसी कठिनाई का सामना किया।

ऐसी समानताओं और भिन्नताओं को सूचीबद्ध कीजिए जो उन्होंने अपने रहने के स्थान और यात्रा किए गए स्थानों के बीच देखीं, विशेष रूप से भाषा, पहनावा, खानपान, रीति-रिवाज, इमारतों, सड़कों तथा पुरुषों और महिलाओं की जीवन-शैली के संदर्भ में। अपने द्वारा हासिल जानकारियों पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।
उत्तर:
स्वयं करें।

प्रश्न 12.
इस अध्याय में उल्लिखित यात्रियों में से एक के जीवन तथा कृतियों के विषय में और अधिक जानकारी हासिल कीजिए। उनकी यात्राओं पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए विशेष रूप से इस बात पर जोर देते हुए कि उन्होंने समाज का कैसा विवरण किया है तथा इनकी तुलना अध्याय में दिए गए उद्धरण से कीजिए।
उत्तर:
स्वयं करें।

Hope given NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 5 are helpful to complete your homework.

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NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 6 Bhakti-Sufi Traditions Changes in Religious Beliefs and Devotional Texts (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 6 Bhakti-Sufi Traditions Changes in Religious Beliefs and Devotional Texts (Hindi Medium)

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अभ्यास-प्रश्न
(NCERT Textbook Questions Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए कि संप्रदाय के समन्वय से इतिहासकार क्या अर्थ निकालते हैं?
उत्तर:
विभिन्न संप्रदायों-धार्मिक विश्वासों एवं आचरणों का समन्वय लगभग 8वीं-18वीं शताब्दी के काल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। संप्रदाय के समन्वय से इतिहासकारों का तात्पर्य है कि इस काल में विभिन्न पूजा-प्रणालियाँ समन्वय की ओर बढ़ने लगी थीं। इस काल के साहित्य एवं मूर्तिकला दोनों से ही अनेक प्रकार के देवी-देवताओं का परिचय मिलता है। विष्णु, शिव और देवी की विभिन्न रूपों में आराधना की परिपाटी न केवल प्रचलन में रही अपितु उसे और अधिक विस्तार एवं व्यापकता भी प्राप्त हुई। देश के विभिन्न भागों के स्थानीय देवताओं को विष्णु का रूप माना जाने लगा। “महान” संस्कृत पौराणिक परम्पराओं एवं “लघु” परम्पराओं के पारस्परिक सम्पर्क के परिणामस्वरूप सम्पूर्ण देश में अनेक धार्मिक विचारधाराओं तथा पद्धतियों का जन्म हुआ।

विद्वान इतिहासकारों का विचार है कि विचाराधीन काल में पूजा-प्रणालियाँ के समन्वय के आधार में प्रमुख रूप से दो प्रक्रियाएँ कार्यशील थीं। इनमें से एक प्रक्रिया ब्राह्मणीय विचारधारा के प्रचार से संबंधित थी। पौराणिक ग्रंथों की रचना, संकलन तथा परिरक्षण ने इसके प्रसार को प्रोत्साहित किया था। पौराणिक ग्रंथों की रचना सरल संस्कृत छन्दों में की गई थी, जिन्हें वैदिक विद्या से विहीन स्त्रियाँ और शूद्र भी समझ सकते थे। दूसरी प्रक्रिया का संबंध स्त्रियों, शूद्रों तथा अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं एवं आचरणों को ब्राह्मणों द्वारा स्वीकृत किए जाने तथा उन्हें एक नवीन रूप प्रदान किए जाने से था। समन्वय की इस प्रक्रिया का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उदाहरण आधुनिक उड़ीसा राज्य में स्थित ‘पुरी’ में मिलता है।

बारहवीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते यहाँ के प्रमुख देवता जगन्नाथ (इसका शाब्दिक अर्थ है-संपूर्ण विश्व का स्वामी) को विष्णु का एक रूप मान लिया गया था। यह और बात है कि विष्णु के उड़ीसा में प्रचलित रूप तथा देश के अन्य भागों से मिलने वाले स्वरूपों में अनेक भिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। देवी संप्रदायों में भी समन्वय के ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध होते हैं। सामान्य रूप से देवी की पूजा-आराधना सिंदूर से पोते गए पत्थर के रूप में ही किए जाने का प्रचलन था। पौराणिक परम्परा के अंतर्गत इन स्थानीय देवियों को मुख्य देवताओं की पत्नियों के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गई। कभी उन्होंने लक्ष्मी के रूप में विष्णु की पत्नी का स्थान प्राप्त किया तो कभी पार्वती के रूप में शिव की पत्नी को।

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प्रश्न 2.
किस हद तक उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों को स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का | सम्मिश्रण है?
उत्तर:
भारत में इस्लाम के आगमन के बाद होने वाले परिवर्तन शासक वर्ग तक ही सीमित नहीं रहे। उसने संपूर्ण उपमहाद्वीप में विभिन्न सामाजिक समुदायों अर्थात् किसानों, शिल्पियों, योद्धाओं आदि सभी को प्रभावित किया। एक ही समाज में रहते-रहते, हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे के खान-पान, रीति-रिवाजों, सांस्कृतिक एवं सामाजिक परंपराओं आदि की ओर आकर्षित होने लगे। धर्मान्तरित लोगों पर भी स्थानीय लोकाचारों का प्रभाव ज्यों-का-त्यों बना रहा। इस प्रकार स्थानीय परम्पराएँ एक सार्वभौमिक धर्म को प्रभावित करने लगीं।

उदाहरण के लिए, खोजा इस्माइली समुदाय के लोगों द्वारा कुरान के विचारों की अभिव्यक्ति के लिए देशी साहित्यिक विधा का सहारा लिया गया था। इसी प्रकार, मालाबार तट (केरल) पर बसने वाले मुस्लिम व्यापारियों ने स्थानीय मलयालम भाषा को अपनाने के साथ-साथ मातृकुलीयता तथा मातृगृहता जैसे स्थानीय आचारों को भी अपना लिया था। एक सार्वभौमिक धर्म के स्थानीय परम्पराओं के साथ सम्मिश्रण का संभवत: सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उदाहरण मस्जिद स्थापत्य के क्षेत्र में देखने को मिलता है। उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली अनेक मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का सराहनीय सम्मिश्रण है।

मस्जिद स्थापत्य के कुछ तत्त्व सार्वभौमिक होते हैं; जैसे-इमारत का मक्का की तरफ अनुस्थापन। इसे मेहराब (प्रार्थना का आला) तथा मिंबर (व्यास पीठ) की स्थापना से लक्षित किया जाता है। ऐसे सार्वभौमिक तत्त्व सभी मस्जिदों में समान रूप से पाए जाते थे। किन्तु मस्जिद स्थापत्य के अन्य तत्त्वों पर स्थानीय परिपाटियों का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उदाहरण के लिए, उपमहाद्वीप में बनाई गई मस्जिदों में अनेक तत्त्वों जैसे छत और निर्माण कार्य में प्रयोग किए जाने वाले सामान में भिन्नता देखने को मिलती है। इस भिन्नता का प्रमुख कारण था, मस्जिदों के स्थापत्य का स्थानीय स्थापत्य परम्पराओं से प्रभावित होना तथा निर्माण कार्य में स्थानीय रूप से उपलब्ध निर्माण सामग्री का प्रयोग किया जाना। उदाहरण के लिए केरल, बांग्लादेश और कश्मीर की मस्जिदों के स्थापत्य पर स्थानीय स्थापत्य का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

शिखर केरल के मंदिर स्थापत्य की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। अतः 13वीं शताब्दी में केरल में बनाई गई अनेक मस्जिदों की छतें शिखर के आकार की हैं। इसी प्रकार आधुनिक बांग्लादेश के जिला मैमनसिंग में 1609 ई० में बनाई गई अतिया मस्जिद के गुम्बदों एवं मीनारों में इस्लामी स्थापत्य कला-शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इस मस्जिद का निर्माण ईंटों से किया गया था। 1395 ई० में झेलम नदी के किनारे पर बनाई गई शाहहमदान मस्जिद पर कश्मीरी स्थापत्य शैली का उल्लेखनीय प्रभाव है। यह मस्जिद कश्मीर काष्ठ (लकड़ी) स्थापत्यकला का एक प्रशंसनीय उदाहरण है। इसके शिखर और छज्जे नक्काशीदार हैं। उन्हें पेपरमैशी से सुसज्जित किया गया है। इस प्रकार यह कहना उचित ही होगा कि उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का सम्मिश्रण है।

प्रश्न 3.
बे-शरिया और बा-शरिया सूफी परम्परा के बीच एकरूपता और अंतर, दोनों स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सूफ़ीवाद कई पन्थों अथवा सिलसिलों में संगठित था। सिलसिला का शाब्दिक अर्थ है-जंज़ीर, जो शेख और मुरीद के मध्य एक निरन्तर संबंध की परिचायक है। सूफी सिलसिला को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता हैबा-शरीआ (बा-शरा) और बे-शरिया (बे-शरा)। बा-शरीआ का अभिप्राय था-इस्लामी कानून अर्थात् शरीआ का पालन करने वाले सिलसिले। बे-शरीआ का तात्पर्य था—ऐसे सिलसिले जो शरीआ में बँधे हुए नहीं थे। शरीआ की अवहेलना करने के कारण उन्हें बे-शरीआ के नाम से जाना जाता था।

उल्लेखनीय है कि मुस्लिम समुदाय को निदेर्शित करने वाले कानून को शरीआ कहा जाता है। शरीआ कुरान शरीफ़ तथा हदीस पर आधारित है। हदीस का अर्थ है-पैगम्बर साहब से जुड़ी परम्पराएँ। पैगम्बर साहब के स्मृत शब्द और क्रियाकलाप भी इनके अंतर्गत आते हैं। अरब क्षेत्र के बाहर (जहाँ के आचार-विचार भिन्न थे) इस्लाम का प्रसार होने पर क्रियास अर्थात् सदृशता के आधार पर तर्क तथा इजमा अर्थात् समुदाय की सहमति को भी कानून का स्रोत माना जाने लगा। बे-शरीआ और बा-शरीआ सिलसिलों में कुछ एकरूपताएँ और कुछ अंतर विद्यमान थे।
एकरूपताएँ

  1. दोनों सिलसिले एकेश्वर में विश्वास करते थे। उनके अनुसार अल्लाह एक है। वह सर्वोच्च, सर्वशक्तिशली और सर्वव्यापक है।
  2. दोनों अल्लाह के सामने पूर्ण आत्मसमर्पण पर बल देते थे।
  3. दोनों पीर अथवा गुरु को अत्यधिक महत्त्व देते थे। 4. दोनों-इबादत अर्थात् उपासना पर अत्यधिक बल देते थे। उनके अनुसार अल्लाह की इबादत करने से ही मनुष्य संसार से | मुक्ति पा सकता था।

अंतर

  1. बा-शरीआ सिलसिले शरीआ का पालन करते थे, किन्तु बे-शरीआ शरीआ में बँधे हुए नहीं थे।
  2. बा-शरीआ सूफी सन्त ख़ानक़ाहो में रहते थे। खानकाह एक फ़ारसी शब्द है, जिसका अर्थ है-आश्रम। ख़ानक़ाह में पीर (सूफ़ी संत अर्थात् गुरु) अपने मुरीदों अर्थात् शिष्यों के साथ रहता था। ख़ानक़ाह का नियंत्रण शेख, (अरबी भाषा में) पीर अथवा मुर्शीद (फ़ारसी भाषा में) के हाथों में होता था।
  3. बे-शरीआ सूफी संत ख़ानक़ाह का तिरस्कार करके रहस्यवादी एवं फ़कीर की जिन्दगी व्यतीत करते, उन्हें कलन्दर, मदारी, मलंग, हैदरी आदि नामों से जाना जाता था।
  4. बा-शरीआ सफी सन्त गरीबी का जीवन व्यतीत करने में विश्वास नहीं करते थे। उनमें से अनेक ने सल्तनत की राजनीति में भाग लिया और सुल्तानों एवं अमीरों से मेल-जोल स्थापित किया। ऐसे सूफी संत कभी-कभी दरबारी पद भी स्वीकार कर लेते थे।

प्रश्न 4.
चर्चा कीजिए कि अलवार, नयनार और वीरशैवों ने किस प्रकार जाति प्रथा की आलोचना प्रस्तुत की?
उत्तर:
अलवार और नयनार संतों ने जाति प्रथा व ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोध में आवाज़ उठाई। इन संतों में कुछ तो ब्राह्मण, शिल्पकार और किसान थे और कुछ उन जातियों से आए थे जिन्हें अस्पृश्य’ माना जाता था। अलवार और नयनारे संतों की रचनाओं को वेद जितना महत्त्वपूर्ण बताया गया। जैसे अलवार संतों के मुख्य काव्य संकलन नलयिरादिव्यप्रबन्धम् का वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता था। इस प्रकार इस ग्रंथ का महत्त्व संस्कृत के चारों वेदों जितना बताया गया जो ब्राह्मणों द्वारा पोषित थे। वीरशैवों ने भी जाति की अवधारणा का विरोध किया।

उन्होंने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानने से इंकार कर दिया। ब्राह्मण धर्मशास्त्रों में जिन आचारों को अस्वीकार किया गया था; जैसे-वयस्क विवाह और विधवा पुनर्विवाह, वीरशैवों ने उन्हें मान्यता प्रदान की। इन सब कारणों से ब्राह्मणों ने जिन समुदायों के साथ भेदभाव किया, वे वीरशैवों के अनुयायी हो गए। वीरशैवों ने संस्कृत भाषा को त्यागकर कन्नड़ भाषा का प्रयोग शुरू किया।

प्रश्न 5.
कबीर और बाबा गुरु नानक के मुख्य उपदेशों का वर्णन कीजिए। इन उपदेशों का किस प्रकार संप्रेषण हुआ?
उत्तर:
कबीर के अनुसार संसार का मालिक एक है जो निर्गुण ब्रह्म है। वे राम और रहीम को एक ही मानते थे। उनका कहना था कि विभिन्नता तो केवल शब्दों में है जिनका आविष्कार हम स्वयं करते हैं। केवल जे फूल्या फूल बिन’ और ‘समंदरि लागि आगि’ जैसी अभिव्यंजनाएँ कबीर की रहस्यवादी अनुभूतियों को दर्शाती हैं। वे वेदांत दर्शन से प्रभावित हैं और सत्य को अलख (अदृश्य), निराकर ब्रह्मन् और आत्मन् कहकर संबोधित करते हैं। दूसरी ओर इस्लामी दर्शन से प्रभावित होकर वे सत्य को अल्लाह, खुदा, हजरत और पीर कहते हैं। बाबा गुरु नानक ने भी कबीर की तरह निराकार भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने यज्ञ, मूर्ति पूजा और कठोर तप जैसे बाहरी आडम्बरों का विरोध किया।

हिंदू और मुसलमानों के धर्मग्रंथों को भी उन्होंने नकारा। बाबा के अनुसार परम पूर्ण रब का कोई लिंग या आकार नहीं होता। उन्होंने रब का निरंतर स्मरण व नाम जप को उपासना का आधार बताया। उन्होंने संगत (सामुदायिक उपासना) के नियम निर्धारित किए जहाँ सामूहिक रूप में पाठ होता था। उन्होंने गुरुपद परंपरा की भी शुरुआत की, जिसका पालन 200 वर्षों तक होता रहा। जहाँ कबीर ने अपने उपदेशों में क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल किया, वहीं गुरुनानक ने अपने विचार पंजाबी भाषा के माध्यम से
सामने रखा।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
सूफी मत के मुख्य धार्मिक विश्वासों और आचारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में धार्मिक तथा राजनीतिक संस्था के रूप में खिलाफत की बढ़ती शक्ति के विरुद्ध कुछ आध्यात्मिक लोगों का रहस्यवाद तथा वैराग्य की तरफ झुकाव बढ़ा। इन्हें सूफ़ी कहा जाने लगा। इन लोगों ने रूढ़िवादी परिभाषाओं तथा धर्माचार्यों द्वारा की गई कुरान और सुन्ना (पैगम्बर के व्यवहार) की बौद्धिक व्याख्या की आलोचना की। उन्होंने मुक्ति की प्राप्ति के लिए ईश्वर की भक्ति और उनके आदेशों के पालन पर बल दिया। उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद को इंसान-ए-कामिल बताते हुए उनका अनुसरण करने की सीख दी। सूफ़ियों ने कुरान की व्याख्या अपने निजी अनुभवों के आधार पर की। ग्यारहवीं शताब्दी तक आते-आते सूफ़ीवाद एक पूर्ण विकसित आंदोलन था जिसका सूफ़ी और कुरान से जुड़ा अपना साहित्य था।

संस्थागत दृष्टि से सूफ़ी अपने को एक संगठित समुदाय-ख़ानक़ाह (फारसी) के इर्द-गिर्द स्थापित करते थे। ख़ानक़ाह का नियंत्रण शेख (अरबी), पीर अथवा मुर्शीद (फारसी) के हाथ में था। वे अनुयायियों (मुरीदों) की भर्ती करते थे और अपने वारिस (खलीफा) की नियुक्ति करते थे। आध्यात्मिक व्यवहार के नियम निर्धारित करने के अलावा ख़ानक़ाह में रहने वालों के बीच के संबंध और शेख व जनसामान्य के बीच के रिश्तों की सीमा भी नियत करते थे। बारहवीं शताब्दी के आसपास इस्लामी दुनिया में सूफ़ी सिलसिलों का गठन होने लगा। सिलसिला का शाब्दिक अर्थ है-जंजीर, जो शेख और मुरीद के बीच एक निरंतर रिश्ते का द्योतक है, जिसकी पहली अटूट कड़ी पैगंबर मोहम्मद से जुड़ी है।

इस कड़ी के द्वारा आध्यात्मिक शक्ति और आशीर्वाद मुरीदों तक पहुँचता था। दीक्षा के विशिष्ट अनुष्ठान विकसित किए गए जिसमें दीक्षित को निष्ठा का वचन देना होता था, और सिर मुँड़ाकर थेगड़ी लगे वस्त्र धारण करने पड़ते थे। पीर की मृत्यु के बाद उसकी दरगाह (फ़ारसी में इसका अर्थ दरबार) उसके मुरीदों के लिए भक्ति का स्थल बन जाती थी। इस तरह पीर की दरगाह पर जियारत के लिए जाने की, खासतौर से उनकी बरसी के अवसर पर, परिपाटी चल निकली। इस परिपाटी को उर्स (विवाह, मायने, पीर की आत्मा का ईश्वर से मिलन) कहा जाता था, क्योंकि लोगों का मानना था कि मृत्यु के बाद पीर ईश्वर से एकीभूत हो जाते हैं और इस तरह पहले के बजाय उनके अधिक करीब हो जाते हैं।

लोग आध्यात्मिक और ऐहिक कामनाओं की पूर्ति के लिए उनका आशीर्वाद लेने जाते थे। इस तरह शेख का वली के रूप में आदर करने की परिपाटी शुरू हुई। कुछ रहस्यवादियों ने सूफ़ी सिद्धांतों की मौलिक व्याख्या के आधार पर नवीन आंदोलनों की नींव रखी। ख़ानक़ाह का तिरस्कार करके यह रहस्यवादी, फकीर की जिदंगी बिताते थे। निर्धनता और ब्रह्मचर्य को उन्होंने गौरव प्रदान किया। इन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता था-कलंदर, मदारी, मलंग, हैदरी इत्यादि। शरिया की अवहेलना करने के कारण उन्हें बे-शरिया कहा जाता था। इस तरह उन्हें शरिया का पालन करने वाले (बा-शरिया) सूफियों से अलग करके देखा जाता था।

प्रश्न 7.
क्यों और किस तरह शासकों ने नयनार और सूफी संतों से अपने संबंध बनाने का प्रयास किया?
उत्तर:
चोल शासकों ने नयनार संतों के साथ संबंध बनाने पर बल दिया और उनका समर्थन हासिल करने का प्रयत्न किया। अपने
राजस्व के पद को दैवीय स्वरूप प्रदान करने और अपनी सत्ता के प्रदर्शन के लिए चोल शासकों ने सुंदर मंदिरों का निर्माण कराया और उनमें पत्थर और धातु से बनी मूर्तियाँ स्थापित करवाईं। इस प्रकार, लोकप्रिय संत-कवियों की परिकल्पना को, जो जन-भाषाओं में गीत रचते व गाते थे, मूर्त रूप प्रदान किया गया। चोल शासकों ने तमिल भाषा के शैव भजनों का गायन मंदिरों में प्रचलित किया।

परान्तक प्रथम ने संत कवि अप्पार, संबंदर और सुंदरार की धातु प्रतिमाएँ एक शिव मंदिर में स्थापित करवाईं। इन मूर्तियों को मात्र उत्सव के दौरान निकाला जाता था। सूफी संत सामान्यतः सत्ता से दूर रहने की कोशिश करते थे, किन्तु यदि कोई शासक बिना माँगे अनुदान या भेट देता था तो वे उसे स्वीकार करते थे। कई सुल्तानों ने ख़ानक़ाहों को करमुक्त भूमि इनाम में दे दी और दान संबंधी न्यास स्थापित किए। सूफी संत अनुदान में मिले धन और सामान का इस्तेमाल जरूरतमंदों के खाने, कपड़े एवं रहने की व्यवस्था तथा अनुष्ठानों के लिए करते थे। शासक वर्ग इन संतों की लोकप्रियता, धर्मनिष्ठा और विद्वत्ता के कारण उनका समर्थन हासिल करना चाहते थे।

जब तुर्की ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की तो उलेमा द्वारा शरिया लागू किए जाने की माँग को ठुकरा दिया गया था। सुल्तान जानते थे कि उनकी अधिकांश प्रजा गैर-इस्माली है। ऐसे समय में सुल्तानों ने सूफ़ी संतों का सहारा लिया जो अपनी आध्यात्मिक सत्ता को अल्लाह से उद्भुत मानते थे। यह भी माना जाता था कि सूफ़ी संत मध्यस्थ के रूप में ईश्वर से लोगों की ऐहिक और आध्यात्मिक दशा में सुधार लाने का कार्य करते हैं। शायद यही कारण है कि शासक अपनी कब्र सूफ़ी दरगाहों और ख़ानक़ाहों के नज़दीक बनाना चाहते थे।

प्रश्न 8.
उदाहरण सहित विश्लेषण कीजिए कि क्यों भक्ति और सूफी चिंतकों ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया?
उत्तर:
यह सत्य है कि भक्ति और सूफ़ी चिंतकों ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया। वास्तव में भक्ति और सूफ़ी चिंतक देश के विभिन्न भागों से सम्बन्धित थे। वे किसी भाषा-विशेष को पवित्र नहीं मानते थे। उनका प्रमुख उद्देश्य जनसामान्य को मानसिक शान्ति एवं सांत्वना प्रदान करना था। अतः वे अपने विचारों को जनसामान्य तक उनकी अपनी भाषाओं में पहुँचाना चाहते थे। यही कारण था कि उन्होंने अपने उपदेशों में स्थानीय भाषाओं का प्रयोग किया। तमिलनाडु के अलवार (विष्णु के भक्त) और नयनार (शिव के भक्त) सन्तों ने अपने विचार जनसामान्य तक पहुँचाने के लिए स्थानीय भाषा का प्रयोग किया। वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए तमिल में अपने इष्टदेव की स्तुति में भजन गाते थे।

उल्लेखनीय है कि अलवार और नयनार सन्त विभिन्न जातियों से संबंधित थे। उनमें से कुछ ब्राह्मण थे, कुछ किसान, कुछ शिल्पकार और कुछ तथाकथित ‘अस्पृश्य’ जातियों से भी संबंधित थे, जिन्हें वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत सबसे निचले सोपान पर रखा गया था। उन्होंने ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत प्रेम तथा भक्ति के संदेश को स्थानीय भाषाओं द्वारा दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में फैलाया। विभिन्न एवं स्थानीय भाषाओं में उपदेश देने के कारण उनकी रचनाओं को वेदों के समान महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। उदाहरण के लिए, अलवार सन्तों के एक मुख्य काव्य संकलन नलयिरादिव्यप्रबन्धम्’ को तमिल वेद कहा जाता है। इसी प्रकार नयनार परम्परा की उल्लेखनीय स्त्री भक्त करइक्काल अम्मइयार ने जनभाषा में भक्ति गीतों की रचना करके जनमानस पर अमिट प्रभाव छोड़ा।

उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के मुख्य प्रचारकों ने भी अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न भाषाओं को प्रयोग किया। उन्होंने किसी भाषा विशेष को पवित्र नहीं माना और अपने विचार जनसामान्य की भाषा में प्रकट किए। उदाहरण के लिए कबीर ने अपने पदों में अनेक भाषाओं एवं बोलियों का प्रयोग किया है। उन्होंने अपने विचारों को प्रकट करने के लिए हिन्दी, पंजाबी, फ़ारसी, ब्रज, अवधी एवं स्थानीय बोलियों के अनेक शब्दों का प्रयोग किया है। उनकी कुछ रचनाओं की भाषा सन्तभाषा है, जिसे निर्गुण कवियों की खास बोली समझा जाता है। कबीर की कुछ रचनाएँ उलटबाँसी (उल्टी केही उक्तियाँ) के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनकी रचना में उनके प्रचलित अर्थों को उल्टा कर दिया गया है। कबीर की बानियों का संकलन तीन विशिष्ट किंतु परस्पर व्यापी प्रणालियों में किया गया है।

‘कबीर बीजक’ का संबंध वाराणसी तथा उत्तर प्रदेश के अन्य स्थानों के कबीर पंथियों से है और ‘कबीर ग्रंथावली’ का राजस्थान के दादूपंथियों से। कबीर के अनेक पदों का संकलन सिक्खों के आदिग्रंथसाहिब’ में किया गया है। इसी प्रकार गुरु नानक ने अपने विचार पंजाबी भाषा में ‘शबद’ के माध्यम से जनसामान्य के सामने रखे। वे स्वयं इन शब्दों का भिन्न-भिन्न रागों में गायन करते थे।
गुरु नानक के उत्तराधिकारी गुरु अंगद ने गुरु नानक के उपदेशों एवं शिक्षाओं को भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने के उद्देश्य से गुरमुखी लिपि का विकास किया। सिखों के पवित्र धार्मिक ग्रन्थ गुरु ग्रन्थ साहिब में विभिन्न भाषाओं एवं बोलियों के शब्द मिलते हैं। इसमें गुरु नानक तथा उनके चार

उत्तराधिकारी गुरुओं की बानी के साथ-साथ बाबा फरीद, रविदास तथा कबीर जैसे सन्तों की बानी को भी संकलित किया गया है। मीराबाई ने अपने अंतर्मन की भावप्रवणता को अभिव्यक्त करने के लिए अनेक गीतों की रचना की। उनके गीत मुख्य रूप से ब्रज भाषा में और कुछ राजस्थानी एवं गुजराती में भी लिखे गए हैं। सूफी सन्तों ने भी अपने विचारों को विभिन्न भाषाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया। चिश्ती सन्तों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता स्थानीय भाषाओं को अपनाना था। वे समाँ में स्थानीय भाषा का प्रयोग करते थे। उल्लेखनीय है कि दिल्ली में चिश्ती सिलसिले के लोग आपस में हिंदवी में बातचीत करते थे। पंजाब में बाबा फरीद ने क्षेत्र के लोगों में अपने संदेश का प्रचार करने के लिए पंजाबी में छन्दों की रचना की थी।

उनके कुछ छन्द गुरुग्रंथ साहिब में संकलित हैं। कुछ अन्य सूफियों ने ईश्वर के प्रति प्रेम को मानवीय प्रेम के रूपक द्वारा अभिव्यक्त करने के लिए लम्बी-लम्बी कविताओं की रचना की, जिन्हें मसनवी के नाम से जाना जाता है। सूफी कविता फ़ारसी, हिंदवी अथवा उर्दू में होती थी। कभी-कभी उसमें इन तीनों भाषाओं के शब्द विद्यमान होते थे। बीजापुर (कर्नाटक) के आस-पास सूफ़ी कविता की एक भिन्न विधा अस्तित्व में आई। इसके अन्तर्गत दक्खनी (उर्दू का एक रूप) में लिखी गई छोटी-छोटी कविताएँ आती हैं।

इनकी रचना 17वीं-18वीं शताब्दियों में इस क्षेत्र में बसने वाले चिश्ती सन्तों के द्वारा की गई थी। संभवतः इन रचनाओं का गायन घर में चक्की पीसने और चरखा कातने जैसे सामान्य कामों को करते हुए महिलाओं द्वारा किया जाता था। कुछ अन्य कविताओं की रचना लोरीनामा एवं शादीनामा के रूप में की गई। विद्वान इतिहासकारों के विचारानुसार संभवतः इस क्षेत्र के सूफ़ी सन्तों को यहाँ की स्थानीय भक्ति परम्परा ने अनेक रूपों में प्रभावित किया था। लिंगायतों द्वारा कन्नड़ में लिखे गए वचनों और पंढरपुर के सन्तों द्वारा मराठी में लिखे गए अभंगों ने भी चिश्तियों को पर्याप्त सीमा तक प्रभावित किया। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि भक्ति और सूफी चिन्तकों ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया।

प्रश्न 9.
इस अध्याय में प्रयुक्त किन्हीं पाँच स्रोतों का अध्ययन कीजिए और उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
इस अध्याय में प्रयुक्त किन्हीं पाँच स्रोतों के अध्ययन से उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों पर इस प्रकार चर्चा की जा सकती है।

स्रोत I (चतुर्वेदी और अस्पृश्य)
से पता चलता है कि अलवार सन्त जाति व्यवस्था को निरर्थक मानते थे और जाति-पाँति के भेद-भावों में विश्वास नहीं करते थे। अपने विचारों को प्रकट करते हुए एक ब्राह्मण अलवार तोंदराडिप्पोडि ने अपने काव्य में लिखा था-“चतुर्वेदी जो अजनबी हैं और तुम्हारी सेवा के प्रति निष्ठा नहीं रखते, उनसे भी अधिक आप (हे विष्णु) उन ‘दासों’ को पसन्द करते हैं, जो आपके चरणों से प्रेम रखते हैं, चाहे वे वर्ण-व्यवस्था के परे हों।”

स्रोत II (शास्त्र या भक्ति)
से स्पष्ट होता है कि अलवार सन्तों के समान नयनार सन्तों ने भी ब्राह्मणों की जन्म पर आधारित श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं किया। उनका विचार था कि शिव के अनुराग और भक्ति के बिना ब्राह्मणों का शास्त्रज्ञान, ऊँचा कुल, गोत्र सब निरर्थक है, क्योंकि ईश्वर की दृष्टि में वास्तविक महत्त्व शास्त्र-ज्ञान अथवा गोत्र और कुल का नहीं अपितु भक्ति और प्रेम का है। इन दोनों स्रोतों से यह भी पता लगता है कि अलवार सन्त विष्णु भक्त थे और नयनार सन्त शिव के उपासक

स्रोत III (एक राक्षसी?)
एक स्त्री शिवभक्त करइक्काले अम्मइयार की कविता से लिया गया है।
इससे पता चलता है कि, उस समय घर के अन्दर रहना, शान्त रहना और मुधर वचन बोलना स्त्री के स्वाभाविक गुण माने जाते थे। किन्तु अम्मइयार ने स्त्रियों की पारम्परिक जीवन-शैली को ग्रहण नहीं किया। वह शिव को अपनी आराध्य देव मानती थी। उसने अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या के मार्ग का अनुसरण किया। स्त्रीभक्तों ने अपने सामाजिक कर्तव्यों का तो परित्याग कर दिया, किंतु वे न तो किसी भिक्षुणी समुदाय की सदस्य बनीं और न ही उन्होंने किसी वैकल्पिक व्यवस्था को स्वीकार किया। स्त्रीभक्तों ने पितृसत्तात्मक आदर्शों को स्वीकार नहीं किया और अपनी जीवन पद्धति एवं रचनाओं द्वारा उन्हें चुनौती दी।

स्रोत IV (अनुष्ठाने और यथार्थ संसार)
बासवन्ना द्वारा रचित एक वचन से सम्बन्धित है। बासवन्ना वीरशैव परम्परा के संस्थापक थे। वह जाति से ब्राह्मण थे और चालुक्य राजा के दरबार में एक मंत्री थे। उनके अनुयायी वीरशैव अर्थात् शिव के वीर और लिंगायत अर्थात लिंग धारण करने वालों के नाम से प्रसिद्ध हुए। आज भी वीरशैव कर्नाटक की संभवतः सर्वाधिक लोकप्रिय परम्परा है। वीरशैव अथवा लिंगायत शिव को अपना आराध्य देव मानते हैं। वे शिव की उपासना लिंग के रूप में करते हैं। वीरशैव अथवा लिंगायत जन्म पर आधारित जाति-व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने जाति-पाँति के भेद-भावों का विरोध किया तथा समाज में कुछ समुदायों के ‘पवित्र’ और कुछ के दूषित होने की ब्राह्मणीय अवधारणा की कटु आलोचना की।

उनके विचारानुसार मनुष्य की श्रेष्ठता का आधार उसका जन्म नहीं अपितु कर्म होने चाहिए। लिंगायत अनुष्ठानों की अपेक्षा यथार्थ भक्ति भाव पर अधिक बल देते हैं। उनके विचारानुसार परमदेव को अनुष्ठानों द्वारा नहीं अपितु भक्तिभाव द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। धर्म से जुड़े निरर्थक रीति-रिवाजों एवं आडंबरों का विरोध करते हुए बासवन्ना ने लिखा था कि जब वे एक पत्थर से बने सर्प को देखते हैं तो उस पर दूध चढ़ाते हैं, यदि असली साँप आ जाए तो कहते हैं “मारो-मारो”, देवता के उस सेवक को, जो भोजन परोसने पर खा सकता है, वे कहते हैं, “चले जाओ, चले जाओ।” किन्तु ईश्वर की प्रतिमा को, जो खा नहीं सकती, वे व्यंजन परोसते हैं।।”

स्रोत V (खम्बात का गिरजाघर)
उस फरमान (बादशाह का हुक्मनामा) का अंश है, जिसे महान मुगल सम्राट अकबर ने | 1598 ई० में जारी किया था। सम्राट ने यह फरमान खम्बात के गिरजाघर के सम्बन्ध में जारी किया था। इससे स्पष्ट होता है कि अकबर एक उदार एवं धर्म-सहिष्णु सम्राट था। वह भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करना चाहता था। उसने अपने पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों के समान धर्म के नाम पर अत्याचार अथवा रक्तपात की नीति का अनुसरण नहीं किया। उसने बलपूर्वक धर्म परिवर्तन पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा सभी धर्म एवं सम्प्रदायों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। इस स्रोत से यह भी स्पष्ट
होता है कि कट्टर मुस्लिम सम्राट के उदार धार्मिक विचारों के विरोधी थे।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
भारत के मानचित्र पर 3 सूफी स्थल और 3 वे स्थल जो मंदिरों (विष्णु, शिव और देवी से जुड़ा एक मंदिर ) से सम्बद्ध हैं, निर्दिष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्वयं करें।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
इस अध्याय में वर्णित किन्हीं 2 धार्मिक उपदेशकों/चिंतकों/संतों का चयन कीजिए और उनके जीवन व उपदेशों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कीजिए। इनके समय, कार्यक्षेत्र और मुख्य विचारों के बारे में एक विवरण तैयार कीजिए। हमें इनके बारे में कैसे जानकारी मिलती है और हमें क्यों लगता है कि वे महत्त्वपूर्ण हैं?
उत्तर:
1. बाबा गुरु नानक-बाबा गुरु नानक (1469-1539) का जन्म एक हिंदू व्यापारी परिवार में हुआ। उनका जन्मस्थल मुख्यतः
इस्लाम धर्मावलंबी पंजाब का ननकाना गाँव था जो रावी नदी के पास था। उन्होंने फारसी पढ़ी और लेखाकार के कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया। उनका विवाह छोटी आयु में हो गया था, किंतु वह अपना अधिक समय सूफ़ी और भक्त संतों के बीच गुजारते थे। उन्होंने दूर-दराज की यात्राएँ भी कीं। बाबा गुरु नानक का संदेश उनके भजनों और उपदेशों में निहित है। इनसे पता लगता है कि उन्होंने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया। धर्म के सभी बाहरी आडंबरों को उन्होंने अस्वीकार किया; जैसे-यज्ञ, आनुष्ठानिक स्नान, मूर्ति पूजा व कठोर तप। हिंदू और मुसलमानों के धर्मग्रंथों को भी उन्होंने नकारा। बाबा गुरु नानक के लिए परम पूर्ण ‘रब’ का कोई लिंग या आकार नहीं था। उन्होंने इस रब की उपासना के लिए एक सरल उपाय बताया और वह था उनका निरंतर स्मरण व नाम का जाप। उन्होंने अपने विचार पंजाबी भाषा में शबद के माध्यम से सामने रखे।

बाबा गुरु नानक ये शबद अलग-अलग रागों में गाते थे और उनका सेवक मरदाना रबाब बजाकर उनका साथ देता था। बाबा गुरु नानक ने अपने अनुयायियों को एक समुदाय में संगठित किया। सामुदायिक उपासना (संगत) के नियम निर्धारित किए जहाँ सामूहिक रूप से पाठ होता था। उन्होंने अपने अनुयायी अंगद को अपने बाद गुरुपद पर आसीन किया; इस परिपाटी का पालन 200 वर्षों तक होता रहा। ऐसा प्रतीत होता है कि बाबा गुरु नानक किसी नवीन धर्म की स्थापना नहीं करना चाहते थे, किंतु उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने अपने आचार-व्यवहार को सुगठित कर अपने को हिंदू और मुसलमान दोनों से पृथक् चिहनित किया। पाँचवें गुरु अर्जुन देव जी ने बाबा गुरु नानक तथा उनके चार उत्तराधिकारियों, बाबा फरीद, रविदास और कबीर की बानी को आदि ग्रंथ साहिब में संकलित किया। इनको ‘गुरबानी’ कहा जाता है और ये अनेक भाषाओं में रचे गए।

2. मीराबाई-मीराबाई संभवतः
भक्ति परंपरा की सबसे सुप्रसिद्ध कवयित्री हैं। उनकी जीवनी उनके लिखे भजनों के आधार पर संकलित की गई है। वह मारवाड़ के मेड़ता जिले की एक राजपूत राजकुमारी थीं जिनका विवाह उनकी इच्छा के विरुद्ध मेवाड़ के सिसोदिया कुल में कर दिया गया। मीराबाई ने अपने पति की आज्ञा की अवहेलना करते हुए विष्णु के अवतार कृष्ण को अपना एकमात्र पति स्वीकार किया। उन्हें विष देकर जान से मारने का असफल प्रयास भी किया गया। उन्होंने पति और राजभवन के ऐश्वर्य को त्याग कर विधवा के समान सफेद वस्त्र धारण कर लिया और संन्यासिनी बन गईं। कुछ परंपरा के अनुसार मीरा के गुरु रैदास थे जो एक चर्मकार थे। इससे पता चलता है कि मीरा ने अतिवादी समाज की रूढ़ियों का उल्लंघन किया। उनके भक्ति गीत अंतर्मन की भाव-प्रवणता को व्यक्त करने वाले हैं। उनके रचित पद आज भी स्त्रियों और पुरुषों द्वारा गाए जाते हैं।

प्रश्न 12.
इस अध्याय में वर्णित सूफ़ी व देव स्थलों से संबद्ध तीर्थयात्रा के आचारों के बारे में अधिक जानकारी हासिल कीजिए। क्या यह यात्राएँ अभी भी की जाती हैं? इन स्थानों पर कौन लोग और कब-कब जाते हैं? वे यहाँ क्यों जाते हैं? इन तीर्थयात्राओं से जुड़ी गतिविधियाँ कौन-सी हैं?
उत्तर:
ख्वाजा मुइनुद्दीन की अजमेर स्थित दरगाह विश्व प्रसिद्ध है। यह दरगाह मुइनुद्दीन चिश्ती की सदाचारिता और धर्मनिष्ठा तथा उनके आध्यात्मिक वारिसों की महानता और राजसी मेहमानों द्वारा दिए गए प्रश्रय के कारण लोकप्रिय थी। मुहम्मद बिन तुगलक पहला सुल्तान था जिसने इस दरगाह की यात्रा की थी। मुगल सम्राट अकबर ने यहाँ 14 बार यात्रा की। मुगल शहजादी जहाँआरा ने अपने पिता शाहजहाँ के साथ 1643 में अजमेर शरीफ की तीर्थयात्रा की जिसका वर्णन उसने बड़े ही ओजस्वी भाषा में किया है। 18वीं शताब्दी में दक्कन के कुली खान ने शेख नसीरुद्दीन चिराग-ए-देहली की दरगाह के बारे में मुक्का-ऐ-देहली में लिखा कि शेख सिर्फ दिल्ली के ही चिराग नहीं अपितु सारे मुल्क के चिराग हैं।

खासतौर पर रविवार के दिन यहाँ लोगों का हुजूम आता है। दीवाली के महीने में दिल्ली की सारी आबादी दरगाह पर उमड़ पड़ती है। यहाँ हिंदू और मुसलमान एक ही भावना से आते हैं। दाता गंज बक्श की दरगाह लाहौर में स्थित है। सुल्तान महमूद के पोते ने उनकी मजार पर दरगाह बनवाई है। यह दरगाह उनकी बरसी के अवसर पर उनके अनुयायियों के लिए तीर्थस्थल बन गई। आज भी हुजविरी दाता गंज बख्श के रूप में आदरणीय हैं और उनकी दरगाह को दाता दरबार कहा जाता है। अपनी यात्रा के दौरान अलवार और नयनार संतों ने कुछ पावन स्थलों को अपने इष्ट का निवास स्थल घोषित किया। इन्हीं स्थलों पर कालांतर में विशाल मंदिरों का निर्माण हुआ और वे तीर्थस्थल बन गए। अनुष्ठानों के समय इन मंदिरों में संत कवियों द्वारा भजन गाया जाता था और साथ-साथ इन संतों की प्रतिमा की भी पूजा की जाती थी।

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NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 4 Thinkers, Beliefs and Buildings Cultural Developments (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 4 Thinkers, Beliefs and Buildings Cultural Developments (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 4 Thinkers, Beliefs and Buildings Cultural Developments (Hindi Medium)

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अभ्यास-प्रश्न
(Questions from Textbook Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
क्या उपनिषदों के दार्शनिकों के विचार नियतिवादियों और भौतिकवादियों से भिन्न थे? अपने जवाब के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
हाँ, उपनिषदों के दार्शनिकों के विचार नियतिवादियों और भौतिकवादियों के विचार से पूर्णतया भिन्न थे। इनकी भिन्नता के निम्नलिखित आधार थेनियतिवादियों तथा भौतिकवादियों के विचार-नियतिवादियों के अनुसार इंसान के सुख-दुख नियति द्वारा निर्धारित मात्रा में दिए गए हैं। इन्हें चाहकर भी बदला नहीं जा सकता। बुद्धिजीवी लोग सोचते हैं कि वे अपने सद्गुणों द्वारा इन्हें बदल देंगे किंतु यह असंभव है। अतः इंसान को अपने हिस्से के सुख-दुख को भोगना ही पड़ता है। इसी प्रकार भौतिकवादी मानते हैं कि संसार में दान-पुण्य नामक चीजों का कोई महत्त्व नहीं है। दान-पुण्य करने की अवधारणा पूरी तरह से निराधार है। मरणोपरांत कुछ भी शेष नहीं रहता। पापात्मा और पुण्यात्मा दोनों नष्ट होकर पंचतत्व में विलीन हो जाते हैं। उपनिषदों के दार्शनिक विचार-ऊपर लिखित विचारों में आत्मा-परमात्मा को कोई महत्त्व नहीं दिया गया है जबकि उपनिषदों के अनुसार मानव-जीवन का परम उद्देश्य आत्मा को परमात्मा में विलीन कर स्वयं परम ब्रह्म हो जाना है।

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प्रश्न 2.
जैन धर्म की महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
जैन धर्म की प्रमुख शिक्षाएँ इस प्रकार हैं-जैन धर्म के अनुसार मानव जीवन का चरम लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है। इसे प्राप्त करने
के लिए त्रिरत्न का पालन करना नितांत आवश्यक है। ये तीन रत्न हैं-

  1. सम्यक् ज्ञान अर्थात् अज्ञान को दूर करके ज्ञान प्राप्ति की दिशा में प्रयत्न करना। ज्ञान की प्राप्ति तीर्थंकरों के उपदेशों का अनुसरण करने से ही हो सकती है।
  2. सम्यक् दर्शन (ध्यान) अर्थात् तीर्थंकरों में विश्वास रखना तथा सत्य के प्रति श्रद्धा रखना।
  3. सम्यक् चरित्र (आचरण) अर्थात् अच्छे आचरण अथवा कार्य करना। जैन धर्म के अनुसार संपूर्ण विश्व प्राणवान है।

सृष्टि के कण-कण में चाहे वह जड़ है या चेतन आत्मा का निवास है अर्थात् आत्मा केवल मनुष्यों पशु-पक्षियों आदि में ही नहीं अपितु पेड़-पौधों, पत्थरों, जल, वायु आदि सभी में है। अतः जड़, चेतन किसी की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। जैन मान्यता के अनुसार मनुष्य के कर्म ही उसके जन्म और पुनर्जन्म के चक्र को निर्धारित करते हैं। मनुष्य जो कर्म करता है, उसका फल एकत्रित होता रहता है और उस कर्मफल को भोगने के लिए ही आत्मा को बार-बार जन्म लेना पड़ता है। कर्मों का नाश करके ही मनुष्य पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा पा सकता है। कर्मों का विनाश त्याग और तपस्या के द्वारा ही किया जा सकता है। संसार त्याग के बिना कर्मों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता।
इसीलिए जैन परंपरा में मुक्ति प्राप्ति के लिए विहारों में निवास करना अनिवार्य बताया गया है। जैन धर्म पाँच व्रतों अर्थात् अहिंसा, चोरी न करना, झूठ न बोलना, ब्रह्मचर्य का पालन करना और धन इकट्ठा न करना के पालन पर अत्यधिक बल देता है। जैन साधुओं और साध्वियों के लिए इन व्रतों का पालन करना अत्यावश्यक है।

प्रश्न 3.
साँची के स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
19 वीं सदी में भोपाल के शासकों और यूरोपियों ने साँची के स्तूप को बचाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। यूरोपीय शुरू
से ही साँची के स्तूप में दिलचस्पी दिखाते रहे। फ्रांसीसियों ने तो साँची के पूर्वी तोरणद्वार को फ्रांस के संग्रहालय में ले जाने की अनुमति भी माँगी। अंग्रेजों की भी यही इच्छा थी, परंतु शाहजहाँ बेगम ने दोनों को साँची की प्लॉस्टर ऑफ पेरिस की बनी प्रतिकृतियाँ देकर संतुष्ट कर दिया। इस तरह साँची की मूल कृति को भोपाल राज्य में अपने स्थान पर बनाए रखा। शाहजहाँ बेगम और उनकी उत्तराधिकारिणी सुल्तान जहाँ बेगम ने इस प्राचीन स्थान के रख-रखाव के लिए बहुत-सा धन दिया। उन्होंने वहाँ एक संग्रहालय और अतिथिशाला का निर्माण करवाया। जहाँ जॉन मार्शल ने कई पुस्तकें लिखीं जिनके प्रकाशन के लिए भी बेगमों ने दान दिया। यह भी भाग्य की बात है कि यह रेल ठेकेदारों और निर्माताओं की नजर से बचा रहा जो ऐसी चीजों को यूरोप संग्रहालय में ले जाना चाहते थे। आज इसकी मरम्मत और संरक्षण का कार्य भारतीय पुरातत्त्व विभाग कर रहा है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित संक्षिप्त अभिलेख को पढ़िए और जवाब दीजिए :
महाराजा हुविष्क (एक कुषाण शासक) के तैंतीसवें साल में गर्म मौसम के पहले महीने के आठवें दिन त्रिपिटक जानने वाले भिक्खु बल की शिष्या त्रिपिटक जानने वाली बुद्धमिता की बहन की बेटी भिक्खुनी धनवती ने अपने माता-पिता के साथ मधुवनक में बोधिसत्त की मूर्ति स्थापित की।

  1. धनवती ने अपने अभिलेख की तारीख कैसे निश्चित की?
  2. आपके अनुसार उन्होंने बोधिसत्त की मूर्ति क्यों स्थापित की?
  3. वे अपने किन रिश्तेदारों का नाम लेती हैं?
  4. वे कौन से बौद्ध ग्रंथों को जानती थीं?
  5. उन्होंने ये पाठ किससे सीखे थे?

उत्तर:

  1. धनवती ने तत्कालिन कुषाण शासक हुविष्क के शासनकाल के तैतीसवें वर्ष में गर्म मौसम के पहले महीने के आठवें दिन का उल्लेख करके अपने अभिलेख की तारीख निश्चित की।
  2. धनवती ने बौद्ध धर्म में अपना विश्वास प्रकट करने हेतु और स्वयं को भिक्खुनी सिद्ध करने हेतु मधुवनक में बोधिसत्त की मूर्ति की स्थापना की।
  3. इस अभिलेख में उसने अपनी मौसी (माँ की बहन) बुद्धमिता के नाम का उल्लेख किया है। वह भी एक बौद्ध भिक्षुणी थी। उसने भिक्षुणी बाला और अभिभावकों के भी नामों का उल्लेख किया है।
  4. धनवती बौद्ध धर्म के ग्रंथ त्रिपिटक को जानती थी।
  5. उसने यह धार्मिक ग्रंथ भिक्षुणी बुद्धिमता (अपनी मौसी) से सीखा था। धनवती भिक्षुणी बाला की पहली महिला शिष्य थी।

प्रश्न 5.
आपके अनुसार स्त्री-पुरुष संघ में क्यों जाते थे?
उत्तर:
हमारे अनुसार स्त्री-पुरुष संघ में इसलिए जाते थे, क्योंकि वहाँ वे धर्म का नियमित ढंग से अध्ययन, विचार-विमर्श, मनन, उपासना आदि कर सकते थे। वे यहाँ विचार-विमर्श के साथ-साथ प्रचारकों और अध्यापकों के माध्यम से भी धर्म को जान सकते थे व उसे व्यवहार में ला सकते थे। बौद्ध संघ में कुछ नियम और उपनियम रचे गए थे। सभी बौद्ध भिक्षुकों को संघ में रहकर उन नियमों का पालन करना होता था। सभी भिक्षुकों को संघ के अनुशासन में रहना, उचित ढंग से अपने विचारों को दर्शाना होता था। भिक्षुकों को नियमानुसार भिक्षा माँगकर ही अपना भोजन और अन्य सामग्री जुटानी होती थी। संघ में उन्हें अध्ययन, अध्यापन भी करवाया जाता था। मोक्ष प्राप्ति या निर्वाण के लिए उनसे बताए गए मार्ग, सिद्धांतों और शिक्षाओं का अनुसरण करवाया जाता था।

निम्नलिखित पर एक संक्षिप्त निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)

प्रश्न 6.
साँची की मूर्तिकला को समझने में बौद्ध साहित्य के ज्ञान से कहाँ तक सहायता मिलती है?
उत्तर:
सामान्यतः साँची की मूर्तियों को देखकर अथवा उत्कीर्ण चित्रों को देखकर यह अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि इनका चित्रण किन संदर्भो में किया गया है अथवा उनका क्या अभिप्राय है, किंतु बौद्ध साहित्य साँची की मूर्तिकला को समझने में हमारी महत्त्वपूर्ण सहायता करता है। बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन से साँची की मूर्तियों में उल्लेखित सामाजिक एवं मानव जीवन की अनेक बातों को समझने में दर्शक को महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। उदाहरण के लिए, साँची के उत्तरी तोरणद्वार के एक भाग पर एके चित्र है। इस चित्र में घास-फूस से बनी झोंपड़ियाँ, पेड़, स्त्री-पुरुष और बच्चे दिखाई देते हैं, जिससे लगता है। कि इसमें ग्रामीण दृश्य का चित्रण किया गया है।

किंतु साँची की मूर्तिकला का गहनतापूर्वक अध्ययन करनेवाले कला इतिहासकारों के अनुसार मूर्तिकला के इस अंश में वेसान्तर जातक की एक कथा के दृश्य को दिखाया गया है। वेसान्तर जातक में एक ऐसे दानी राजकुमार का उल्लेख है जिसने अपना सब कुछ एक ब्राह्मण को दान में दे दिया और स्वयं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ जंगल में रहने के लिए चला गया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इतिहासकार मूर्तियों का अध्ययन संबद्ध ग्रंथों की सहायता से करते हैं और लिखित साक्ष्यों के साथ तुलना करके ही मूर्तियों की व्याख्या करते हैं। बौद्धचरित लेखन ने भी बौद्ध मूर्तिकला को समझने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

विद्वान इतिहासकारों ने बौद्धचरित लेखन को भली-भाँति समझकर बौद्ध मूर्तिकला की व्याख्या करने का सफल प्रयास किया है। बौद्धचरित लेखन में हमें स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि बुद्ध ने एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए बोधि अर्थात् ज्ञान की प्राप्ति की थी। अतः अनेक प्रारम्भिक मूर्तिकारों द्वारा बुद्ध की उपस्थिति को प्रतीकों के माध्यम से दिखाने का प्रयत्न किया गया। उन्होंने बुद्ध का चित्रांकन मानव रूप में नहीं किया। उदाहरण के लिए, बौद्ध मूर्तिकला में रिक्त स्थान बुद्ध के ध्यान की दशा का प्रतीक बन गया। इसी प्रकार स्तूप को महापरिनिर्वाण (महापरिनिबान) का प्रतीक मान लिया गया। चक्र महात्मा बुद्ध द्वारा सारनाथ में दिए गए पहले उपदेश का प्रतीक बन गया। हमें याद रखना चाहिए कि बुद्ध ने वाराणसी के पास सारनाथ के मृगदीव (हिरणकुंज) में आषाढ़ पूर्णिमा को अपना पहला उपदेश दिया था, जो ‘धर्म चक्रप्रवर्तन’ (धर्म के पहिए को घुमाना) के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

साँची में पशुओं के अत्यधिक सुंदर एवं सजीव चित्रों को अंकन किया गया है। मुख्य रूप से हाथी, घोड़े, बंदर एवं गाय-बैल के चित्र अंकित किए गए हैं। जातक ग्रंथों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि साँची में दिखाए गए अनेक दृश्य जातकों में वर्णित पशु कथाओं से संबंधित हैं। कुछ विद्वानों के मतानुसार इन पशुओं का अंकन संभवत: सजीव दृश्यों के द्वारा दर्शकों को आकर्षित करने के लिए किया गया था। हमें याद रखना चाहिए कि प्रायः पशुओं का मानव गुणों के प्रतीकों के रूप में भी प्रयोग किया जाता था। उदाहरण के लिए हाथी को शक्ति एवं ज्ञान का प्रतीक माना जाता था। इन प्रतीकों में कमल तथा हाथियों के मध्य दिखाई गई एक महिला की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हाथियों को अभिषेक करने की मुद्रा में उस महिला पर जल छिड़कते हुए दिखाया गया है।

कुछ विद्वान इस मूर्ति को बुद्ध की माता माया बताते हैं, तो कुछ सौभाग्य की देवी गजलक्ष्मी। उल्लेखनीय है कि लोकप्रिय गजलक्ष्मी को प्रायः हाथियों के साथ दिखाया जाता है। कुछ विद्वानों का विचार है कि संभवतः उपासक इसका संबंध माया और गजलक्ष्मी दोनों के साथ मानते हैं। लोक परंपराओं से संबंधित साहित्य से भी साँची की मूर्तिकला को समझने में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। उल्लेखनीय है। कि साँची में उत्कीर्ण अनेक मूर्तियों का संबंध प्रत्यक्ष रूप से बौद्ध धर्म से नहीं था। इन मूर्तियों का अंकन लोक परंपराओं से प्रभावित होते हुए किया गया था। उदाहरण के लिए, साँची स्तूप के तोरणद्वार पर सुन्दर स्त्रियों की मूर्तियाँ भी उत्कीर्ण की गई हैं। उन्हें तोरणद्वार के किनारे एक पेड़ की टहनियाँ पकड़कर झूलते हुए दिखाया गया है।

प्रारंभ में विद्वान यह सोचकर हैरान थे कि तोरणद्वार पर इस मूर्ति का अंकन क्यों किया गया, क्योंकि इस मूर्ति का त्याग और तपस्या से कोई प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संबंध दृष्टिगोचर नहीं होता था। किंतु अन्य साहित्यिक परंपराओं का अध्ययन करने के बाद विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यह मूर्ति शालभंजिका की है, जिसका संस्कृत ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। लोक परंपरा के अनुसार शालभंजिका के स्पर्श से वृक्ष फूलों से भर जाते थे और उनमें फल लगने लगते थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि बौद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले लोगों ने अपनी परंपराओं एवं धारणाओं का परित्याग नहीं किया अपितु इनसे बौद्ध धर्म को समृद्ध बनाया। विद्वान इतिहासकारों का विचार है कि साँची की मूर्तियों में पाए जाने वाले अनेक प्रतीकों अथवा चिह्नों को भी लोक परंपराओं से लिया गया था। उल्लेखनीय है कि जिस कला में प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है उसके अर्थ की व्याख्या अक्षरशः नहीं की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए बौद्ध मूर्तिकला में पेड़ का अभिप्राय केवल एक पेड़ से नहीं है अपितु उसका चित्रांकन महात्मा बुद्ध के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना के प्रतीक के रूप में किया जाता है। इतिहासकार कलाकृतियों के निर्माताओं की परंपराओं को समझकर ही प्रतीकों को समझने में समर्थ हो सकते हैं।

प्रश्न 7.
चित्र 4.1 और 4.2 में साँची से लिए गए दो परिदृश्य दिए गए हैं। आपको इनमें क्या नज़र आता है? वास्तुकला, पेड़-पौधे और जानवरों को ध्यान से देखकर तथा लोगों के काम-धंधों को पहचानकर यह बताइए कि इनमें से कौन से ग्रामीण और कौन से शहरी परिदृश्य हैं?
उत्तर:
साँची का स्तूप ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यहाँ की मूर्तिकला या चित्रकला को समझने में बौद्ध साहित्य और लोक परंपराओं से महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है।
चित्र-4.1-
इसको ध्यानपूर्वक देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसमें ग्रामीण दृश्य को अंकित किया गया है। इसमें लताओं, पेड़-पौधों और पशुओं को दर्शाया गया है। विशेष रूप से गाय, भैंस और हिरण को चित्रित किया गया है। इस चित्र के शीर्ष भाग में बने पशुओं के चित्रों और उनके साथ बने बौद्ध भिक्षुओं के चित्रों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे अपनी सुरक्षा को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हैं। जबकि निचले भाग में पशुओं के कटे हुए सिर और धनुष-वाण लिए कुछ लोगों को दिखाया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि बौद्ध धर्म से पूर्व ब्राह्मण धर्म में अनेक जटिलताओं का समावेश हो गया था। यहाँ तक कि बलि प्रथा को भी महत्त्व दिया जाने लगा था।
NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 4 (Hindi Medium) 1

चित्र-4.2-
इसमें कुछ मजबूत लंबे-लंबे स्तंभ और उनके नीचे जाली का सुंदर कार्य दिखाया गया है। इन स्तंभों के ऊपर विभिन्न मवेशी और कुछ अन्य वस्तुओं को चित्रित किया गया है। स्तंभों के माध्यम से बौद्ध धर्म के अनुयायियों को विभिन्न शारीरिक आकृतियाँ में बैठे हुए, खड़े हुए, एक-दूसरे को निहारते हुए तथा विभिन्न प्रकार के हाव-भाव की अभिव्यक्ति करते हुए दिखाया गया है। स्तंभ के ऊपरी सिरों पर उल्टे रखे हुए कलश, जिन पर डिजाइन बने हैं, दर्शाया गया है। इस चित्र के निचले भाग में कुछ स्तंभ, भिक्षुणियों के विभिन्न आकार, हाव-भाव और किसी इमारत के डिज़ाइन जो संभवतः किसी स्तंभ के बाहरी हिस्से से संबंधित हैं, दिखाया गया है। हमारे विचारानुसार चित्र नं. 4.1 ग्रामीण क्षेत्रों से और चित्र नं. 4.2 राजा, शहरी परिदृश्य और महलों से संबंधित है।
\NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 4 (Hindi Medium) 2\

प्रश्न 8.
वैष्णववाद और शैववाद के उदय से जुड़ी वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
600 ई०पू० से 600 ई० तक के काल में वैष्णववाद और शैववाद का भी पर्याप्त विस्तार हुआ। वैष्णववाद और शैववाद इन दोनों परंपराओं में एक देवता विशेष की पूजा पर विशेष बल दिया जाता था। वैष्णव परंपरा में विष्णु को और शैव परंपरा में शिव को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देवता माना जाता है। दोनों परंपराएँ पौराणिक हिंदू धर्म से संबंधित थीं और दोनों के अंतर्गत मूर्तिकला का विशेष विकास हुआ।

मूर्तिकला का विकास :
अवतारवाद की भावना-वैष्णव धर्म की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। इसमें विष्णु के अवतारों की पूजा पर बल दिया गया। विष्णु के अनेक अवतारों की मूर्तियाँ बनाई गईं। अन्य देवी-देवताओं की भी मूर्तियाँ बनाई गईं। शिव का चित्रांकन प्रायः उनके प्रतीक लिंग के रूप में किया जाता था। प्रायः मनुष्य के रूप में उनकी मूर्तियाँ भी बनाई जाती थीं। सभी चित्रणों का आधार देवी-देवताओं से जुड़ी मिश्रित अवधारणाएँ थीं। देवी-देवताओं को विशेषताओं एवं उनके प्रतीकों का चित्रांकन उनके शिरोवस्त्र, आभूषणों, आयुधों और बैठने की मुद्रा के द्वारा किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि देश के भिन्न-भिन्न भागों में विष्णु के भिन्न-भिन्न रूप लोकप्रिय थे, जिससे मूर्तिकला के विकास को विशेष प्रोत्साहन मिला। निस्संदेह, सभी स्थानीय देवताओं को विष्णु का रूप मान लेना एकीकृत धार्मिक परंपरा के निर्माण की दिशा में उठाया गया एक महत्त्वपूर्ण कदम था।

विद्वान इतिहासकार इन मूर्तियों से जुड़ी कथाओं का भली-भाँति अध्ययन करके ही उनके अंकन का वास्तविक अर्थ समझने में सफल हुए हैं। इनमें से अनेक कथाओं का उल्लेख प्रथम सहस्राब्दी के मध्यकाल में ब्राह्मणों द्वारा रचित पुराणों में मिलता है। इनकी रचना सामान्यतः संस्कृत श्लोकों में की गई थी। परंपरा के अनुसार इन्हें ऊँची आवाज़ में पढ़ा जाता था ताकि सभी तक उनकी आवाज पहुँच सके। पुराणों की अधिकांश कथाओं का विकास लोगों के पारस्परिक मेलजोल के परिणामस्वरूप हुआ। व्यापारियों, पुजारियों एवं सामान्य स्त्री-पुरुषों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन के परिणामस्वरूप उनके विश्वासों एवं अवधारणाओं का परस्पर आदान-प्रदान होता रहता था। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है कि वासुदेव-कृष्ण मथुरा क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण स्थानीय देवता थे, किंतु धीरे-धीरे उनकी पूजा का विस्तार लगभग संपूर्ण देश में हो गया था।

वास्तुकला का विकास :
मंदिरों का निर्माण । उल्लेखनीय है कि विचाराधीन काल में देवी-देवताओं के निवास के लिए अनेक मंदिरों का भी निर्माण किया गया। प्रारंभिक मंदिरों में एक चौकोर कमरा होता था, जिसे गर्भगृह के नाम से जाना जाता था। इसमें एक दरवाज़ा होता था। उपासक इस दरवाजे से मूर्ति की पूजा करने के लिए अंदर प्रवेश कर सकता था। धीरे-धीरे गर्भगृह के ऊपर एक ऊँची संरचना बनाई जाने लगी जिसे शिखर कहा जाता था। मंदिर की दीवारों पर सुंदर भित्तिचित्रों को उत्कीर्ण किया जाता था। कालांतर में मंदिर स्थापत्य में महत्त्वपूर्ण विकास हुआ।

मंदिरों में विशाल सभास्थलों, ऊँची दीवारों तथा सुंदर तोरणद्वारों का भी निर्माण किया जाने लगा। कुछ मंदिरों में जल-आपूर्ति का भी प्रबंध किया जाता था। इस काल की स्थापत्यकला अधिकांश रूपों में धर्म अनुप्राणित थी। इस काल में अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ, जिनमें देवगढ़ का देशावतार मंदिर, भूमरा का शिव मंदिर, नचना का पार्वती मंदिर, तिगवा का विष्णु मंदिर तथा भीतर गाँव का मंदिर अपनी उत्कृष्ट कला के लिए उल्लेखनीय है। प्रारंभिक मंदिरों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इनमें से कुछ मंदिरों का निर्माण पहाड़ियों को काटकर और खोखला करके कृत्रिम गुफाओं के रूप में किया गया था।

कृत्रिम गुफाएँ बनाने की परंपरा बहुत पहले से प्रचलन में थी। सर्वाधिक प्राचीन कृत्रिम गुफाओं का निर्माण ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में किया गया था। इन गुफाओं का निर्माण मौर्य सम्राट अशोक के आदेश से आजीविक संप्रदाय के संतों के लिए किया गया था। दक्षिण भारत में कुछ उत्कृष्ट कोटि की शैलकृत गुफाओं का निर्माण हुआ। अजंता की गुफाएँ स्थापत्यकला का एक उल्लेखनीय नमूना हैं। उनके स्तंभ अत्यधिक सुंदर एवं भिन्न-भिन्न डिजाइनों वाले हैं तथा इनकी आंतरिक दीवारों एवं छतों को सुंदर चित्रों से सुसज्जित किया गया है। मध्य प्रदेश में बाघ में स्तूप-गुफाएँ और विहार-गुफाएँ पर्वतों को काटकर बनाई गई हैं। एलोरां की गुफाएँ शैलकृत गुफाओं का उल्लेखनीय उदाहरण है।

इस काल में पहाड़ी के एक तरफ के पूरे खंड की कटाई करके भव्य एकाश्मीय मंदिरों का निर्माण किया गया। इन मंदिरों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी, एक बड़ा कक्ष तथा सुंदर नक्काशीदार स्तंभ। सातवीं शताब्दी में पल्लव राजा महेंद्रवर्मन तथा नरसिंहवर्मन ने मामल्लपुरम् में अनेक स्तंभों वाले विशाल कक्षों तथा सात एकाश्मीय मंदिरों का निर्माण करवाया। इन्हें सामान्यतया रथ मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस परंपरा का सर्वाधिक विकसित रूप 8वीं शताब्दी के एलोरा के कैलाशनाथ के मन्दिर में देखने को मिलता है। इसमें पूरी पहाड़ी को काटकर उसे मन्दिर का रूप दिया गया है। इस प्रकार यह कहना उचित ही होगा कि वैष्णववाद और शैववाद के उदय ने मूर्तिकला और वास्तुकला के विकास को अत्यधिक प्रोत्साहन दिया।

प्रश्न 9.
स्तूप क्यों और कैसे बनाए जाते थे? चर्चा कीजिए। उस्तूप क्यों बनाए जाते थे?
उत्तर:
स्तूप संस्कृत का एक शब्द है, जिसका अर्थ है-‘ढेर’। सामान्यतः स्तूप महात्मा बुद्ध अथवा किसी अन्य पवित्र भिक्षु के अवशेषों, जैसे-दाँत, भस्म आदि अथवा किसी पवित्र ग्रंथ पर बनाए जाते थे। अवशेष स्तूप के केंद्र में बनाए गए एक छोटे-से कक्ष में एक पेटिका में रख दिए जाते थे। स्तूप बनाने की परम्परा संभवतः बुद्ध से पहले ही प्रचलित रही होगी, किन्तु स्तूपों को बुद्ध और बौद्ध धर्म के प्रतीक के रूप में विशेष प्रसिद्धि मिली। ‘अशोकावदान’ नामक बौद्धग्रन्थ से उल्लेख मिलता है कि मौर्य सम्राट अशोक ने महात्मा बुद्ध के अवशेषों के भाग प्रत्येक महत्त्वपूर्ण शहर में बाँटकर उन पर स्तूप बनाने का आदेश दिया था। दूसरी शताब्दी ई०पू० तक भरहुत, साँची और सारनाथ जैसे स्थानों पर महत्त्वपूर्ण स्तूप बनवाए जा चुके थे। स्तूप कैसे बनाए जाते थे? स्तूप प्राय: दान के धन से बनाए जाते थे।

स्तूप बनाने के लिए दान राजाओं (जैसे सातवाहन वंश के राजा), धनी व्यक्तियों, शिल्पकारों एवं व्यापारियों की श्रेणियों और यहाँ तक कि भिक्षुओं और भिक्षुणियों के द्वारा भी दिए जाते थे। स्तूपों की वेदिकाओं तथा स्तंभों पर मिले अभिलेखों से इनके निर्माण और सजावट के लिए दिए जाने वाले दान का उल्लेख मिलता है। अभिलेखों में दानदाताओं के नामों और कभी-कभी उनके ग्रामों अथवा शहरों के नामों, व्यवसायों और संबंधियों के नामों का भी उल्लेख मिलता है। उदाहरण के लिए, साँची स्तूप के एक प्रवेशद्वार का निर्माण विदिशा के हाथीदाँत का काम करने वाले शिल्पकारों के संघ द्वारा करवाया गया था। स्तूप की निर्माण योजनानीचे एक गोलाकार आधार पर एक अर्द्धगोलाकार गुंबद बनाया जाता था, जिसे अंड कहा जाता था। अंड के ऊपर एक और संरचना होती थी जिसे हर्मिका कहा जाता था। हर्मिका, छज्जे जैसी संरचना होती थी, जिसका निर्माण ईश्वर के आसन के रूप में किया जाता था।

हर्मिका के ऊपर एक सीधा खंभा होता था, जिसे यष्टि कहा जाता था। इसके ऊपर छतरी लगी होती थी जिसे छतरावलि कहा जाता था। पवित्र स्थल को सांसारिक स्थान से पृथक् करने के लिए इसके चारों ओर एक वेदिका बना दी जाती थी। साँची और भरहुत के स्तूपों में किसी प्रकार की साज-सज्जा नहीं मिलती। उनमें केवल पत्थर की वेदिकाएँ और तोरणद्वार हैं। पत्थर की वेदिकाएँ लकड़ी अथवा बाँस के घेरे के समान थीं। चारों दिशाओं में बनाए गए तोरणद्वारों पर सुन्दर नक्काशी की गई थी। भक्तजन पूर्वी तोरणद्वार से प्रवेश करके सूर्य के पथ का अनुसरण करते हुए परिक्रमा करते थे। कालांतर में स्तूप के टीले को भी ताखों एवं मूर्तियों से अलंकृत किया जाने लगा। अमरावती और पेशावर के (आधुनिक पाकिस्तान में शाहजी-की-ढेरी) स्तूप इसके सुंदर उदाहरण हैं।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
विश्व के रेखांकित मानचित्र पर उन इलाकों पर निशान लगाइए जहाँ बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। उपमहाद्वीप से इन इलाकों को जोड़ने वाले जल और स्थल मार्गों को दिखाएँ।
उत्तर:
संकेत-

  1. भारत
  2. अफगानिस्तान
  3. जापान
  4. पाकिस्तान
  5. यूनान
  6. कोरिया
  7. श्रीलंका
  8. चीन।

विश्व का रेखांकित मानचित्र लेकर विद्यार्थी स्वयं करें।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
इस अध्याय में चर्चित धार्मिक परंपराओं में से क्या कोई परंपरा आपके अड़ोस-पड़ोस में मानी जाती है? आज किन धार्मिक ग्रंथों का प्रयोग किया जाता है? उन्हें कैसे संरक्षित और संप्रेषित किया जाता है? क्या पूजा में मूर्तियों का
प्रयोग होता है? यदि हाँ, तो क्या ये मूर्तियाँ इस अध्याय में लिखी गई मूर्तियों से मिलती-जुलती हैं या अलग हैं? धार्मिक | कृत्यों के लिए प्रयुक्त इमारतों की तुलना प्रारंभिक स्तूपों और मंदिरों से करें।
उत्तर:
स्वयं करें।

प्रश्न 12.
इस अध्याय में वर्णित धार्मिक परंपराओं से जुड़े अलग-अलग काल और इलाकों की कम-से-कम पाँच मूर्तियों और चित्रों की तसवीरें इकट्ठी कीजिए। उनके शीर्षक हटाकर प्रत्येक तसवीर दो लोगों को दिखाइए और उन्हें इसके बारे में बताने को कहिए। उनके वर्णनों की तुलना करते हुए अपनी खोज की रिपोर्ट लिखिए।
उत्तर:
स्वयं करें।

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NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 2 Kings, Farmers and Towns Early States and Economies (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 2 Kings, Farmers and Towns Early States and Economies (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 2 Kings, Farmers and Towns Early States and Economies (Hindi Medium)

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अभ्यास-प्रश्न ।
(NCERT Textbook Questions Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
आरंभिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला के उत्पादन के प्रमाणों की चर्चा कीजिए। हड़प्पा के नगरों के प्रमाण से ये प्रमाण कितने भिन्न हैं?
उत्तर:

  1. इन नगरों में मृद्भांडों के साथ-साथ गहने, उपकरण, हथियार, बर्तन और सोने-चाँदी, कांस्य, ताँबे, हाथीदाँत, शीशे, शुद्ध और पक्की मिट्टी की मूर्तियाँ भी बनाई जाती थीं।
  2. इन नगरों में वस्त्र बुनने का कार्य, बढ़ईगिरी, मृद्भांड बनाने का कार्य, आभूषण बनाने का कार्य, लोहे के औज़ार, अस्त्र-शस्त्र आदि वस्तुएँ तैयार करने का कार्य भी होता था।

भिन्नता

  1. आरंभिक ऐतिहासिक नगर हड़प्पाकालीन नगरों से अनेक मामलों में भिन्न थे। दोनों काल के मकानों एवं भवनों की बनावट एवं उनमें लगी सामग्रियों में भिन्नता थी।
  2. हड़प्पा के लोग लोहे के प्रयोग को नहीं जानते थे; जबकि आरंभिक नगरों के लोग इसका प्रयोग भली-भाँति जानते थे।
  3. हड़प्पा सभ्यता के नगर सुव्यवस्थित ढंग से बनाए गए थे; जबकि आरंभिक नगरों में इसका अभाव था।

 

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प्रश्न 2.
महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
महाजनपद की प्रमुख विशेषताएँ

  1. महाजनपद का विकास 600 ई०पू० से 320 ई०पू० के बीच हुआ।
  2. महाजनपद की संख्या 16 थी। इनमें से लगभग 12 राजतंत्रीय राज्य और 4 गणतंत्रीय राज्य थे।
  3. महाजनपदों को प्रायः लोहे के बढ़ते प्रयोग और सिक्कों के विकास के साथ जोड़ा जाता है।
  4. ज्यादातर महाजनपदों पर राजा का शासन होता था, लेकिन गण और संघ के नाम से प्रसिद्ध राज्यों में अनेक लोगों का समूह शासन करता था, इस तरह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। महावीर और बुद्ध दोनों गण से आते थे।
  5. गणराज्यों में भूमि सहित अन्य आर्थिक स्रोतों पर गण के राजाओं का सामूहिक नियंत्रण होता था।
  6. प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी जो प्रायः किलेबंद होती थी। किलेबंद राजधानियों के रखरखाव, प्रारंभिक सेनाओं और नौकरशाहों के लिए आर्थिक स्रोत की ज़रूरत होती थी।
  7. महाजनपदों में ब्राह्मणों ने लगभग छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व से संस्कृत भाषा में धर्मशास्त्र नामक ग्रंथों की रचनाएँ शुरू कीं। अन्य लोगों के लिए नियमों का निर्धारण किया गया।
  8. शासकों का काम किसानों, व्यापारियों और शिल्पकारों से कर तथा भेट वसूलना माना जाता था। संपत्ति जुटाने का एक वैध उपाय पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण करके धन इकट्ठा करना भी माना जाता था।
  9. धीरे-धीरे कुछ राज्यों ने अपनी स्थायी सेनाएँ और नौकरशाही तंत्र तैयार कर लिए। बाकी राज्य अब भी सहायक सेना पर निर्भर थे जिन्हें प्रायः कृषक वर्ग से नियुक्त किया जाता था।

प्रश्न 3.
सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण इतिहासकार कैसे करते हैं?
उत्तर:
साधारण नागरिकों के जीवन का पुनर्चित्रण करने के लिए इतिहासकार विभिन्न स्रोतों का सहारा लेते हैं

  1. इतिहासकार साधारण नागरिकों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए ग्रंथों के साथ-साथ अभिलेखों, सिक्कों और चित्रों | का भी विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों के रूप में प्रयोग करते हैं। वे सिक्कों और चित्रों से भी साधारण लोर्गों के बारे में जानने | का प्रयास करते हैं।
  2. अभिलेखों से हमें साधारण लोगों की भाषाओं के बारे में जानकारी मिलती है। प्राकृत उत्तरी भारत में और तमिल दक्षिण भारत में सर्वसाधारण की भाषा होती थी। उत्तर भारत में कुछ लोग पालि और संस्कृत का प्रयोग करते थे।
  3. भारतीय समाज के साधारण लोगों के बारे में वैदिक साहित्य से पर्याप्त जानकारी मिलती है।
  4. विभिन्न साहित्यिक साधनों से उत्तर भारत, दक्षिण भारत और कर्नाटक जैसे अनेक क्षेत्रों में विकसित हुई बस्तियों के विषय | में जानकारी मिलती है। इनसे दक्कन और दक्षिण भारत में चरवाहा बस्तियों के प्रमाण भी मिलते हैं।
  5. इतिहासकार शवों के अंतिम संस्कार के तरीकों से भी साधारण नागरिकों के जीवन का चित्रण करते हैं। साधारण लोगों के शवों के साथ विभिन्न प्रकार के लोहे से बने उपकरणों और हथियारों को भी दफनाया जाता था।
  6. इतिहासकार साधारण नागरिकों के जीवन के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए दान-संबंधी आदेशों और रिकॉर्डों को भी । अध्ययन करते हैं। भूमिदान से संबंधित विज्ञप्तियों से कृषि-विस्तार और कृषि के ढंग और उपज बढ़ाने के तरीकों के बारे में। जानकारी मिलती है। भूमिदान के प्रचलन से राज्यों और किसानों के बीच के संबंधों की झाँकी मिलती है।
  7. नगरों में रहने वाले सर्वसाधारण लोगों में धोबी, बुनकर, लिपिक, बढ़ई, कुम्हार, स्वर्णकार, लौहकार, छोटे व्यापारी और छोटे धार्मिक व्यक्ति आदि होते थे।

प्रश्न 4.
पाण्ड्य सरदार (स्रोत-3) को दी जाने वाली वस्तुओं की तुलना दंगुन गाँव (स्रोत-8) की वस्तुओं से कीजिए। आपको क्या समानताएँ और असमानताएँ दिखाई देती हैं?
उत्तर:
उल्लेखनीय है कि पांड्य सरदारों और गुप्त सरदारों दोनों को ही समय-समय पर अपनी-अपनी प्रजा से अनेक प्रकार की भेंटें उपलब्ध होती रहती थीं। पाठ्यपुस्तक के स्रोत तीन और स्रोत आठ के अध्ययन से पता चलता है कि दोनों को मिलने वाली भेंटों में कुछ समानताएँ और कुछ असमानताएँ विद्यमान थीं। समानताएँ-जब पांड्य सरदार सेनगुत्तुवन वन-यात्रा पर थे, तो उन्हें अपनी प्रजा से हाथीदाँत, सुगंधित लकड़ी, हिरणों के बाल से बने चँवर, मधु, चंदन, गेरु, सुरमा, हल्दी, इलायची, नारियल, आम, जुड़ी-बूटी, फल, प्याज, गन्ना, फूल, सुपारी जैसी महत्त्वपूर्ण वस्तुएँ एवं फल-फूल तथा बाघों के बच्चे, शेर, हाथी, बंदर, भालू, हिरण, कस्तूरी मृग, लोमड़ी, मोर, जंगली मुर्गे और बोलने वाले तोते जैसे महत्त्वपूर्ण पशु-पक्षी भेंट में प्राप्त हुए। इसी प्रकार गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त के अभिलेख से पता लगता है कि दंगुन गाँव के लोग अधिकारियों को घास, आसनों में प्रयोग की जाने वाली जानवरों की खाल, कोयला, गाँव में उपलब्ध खनिज पदार्थ, खदिर वृक्ष के उत्पाद, फूल और दूध आदि भेट में देते थे।

इन दोनों उदाहरणों में महत्त्वपूर्ण समानता यह है कि लोगों द्वारा अपने-अपने सरदारों को समय-समय पर अनेक वस्तुएँ भेंट में प्रदान की जाती थीं। दोनों उदाहरणों में स्थानीय रूप से उपलब्ध वस्तुओं के भेंट में दिए जाने का संकेत मिलता है। असमानताएँ-दोनों उदाहरणों में एक महत्त्वपूर्ण असमानता यह है कि पांड्य सरदार को मिलने वाली वस्तुओं की सूची गुप्त अथवा वाकाटक सरदार को मिलने वाली वस्तुओं की सूची की अपेक्षा अधिक विशाल है। प्रभावती गुप्त के अभिलेख से पता चलता है कि वाकाटक अधिकार क्षेत्रों में राज्य को मदिरा खरीदने और नमक हेतु खुदाई करने के राजसी अधिकारों को लागू करवाए जाने का भी अधिकार था। किंतु पांड्य अधिकार क्षेत्रों में हमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता। एक अन्य महत्त्वपूर्ण असमानता जो हमें दृष्टिगोचर होती है यह है कि पांड्य राज्य के लोगों ने नाचते-गाते हुए ठीक उसी प्रकार सेनगुत्तुवन का स्वागत किया जैसे पराजित लोग विजयी का आदर करते हैं। संभवतः पांड्य राज्य में लोग स्वेच्छापूर्वक अधिक-से-अधिक वस्तुएँ अपने शासकों को भेंट के रूप में प्रदान करते थे। ऐसा लागता है कि वाकाटक अधिकार क्षेत्रों में लोग शासकीय अधिकारियों को दायित्व के रूप में भेट प्रदान करते थे।

प्रश्न 5.
अभिलेखशास्त्रियों की कुछ समस्याओं की सूची बनाइए।
उत्तर:
अभिलेखशास्त्रियों की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित थीं

1. उन्हें अभिलेखों की लिपियों को पढ़ने में कठिनाई आती थी, क्योंकि जिन युगों के वे अभिलेख होते हैं, उनके समकालीन अभिलेखों पर कहीं भी उस लिपि का प्रयोग नहीं हुआ होता। उदाहरण के लिए-हड़प्पा सभ्यता की मोहरों और अन्य वस्तुओं पर दिये गये लेखों को अभी तक नहीं पढ़ा जा सका है।

2. कुछ अभिलेखों में एक ही राजा के लिए भिन्न-भिन्न नामों/उपाधियों अथवा सम्मानजनक प्रतीकों और संबोधनों का प्रयोग किया गया है। इसलिए अभिलेखशास्त्री को उन्हें पढ़ने या उनका अर्थ निकालने में काफी कठिनाई होती है।

3. कई बार एक ही शासक या उसके वंश से संबंधित विभिन्न क्षेत्रों के देशों में फ्लिने वाले अभिलेखों में लगभग एक ही युग में भिन्न-भिन्न भाषाओं और लिपियाँ का प्रयोग हुआ है। फलतः अभिलेखशास्त्रियों को इन्हें पढ़ने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

4. अभिलेखशास्त्री कुछ अभिलेखों पर अंकित लिपि को पढ़ने में असमर्थ होते हैं क्योंकि उनके समकालीन अभिलेखों पर कहीं भी उस लिपि का उल्लेख नहीं मिलता। दो भाषाओं के समानांतर प्रयोग के अभाव में अभिलेखशास्त्री असहाय हो जाते हैं।

5. अशोक के अधिकांश अभिलेख प्राकृत में हैं, जबकि परिचश्मोत्तर से मिले अभिलेख अरोमाइक और यूनानी भाषा में हैं। प्राकृत के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए थे, जबकि पश्चिमोत्तर के कुछ अभिलेख खरोष्ठी में लिखे गए थे। अरामाइक और यूनानी लिपियों का प्रयोग अफ़गानिस्तान से मिले अभिलेखों में किया गया।

6. प्रायः अभिलेखों में प्रयुक्त वाक्यों से उनके अर्थ को समझने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। उदाहरणार्थ अशोक की कलिंग विजयोपरांत तेरहवें शिलालेख में लिखा है-“डेढ़ लाख पुरुषों को निष्कासित किया गया; एक लाख मारे गए और इससे भी ज्यादा की मृत्यु हुई।” यह भाषा काफी भ्रमात्मक है।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में) 

प्रश्न 6.
मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। अशोक के अभिलेखों में इनमें से कौन-कौन से तत्त्वों के प्रमाण मिलते हैं?
उत्तर:
मौर्य प्रशासन की प्रमुख विशेषताएँ-मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। इसी नगर से मौर्य साम्राज्य के संस्थापक
चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने साम्राज्य को चारों दिशाओं में विस्तृत किया था। मौर्य साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में अफगानिस्तान और बलूचिस्तान से लेकर दक्षिण में सिद्धपुर तक, पूर्व में बिहार से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला हुआ था। अशोक ने कलिंग (उड़ीसा) को जीतकर मौर्य साम्राज्य को और अधिक विस्तृत किया।

1. केंद्रीय शासन-
सम्राट तथा उसके मंत्रियों द्वारा सीधे राजधानी से संचलित होने वाले शासन को केंद्रीय शासन कहते हैं। इस केंद्रीय शासन के अंतर्गत सम्राट के कार्य, मंत्रिपरिषद्, न्याय-व्यवस्था, सैनिक व्यवस्था, पुलिस, गुप्तचर तथा लोक-कल्याणकारी कार्यों आदि के प्रबंध का विस्तृत विवरण निम्नलिखित है1. सम्राट-चंद्रगुप्त द्वारा स्थापित शासन व्यवस्था पूर्णत: केंद्रीय शासन व्यवस्था थी। संपूर्ण साम्राज्य पर केंद्रीय शासन को नियंत्रण था। इस केंद्रीय शासन का प्रमुख सम्राट था जो सर्वशक्तिशाली एवं शासन का केंद्रबिंदु था। वही कानून बनाने की, उन्हें लागू करने की तथा न्याय करने की अंतिम शक्ति रखता था। वह स्वयं सेना के संगठन की व्यवस्था करता था तथा युद्ध में सेना का संचालन करता था।

अतः इस दृष्टि से वह स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासक था। इतिहासकार स्मिथ का कहना है कि-“चंद्रगुप्त के शासन प्रबंध से जो तथ्य प्रकट होते हैं, उनसे सिद्ध होता है कि वह कठोर निरंकुश शासक था।” किंतु चंद्रगुप्त के शासन प्रबंध ने जो शक्तियाँ सम्राट को दी थीं, वे केवल सैद्धांतिक रूप से ही उसके पास थीं। वह उन शक्तियों को व्यवहार में लाने से पूर्व अपने मंत्रियों व परामर्शदाताओं से सलाह करता था। सम्राट पर परंपरागत कानूनों तथा नैतिक कानूनों को भी बंधन था। चाणक्य ने राजा के कर्तव्यों का विस्तार से वर्णन किया है और उसमें राजा को जनहित के कार्यों के लिए प्रेरित किया है। ऐसा न करने पर राजा अपनी प्रजा के ऋण से निवृत्त नहीं हो सकता। इस प्रकारे चंद्रगुप्त मौर्य को हम उदार निरंकुश शासक कह सकते हैं।

2. मंत्रिपरिषद्-
कौटिल्य का विश्वास था कि सम्राट राज्य का एक पहिया है। राज्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए दूसरे पहिए मंत्रिपरिषद् की आवश्यकता होती है जो अति महत्त्वपूर्ण मामलों पर सम्राट को परामर्श दे सके। सम्राट मंत्रिपरिषद् के सदस्यों को उनकी बुद्धिमत्ता तथा सच्चरित्रता देखकर नियुक्ति करता था। ये वेतनभोगी होते थे। मंत्रिपरिषद् के निर्णय सर्वमान्य होते थे किंतु राजा को विशेषाधिकार भी प्राप्त थे और वह उन निर्णयों को मानने के लिए बाध्य न था। ऐसा प्रतीत होता है कि अति महत्त्वपूर्ण मामलों पर निर्णय लेने के लिए ही मंत्रिपरिषद् की बैठक बुलाई जाती थी। दैनिक कार्यों के लिए मंत्रिपरिषद् की एक अंतरंग सभा जिसमें प्रधानमंत्री, पुरोहित, सेनापति आदि होते थे, की व्यवस्था की गई।

3. न्याय व्यवस्था-
चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने विद्वान तथा कूटनीतिज्ञ महामंत्री चाणक्य के परामर्श से एक श्रेष्ठ न्याय व्यवस्था की स्थापना की थी। आज भी सभ्य संसार में उस न्याय व्यवस्था के मूल तत्वों का अनुकरण किया जा रहा है। संपूर्ण न्याय व्यवस्था का प्रधान न्यायाधीश सम्राट चंद्रगुप्त स्वयं था। उसके नीचे अनेक छोटे-बड़े न्यायाधीश होते थे। नगरों व जनपदों के लिए अलग-अलग न्यायाधीशों की व्यवस्था थी। नगरों में न्यायाधीश ‘राजुक’ कहलाते थे। ग्रामों में पंचायतें भी छोटे-छोटे मुकदमों का फैसला करती थीं। न्यायालय दो प्रकार के होते थे-दीवानी (धन संबंधी) मुंकदमों का फैसला करने वाले न्यायालय ‘धर्मस्थीय’ कहलाते थे और फौजदारी मुकदमों का फैसला करने वाले न्यायालय ‘कण्टकशोधन’ कहलाते थे। निचले न्यायालयों के मुकदमों के फैसलों के विरुद्ध अपीलें बड़े न्यायालयों में सुनी जाती थीं। अपराधों को कम करने के लिए चंद्रगुप्त के काल में कठोर दंड दिए जाते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार अठारह प्रकार के दंड दिए जाते थे। जुर्माने, अंगभंग तथा मृत्युदंड का दंड साधारण रूप में दिया जाता था। कठोर दंड के कारण अपराध बहुत कम हो गए थे। लोग घरों में बिना ताला लगाए भी बाहर चले जाते थे।

4. सैनिक व्यवस्था-
चंद्रगुप्त मौर्य ने चतुरंगिणी की व्यवस्था की थी अर्थात् उसकी सेना चार भागों में विभाजित थीं-पैदल, अश्वारोही, हाथी, रथ। इसके अतिरिक्त उसने जल सेना का भी गठन किया था। मेगस्थनीज़ ने चंद्रगुप्त की सैनिक व्यवस्था का विस्तार से वर्णन किया है। उसके अनुसार उसकी सेना में छह लाख पैदल सैनिक, तीस हज़ार अश्वारोही, नौ हज़ार हाथी तथा आठ हजार रथ थे। इतनी विशाल सेना रखने का प्रमुख कारण चंद्रगुप्त की महत्त्वाकांक्षाएँ थीं। उसने अनेक छोटे राज्यों को जीतकर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना सेना के आधार पर ही की थी। वास्तव में वह युग ‘सैनिक युग था और साम्राज्य का आधार सेना होती थी। चंद्रगुप्त ने इसी विशाल सेना के आधार पर यवनों को पराजित करके देश से बाहर खदेड़ा, नंदवंश का नाश किया और सुव्यवस्थित शासन के द्वारा शांति स्थापित की।

सम्राट प्रधान सेनापति होता था। वह युद्ध में सेना का संचालन भी करता था। चंद्रगुप्त इस विशाल सेना की व्यवस्था के लिए एक ‘युद्ध-परिषद्’ का गठन किया था जिसके तीस सदस्य थे। ये तीस सदस्य छह समितियों में विभाजित थे। इस प्रकार पाँच सदस्यों की प्रत्येक समिति सेना के एक भाग की व्यवस्था देखती थी। पहली समिति जल सेना का प्रबंध करती थी, दूसरी समिति सेना के लिए विभिन्न प्रकार की सामग्री तथा रसद का प्रबंध करती थी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं एवं छठी समितियाँ क्रमशः पैदल, अश्वारोही, हाथी तथा रथ सेना की व्यवस्था देखती थी। ये सेनाएँ स्थायी थीं। राज्यकोष से सैनिकों को वेतन मिलता था।

5. राजा के अधिकारियों के कार्य-
मौर्य सम्राट के द्वारा नियुक्त विभिन्न अधिकारी विभिन्न कार्यों का निरीक्षण किया करते थे। साम्राज्य के अधिकारियों में से कुछ नदियों की देख-रेख और भूमिमापन का काम करते थे। कुछ प्रमुख नहरों से उपहारों के लिए छोड़े जाने वाले पानी के मुखद्वार का निरीक्षण करते थे ताकि हर स्थान पर पानी की समान पूर्ति हो सके। यही अधिकारी शिकारियों का संचालन करते थे और शिकारियों के कृत्यों के आधार पर उन्हें इनाम या दंड देते थे। वे कर वसूली करते थे और भूमि से जुड़े सभी व्यवसायों का निरीक्षण करते थे। साथ ही लकड़हारों, बढ़ई, लोहारों और खननकर्ताओं का भी निरीक्षण करते थे।

मौर्यकालीन शीर्षस्थ अधिकारी (तीर्थ)
NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 2 (Hindi Medium) 3

अशोक के अभिलेखों में मौर्य प्रशासन के प्रमुख तत्त्व अशोक के अभिलेखों में हमें मौर्य प्रशासन के अनेक प्रमुख तत्वों की झलक मिलती है। अभिलेखों में हमें प्रशासन के प्रमुख केंद्रों, पाटलिपुत्र, तक्षशिला, उज्जैन, सुवर्णगिरि, तोशाली, कौशाम्बी आदि का बार-बार उल्लेख मिलता है। कलिंग अभिलेखों से पता चलता है कि तोशाली और उज्जैन के शासनाध्यक्षों को ‘कुमार’ कहा जाता था। ब्रह्मगिरि-सिद्धपुर अभिलेखों में । सुवर्णगिरि के शासनाध्यक्ष को ‘आर्यपुत्र’ कहा गया है।

अशोक के अभिलेखों में हमें महामात्रों और धर्म-महामात्रों का भी बार-बार उल्लेख मिलता है। महाशिलालेख V से पता चलता है कि सम्राट ने अपने राज्याभिषेक के तेरह वर्ष बाद महामात्रों की नियुक्ति प्रारंभ की थी। स्तंभ लेख VII में धर्म महामात्रों के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें कहा गया है कि धम्म-महामात्रों को सभी वर्गों में धर्म का प्रचार करना चाहिए और धम्म का अनुसरण करने वालों की उन्नति की ओर ध्यान देना चाहिए। अशोक ने स्त्रियों की भलाई के लिए स्त्रीअध्यक्ष महामात्रों की नियुक्ति की थी। उनका उल्लेख भी अभिलेखों में मिलता है। जिला प्रशासन में नियुक्त राजुक तथा युक्त जैसे अधिकारियों का उल्लेख महाशिलालेख III और स्तंभ लेख I और IV में मिलता है। स्तंभ लेख IV से पता चलता है कि राजुक का प्रमुख कार्य जनपद के लोगों की भलाई के लिए करना था।

अशोक ने उन्हें लोगों को अच्छे कामों के लिए सम्मानित करने तथा बुरे कामों के लिए दंडित करने का अधिकार भी प्रदान कर दिया था। महाशिलालेख III से पता चलता है कि युक्त के कार्यों में मुख्य रूप से सचिव के कार्य सम्मिलित थे। राजस्व का संग्रह और उसका हिसाब रखना उसके कार्यों के अंतर्गत आता था। महाशिलालेख VI और अन्य शिलालेखों में भी प्रतिवेदकों का उल्लेख मिलता है। प्रतिवेदक सम्राट अथवा केंद्रीय सरकार के प्रमुख संवाददाता होते थे। उनकी पहुँच सीधे सम्राट तक थी। महाशिलालेख VI से पता चलता है कि सम्राट अशोक को सदा प्रजाहिंत की चिंता रहती थी। इसमें कहा गया है- राजन् देवानांपिय पियदस्सी यह कहते हैं; अतीत में मसलों को निपटाने और नियमित रूप से सूचना एकत्र करने की व्यवस्थाएँ नहीं थीं। किन्तु मैंने व्यवस्था की है कि लोगों के समाचार हम तक प्रतिवेदक सदैव पहुँचाए।

चाहे मैं कहीं भी हूँ, खाना खा रहा हूँ, अन्त:पुर में हूँ, विश्राम कक्ष में हूँ, गोशाले में हूँ या फिर पालकी में मुझे ले जाया जा रहा हो अथवा वाटिका में हूँ। मैं लोगों के विषयों का निराकरण हर स्थल पर करूंगा।” इसी प्रकार धर्मसहनशीलता जो मौर्य प्रशासन का एक प्रमुख अभिलक्षण था, का उल्लेख भी हमें अशोक के शिलालेखों में मिलता है। महाशिलालेख XII में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मनुष्य को अपने धर्म का आदर करना चाहिए, किन्तु दूसरे धर्मों की निन्दा नहीं करनी चाहिए। नि:संदेह, मौर्य साम्राज्य का भारतीय इतिहास में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह साम्राज्य भारत भूमि पर स्थापित साम्राज्यों में सबसे पहला और सर्वाधिक विशाल साम्राज्य था। इसे साम्राज्य की स्थापना के साथ ही भारतीय इतिहास अंधकार से प्रकाश के युग में प्रवेश करता है।

प्रश्न 7.
यह बीसवीं शताब्दी के एक सुविख्यात अभिलेखशास्त्री, डी०सी० सरकार का वक्तव्य है-भारतीयों के जीवन, संस्कृति और गतिविधियों का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिनका प्रतिबिंब अभिलेखों में नहीं है : चर्चा कीजिए।
उत्तर:
पत्थर, धातु अथवा मिट्टी के बर्तन जैसी कठोर सतह पर खुदे हुए लेखों को अभिलेख के नाम से जाना जाता है। अभिलेख अथवा उत्कीर्ण लेख पुरातात्विक साधनों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन हैं। अभिलेख प्रस्तर स्तूपों, शिलाओं, मंदिरों की दीवारों, ईंटों, मूर्तियों, ताम्रपत्रों और मुहरों आदि पर मिलते हैं। अभिलेखों में उनके निर्माताओं की उपलब्धियों, क्रियाकलापों अथवा विचारों का उल्लेख होता है। इनमें राजाओं के क्रियाकलापों एवं स्त्री-पुरुषों द्वारा धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का विवरण होता है। अभिलेख एक प्रकार के स्थायी प्रमाण होते हैं। इनमें साहित्य के समान हेर-फेर नहीं किया जा सकता। अतः इस दृष्टि से अभिलेखों का महत्त्व और भी

अधिक बढ़ जाता है। अनेक अभिलेखों में उनके निर्माण की तिथियाँ भी उत्कीर्ण हैं। जिन पर तिथि नहीं मिलती, उनका काल निर्धारण सामान्यत: पुरालिपि अथवा लेखन शैली के आधार पर किया जाता है। अभिलेखों में मौर्य सम्राट अशोक के स्तम्भ लेख तथा शिलालेख सर्वाधिक प्राचीन एवं अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। ये अभिलेख उसके विशाल साम्राज्य के सभी भागों से प्राप्त हुए हैं। सम्राट अशोक के अभिलेख चार लिपियों में मिलते हैं। अफगानिस्तान के शिलालेखों में अरामाइक और यूनानी लिपियों का प्रयोग किया गया है। पाकिस्तान क्षेत्र के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में हैं। उत्तर में उत्तराखंड में कलसी से लेकर दक्षिण में मैसूर तक फैले अशोक के शेष साम्राज्य के अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं।

अशोक के अभिलेख उसके शासनकाल के विभिन्न वर्षों में उत्कीर्ण किए गए थे। उन्हें राज्यादेश अथवा शासनादेश कहा जाता है, क्योंकि वे राजा की इच्छा अथवा आदेशों के रूप में प्रजा के लिए प्रस्तुत किए गए थे। नि:संदेह अभिलेख प्राचीन इतिहास के पुनर्निर्माण में हमारी महत्त्वपूर्ण सहायता करते हैं। चट्टानों अथवा स्तंभों पर उत्कीर्ण लेखों के प्राप्ति स्थानों से संबंधित शासक के राज्य की सीमाओं का भी अनुमान लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए अशोक के अभिलेखों के प्राप्ति स्थानों से उसके राज्यविस्तार पर प्रकाश पड़ता है। अशोक के बाद के अभिलेखों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-सरकारी अभिलेख और निजी अभिलेख। सरकारी अभिलेख या तो राजकवियों की लिखी हुई प्रशस्तियाँ हैं या भूमि अनुदान-पत्र। प्रशस्तियों में राजाओं और विजेताओं के गुणों राजा, किसान और नगर के और कीर्तियों का वर्णन किया गया है।

प्रशस्तियों का प्रसिद्ध उदाहरण-समुद्रगुप्त का प्रयोग अभिलेख है, जो अशोक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की विजयों और नीतियों का पूर्ण विवरण उपलब्ध होता है। गुप्तकाल के अधिकांश अभिलेखों में वंशावलियों का वर्णन है। इसी प्रकार राजा भोज की ग्वालियर प्रशस्ति में उसकी उपलब्धियों का वर्णन है। कलिंगराज खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, रुद्रदामा का गिरनार शिलालेख, स्कंदगुप्त का भीतरी स्तंभ लेख, बंगाल के शासक विजय सेन का देवपाड़ा अभिलेख और चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख इस प्रकार के अभिलेखों के अन्य उदाहरण हैं। भूमि अनुदान-पत्र अधिकतर ताम्रपत्रों पर उकेरे गए हैं। इनमें ब्राह्मणों, भिक्षुओं, जागीरदारों, अधिकारियों, मंदिरों और विहारों आदि को दिए गए गाँवों, भूमियों और राजस्व के दानों का उल्लेख है।

ये प्राकृत, संस्कृत, तमिल, तेलुगु आदि विभिन्न भाषाओं में लिखे गए हैं। निजी अभिलेख अधिकांशतः मंदिरों में या मूर्तियों पर उत्कीर्ण हैं। इन पर खुदी तिथियों से इन मंदिरों के निर्माण एवं मूर्ति प्रतिष्ठापन के समय का पता लगता है। ये अभिलेख तत्कालीन धार्मिक दशा, मूर्तिकला, वास्तुकला एवं भाषाओं के विकास पर भी प्रकाश डालते हैं। उदाहरण के लिए, गुप्तकाल से पहले के अधिकांश अभिलेखों की भाषा प्राकृत है और उनमें बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म का उल्लेख है। गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल के अधिकांश अभिलेखों में ब्राह्मण धर्म का उल्लेख है और उनकी भाषा संस्कृत है। निजी अभिलेख तत्कालीन राजनैतिक दशा पर भी पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। अतः बीसवीं शताब्दी के एक सुविख्यात अभिलेखशास्त्री डी०सी० सरकार के शब्दों में यह कहना उचित ही होगा कि-” भारतीयों के जीवन, संस्कृति और गतिविधियों का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिसका प्रतिबिम्ब अभिलेखों में नहीं है।”

प्रश्न 8.
उत्तर मौर्यकाल में विकसित राजत्व के विचारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
उत्तर मौर्यकाल में राजधर्म के विचार
1. उत्तर मौर्यकाल में राजाओं ने अपने अस्तित्व को ऊँचा बनाए रखने के लिए अपने अपको देवी-देवताओं से जोड़ लिया। मध्य एशिया से लेकर पश्चिमोत्तर भारत तक शासन करने वाले कुषाण शासकों ने (लगभग प्रथम शताब्दी ई०पू० से प्रथम शताब्दी ई० तक) इस उपाय का सबसे अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया।

2. जिस प्रकार के राजधर्म को कुषाण शासकों ने प्रस्तुत करने के इच्छा की, उसका सर्वोत्तम प्रमाण उनके सिक्कों और मूर्तियों से प्राप्त होता है। उत्तर प्रदेश में मथुरा के पास माट के एक देवस्थान पर कुषाण शासकों की विशालकाय मूर्तियाँ लगाई गई थीं। अफगानिस्तान के एक देवस्थान पर भी इसी प्रकार की मूर्तियाँ मिली हैं।

3. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इन मूर्तियों के जरिए कुषाण स्वयं को देवतुल्य प्रस्तुत करना चाहते थे। कई कुषाण शासकों ने अपने नाम के आगे ‘देवपुत्र’ की उपाधि भी लगाई थी। संभवतः वे उन चीनी शासकों से प्रेरित हुए होंगे, जो स्वयं को ‘स्वर्गपुत्र’ कहते थे।

4. चौथी शताब्दी ई० में गुप्त साम्राज्य सहित कई साम्राज्य सामंतों पर निर्भर थे। अपना निर्वाह स्थानीय संसाधनों द्वारा करते थे। जिसमें भूमि पर नियंत्रण भी शामिल था। वे शासकों का आदर करते थे और उनकी सैनिक सहायता भी करते थे। जो सामंत शक्तिशाली होते थे वे राजा भी बन जाते थे और जो राजा दुर्बल होते थे, वे बड़े शासकों के अधीन हो जाते थे।

5. गुप्त शासकों का इतिहास साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों की सहायता से लिखा गया है। साथ ही कवियों द्वारा अपने राजा या स्वामी की प्रशंसा में लिखी प्रशस्तियाँ भी उपयोगी रही हैं। यद्यपि इतिहासकार इन रचनाओं के आधार पर ऐतिहासिक तथ्य निकालने का प्रायः प्रयास करते हैं, लेकिन उनके रचयिता तथ्यात्मक विवरण की अपेक्षा उन्हें काव्यात्मक ग्रंथ मानते थे। उदाहरण के तौर पर इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख के नाम से प्रसिद्ध प्रयाग प्रशस्ति की रचना हरिषेण जो स्वयं गुप्त सम्राटों के संभवतः सबसे शक्तिशाली सम्राट समुद्रगुप्त के राजकवि थे, ने संस्कृत में की थी।

प्रश्न 9.
वर्णित काल में कृषि के तौर-तरीकों में किस हद तक परिवर्तन हुए?
उत्तर:
वर्णित काल में कृषि के क्षेत्र में आए परिवर्तन

1. करों की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए किसानों ने उपज बढ़ाने के नए तरीके अपनाने शुरू कर दिए। उपज बढ़ाने का एक तरीका हल का प्रचलन था। जो छठी शताब्दी ई०पू० से ही गंगा और कावेरी की घाटियों के उर्वर कछारी क्षेत्र में फैल गया था। जिन क्षेत्रों में भारी वर्षा होती थी, वहाँ लोहे के फाल वाले हलों के माध्यम से उर्वर भूमि की जुताई की जाने लगी। इसके अलावा गंगा की घाटी में धान की रोपाई की वजह से उपज में भारी वृद्धि होने लगी।

2. यद्यपि लोहे के फाल वाले हल की वजह से फसलों की उपज बढ़ने लगी, लेकिन ऐसे हलों का उपयोग उपमहाद्वीप के कुछ ही हिस्से में सीमित था। पंजाब और राजस्थान जैसी अर्धशुष्क जमीन वाले क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हल का प्रयोग बीसवीं सदी में शुरू हुआ। जो किसान उपमहाद्वीप के पूर्वोत्तर और मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में रहते थे उन्होंने खेती के लिए कुदाल का उपयोग किया, जो ऐसे इलाके के लिए कहीं अधिक उपयोगी था।

3. उपज बढ़ाने का एक और तरीका कुओं, तालाबों और कहीं-कहीं नहरों के माध्यम से सिंचाई करना था। कृषक समुदायों ने मिलकर सिंचाई के साधन निर्मित किए। व्यक्तिगत तौर पर तालाबों, कुओं और नहरों जैसे सिंचाई साधन निर्मित करने वाले लोग प्रायः राजा या प्रभावशाली लोग थे, जिन्होंने अपने इन कामों का उल्लेख अभिलेखों में भी करवाया।

4. यद्यपि खेती की इन नयी तकनीकों से उपज तो बढ़ी, लेकिन इसके लाभ समान नहीं थे। इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि खेती से जुड़े लोगों में उत्तरोत्तर भेद बढ़ता जा रहा था। कहानियों में विशेषकर बौद्ध कथाओं में भूमिहीन खेतिहर श्रमिकों, छोटे किसानों और बड़े-बड़े जमींदारों का उल्लेख मिलता है। पालि भाषा में गहपति का प्रयोग छोटे किसानों और जमीदारों के लिए किया जाता था। बड़े-बड़े जमींदार और ग्राम प्रधान शक्तिशाली माने जाते थे, जो प्रायः किसानों पर नियंत्रण रखते थे। ग्राम प्रधान का पद प्रायः वंशानुगत होता था। |

5. आरंभिक तमिल संगम साहित्य में भी गाँवों में रहने वाले विभिन्न वर्गों के लोगों; जैसे-बड़े जमींदारों, हलवाहों और दासों का उल्लेख मिलता है। बड़े जमींदारों को ‘वेल्लार’, हलवाहों को ‘उझावर’ तथा दासों को ‘आदिमई’ कहा जाता था। यह संभव है कि वर्गों की इस विभिन्नता का कारण भूमि के स्वामित्व, श्रम और नयी प्रौद्योगिकी के उपयोग पर आधारित हो। ऐसी परिस्थिति में भूमि का स्वामित्व महत्त्वपूर्ण हो गया। जिनकी चर्चा विधि ग्रंथों में प्रायः की जाती थी।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
मानचित्र 1 और 2 की तुलना कीजिए और उन महाजनपदों की सूची बनाइए जो मौर्य साम्राज्य में शामिल रहे होंगे। क्या इस क्षेत्र में अशोक के कोई अभिलेख मिले हैं?
NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 2 (Hindi Medium) 1
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उत्तर:
महाजनपदों की सूची-

  1. कंबोज,
  2. गांधार,
  3. कुरु,
  4. शूरसेन,
  5. मत्स्य,
  6. अवन्ति,
  7. चेदि,
  8. वत्स,
  9. अस्मक,
  10. मगध,
  11. अंग,
  12. वज्जि,
  13. मल्ल,
  14. विदेह,
  15. काशी,
  16. पांचाल।

हाँ, इन क्षेत्रों से अशोक के अभिलेख प्राप्त हुए हैं। उपर्युक्त संकेत के आधार पर स्वयं करें।

परियोजना कार्य (कोई एक)।

प्रश्न 11.
एक महीने के अखबार एकत्रित कीजिए। सरकारी अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक कार्यों के बारे में दिए गए वक्तव्यों को काटकर एकत्रित कीजिए। समीक्षा कीजिए कि इन परियोजनाओं के लिए आवश्यक संसाधनों के बारे में खबरों में क्या लिखा है? संसाधनों को किस प्रकार से एकत्र किया जाता है और परियोजनाओं का उद्देश्य क्या है? इन वक्तव्यों को कौन जारी करता है और उन्हें क्यों और कैसे प्रसारित किया जाता है? इस अध्याय में चर्चित
अभिलेखों के साक्ष्यों से इनकी तुलना कीजिए। आप इनमें क्या समानताएँ और असमानताएँ पाते हैं? ।
उत्तर:
संकेत-विद्यार्थी विभिन्न समाचार पत्रों; जैसे-नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया, दि हिंदू, ट्रिब्यून, स्टेट्समैन, राष्ट्रीय सहारा, राष्ट्रीय उजाला, पंजाब केसरी आदि से जानकारी एकत्रित कर सकते हैं। इन समाचार पत्रों से महत्त्वपूर्ण समाचारों/कथनों को काटकर अपने इतिहास के कॉपी में चिपका सकते हैं। दूरदर्शन से भी छात्र जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। अशोक के अभिलेखों में जो कार्य या निर्देश अधिकारियों को दिये गये हैं, उनके साथ वर्तमान या समकालीन परियोजनाओं की तुलना की जा सकती है। तुलना में समानताएँ एवं असमानताएँ दोनों ही उल्लेखित की जानी चाहिए। उपर्युक्त संकेत के आधार पर विद्यार्थी स्वयं करें।

प्रश्न 12.
आज प्रचलित पाँच विभिन्न नोटों और सिक्कों को इकट्ठा कीजिए। इनके दोनों ओर आप जो देखते हैं, उनका वर्णन कीजिए। इन पर बने चित्रों, लिपियों और भाषाओं, माप, आकार या अन्य समानताओं और असमानताओं के बारे में एक रिपोर्ट तैयार कीजिए। इस अध्याय में दर्शित सिक्कों में प्रयुक्त सामग्रियों तकनीकों, प्रतीकों, उनके महत्त्व और सिक्कों के संभावित कार्य की चर्चा करते हुए इनकी तुलना कीजिए।
उत्तर:
संकेत-विद्यार्थी विभिन्न नोटों और सिक्कों को इकट्ठा करें तथा उन नोटों और सिक्कों का पुस्तक में वर्णित, चित्रित या उल्लेखित मुद्राओं/सिक्कों से तुलना विद्यार्थी स्वयं करें।

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NCERT Solutions for Class 12 Geography Practical Work in Geography Chapter 3 Graphical Representation of Data (Hindi Medium)

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अभ्यास प्रश्न (पाठ्यपुस्तक से)

प्र० 1. नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर को चुनिए।
(i) जनसंख्या वितरण दर्शाया जाता है।
(क) वर्णमात्री मानचित्र द्वारा
(ख) सममान रेखा मानचित्रों द्वारा
(ग) बिंदुकित मानचित्रों द्वारा
(घ) ऊपर में से कोई भी नहीं
(ii) जनसंख्या की दशकीय वृद्धि को सबसे अच्छा प्रदर्शित करने का तरीका है।
(क) रेखा ग्राफ
(ख) दंड आरेख
(ग) वृत्त आरेख
(घ) ऊपर में से कोई भी नहीं
(iii) बहुरेखाचित्र की रचना प्रदर्शित करती है।
(क) केवल एक चर
(ख) दो चरों से अधिक
(ग) केवल दो चर
(घ) ऊपर में से कोई भी नहीं
(iv) कौन-सा मानचित्र गतिदर्शी माना जाता है।
(क) बिंदुकित मानचित्र
(ख) सममान रेखा मानचित्र
(ग) वर्णमात्री मानचित्र
(घ) प्रवाह संचित्र

उत्तर:
(i) (ग) बिंदुकित मानचित्रों द्वारा
(ii) (क) रेखा ग्राफ
(iii) (ख) दो चरों से अधिक
(iv) (घ) प्रवाह संचित्र

प्र० 2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
(i) थिमैटिक मानचित्र क्या है?
उत्तर: थिमैटिक मानचित्र को विषयक मानचित्र अथवा वितरण मानचित्र भी कहा जाता है। इसमें चुने गए क्षेत्र/प्रदेश की विविधताओं व विशेषताओं को प्रदर्शित करने के लिए बिंदुकित, वर्णमात्री अथवा सममान रेखा विधि का उपयोग करके मानचित्र तैयार किए जाते हैं।
(ii) आंकड़ों के प्रस्तुतीकरण से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर: आंकड़ों के बेहतर प्रस्तुतीकरण के लिए उन्हें तालिकाबद्ध वे वर्गीकृत किया जाता है। तुलनात्मक अध्ययन हेतु उनको आरेखों व मानचित्रों के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। उपयुक्त निष्कर्ष निकालने हेतु उन्हें अनेक प्रकार के प्रक्रमण की आवश्यकता होती है। तब जाकर, वे प्रस्तुतीकरण के योग्य बन पाते हैं।
(iii) बहुदंड आरेख और यौगिक दंड आरेख में अंतर बताइए।
उत्तर: बहुदंड आरेख में किसी घटक के विभिन्न तत्वों को समूह में एक साथ प्रदर्शित किया जाता है जैसे भारत की कुल साक्षरता दर की दशकीय वृद्धि को एक दंड द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। उसी के साथ स्त्री व पुरुष साक्षरता दर को भी अलग-अलग दंडों के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। जबकि यौगिक दंड आरेख पर किसी घटक के विभिन्न तत्वों को एक ही दंड पर प्रदर्शित किया जाता है। जैसे – भारत में विद्युत का कुल उत्पादन एक दंड/आयत पर दिखाया जाता है। उसी दंड पर तापीय विद्युत, जलीय विद्युत न नाभिकीय विद्युत के योगदान को उनकी मात्रा के अनुरूप दिखाया जाता है। यह उत्पादन दिए गए वर्ष के अनुरूप प्रदर्शित किया जाता है।
(iv) एक बिंदुकित मानचित्र की रचना के लिए क्या आवश्यकताएँ हैं?
उत्तर: बिंदुकित मानचित्र किसी एक तत्व जैसे-जनसंख्या या फसल आदि के वितरण को प्रदर्शित करने के लिए बनाए जाते हैं। एक बिंदु को मान/मूल्य निर्धारित कर मापनी तय की जाती है। एक ही आकार-प्रकार के बिंदु, वितरण के प्रतिरूप को प्रदर्शित करने के लिए चुने हुए क्षेत्र/प्रदेश पर अंकित किए जाते हैं।
(v) सममान रेखा मानचित्र क्या है? एक क्षेपक को किस प्रकार कार्यान्वित किया जाता है।
उत्तर: मानचित्र पर किसी भौगोलिक लक्षण अथवा जलवायविक तत्वों को जैसे-ऊँचाई, तापमान, वायुदाब, वर्षा व लवणता के समान मानों वाले स्थानों को मिलाने वाली काल्पनिक रेखा को सममान रेखा (Isopleth) कहते हैं। इनके विशेष उदाहरण हैं-समोच्च रेखाएँ (Isohypses or contouns), समताप रेखाएँ (Isotherms), समदाव रेखाएँ (Isobars), समवर्षा रेखाएँ (Isohyets), समगंभीरता रेखाएँ (Isobaths) समभूकंप रेखाएँ (Isoseismallines), समलवणता रेखाएँ (Isohaline), समदिक्पाती रेखाएँ (Isogones), सममेघ रेखाएँ (Isonephs) आदि। सममान रेखाओं को (Isolines) भी कहा जाता है।
क्षेपक – समान मानों के स्थानों को मिलाने वाली सममान रेखाओं का चित्रण ही क्षेपक कहलाता है। क्षेपक का उपयोग । दो स्थानों के प्रेक्षित मानों के बीच माध्यमान प्राप्त करने के लिए किया जाता है। क्षेपक ज्ञात करने की विधि है।
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(vi) एक वर्णमात्री मानचित्र को तैयार करने के लिए अनुसरण करने वाले महत्वपूर्ण चरणों की सचित्र व्याख्या कीजिए।
उत्तर: वर्णमात्री अथवा छाया विधि के द्वारा मानचित्र पर विभिन्न भौगोलिक तथ्यों की मात्रा/माप को रंगों की विभिन्न आभाओं अथवा छायाओं के द्वारा इस तरह प्रदर्शित किया जाता है कि अधिक मान के लिए गहरा तथा उसके बाद के मानों के लिए क्रमश हल्के रंग/छायाओं/आभाओं का प्रयोग किया जाता है। इसे अंग्रेजी में Choropleth कहा जाता है। वर्गामात्री मानचित्र तैयार करने के लिए विभिन्न चरणों का अनुसरण करते हैं
(क) एकत्रित आंकड़ों को आरोही अथवा अवरोही क्रम में व्यवस्थित करना।
(ख) आंकड़ों को उनके पास (अधिकतम-न्यूनतम मान की गणना करके) के अनुसार पांच अथवा उपयुक्त श्रेणियों में वर्गीकृत करना।
(ग) जिन प्रशासकीय इकाइयों के आंकड़े एकत्रित किए गए हैं उन्हें दर्शाने वाले क्षेत्रों का एक सुस्पष्ट मानचित्र । प्राप्त करना। उदाहरण–तालिका 3.10 भारत में साक्षरता दर 2001
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NCERT Solutions for Class 12 Geography Practical Work in Geography Chapter 3 (Hindi Medium) 2.3
NCERT Solutions for Class 12 Geography Practical Work in Geography Chapter 3 (Hindi Medium) 2.4
NCERT Solutions for Class 12 Geography Practical Work in Geography Chapter 3 (Hindi Medium) 2.5
(vii) आंकड़ों को वृत्त आरेख की सहायता से प्रदर्शित करने के लिए महत्वपूर्ण चरणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर: वृत्त आरेख आंकड़ों को प्रदर्शित करने की एक उपयोगी विधि है। इसमें दिए गए विभिन्न चरों आंकड़ों के कुल मूल्य को एक वृत्त जो कि 360° का होता है, के अंदर दर्शाया जाता है।
(i) एक चर के आंकड़े को 360° के परिप्रेक्ष्य में कितने अंश में प्रदर्शित करना है, इसको इस सूत्र द्वारा परिकलित
NCERT Solutions for Class 12 Geography Practical Work in Geography Chapter 3 (Hindi Medium) 2.6
(ii) वृत में प्रत्येक चर का अंश भाग निर्धारित होने पर उन्हें विभिन्न आभाओं/छायाओं द्वारा अलग-अलग दर्शाते हैं।
(iii) किसी आभा/छाया से किस चर/लक्षण को प्रदर्शित किया गया है। इससे संबंधित एक संकेतक/सूचक बनाना आवश्यक है। उदाहरणभारत के भूमि उपयोग संबंधी आंकड़े तालिका में दर्शाए गए हैं
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NCERT Solutions for Class 12 Geography Practical Work in Geography Chapter 4 Use of Computer In Data Processing and Mapping (Hindi Medium)

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अभ्यास प्रश्न (पाठ्यपुस्तक से)

प्र० 1. नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर को चुनिए;
NCERT Solutions for Class 12 Geography Practical Work in Geography Chapter 4 (Hindi Medium) 1
(i) निम्नलिखित आंकड़ों के प्रदर्शन के लिए आप किस प्रकार के ग्राफ का उपयोग करेंगे?
(क) रेखा
(ख) बहुदंड आलेख
(ग) वृत्त आरेख
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं
(ii) राज्य के अंतर्गत ज़िलों का प्रदर्शन किस प्रकार के स्थानिक आंकड़ों द्वारा होगा?
(क) बिंदु
(ख) रेखाएँ।
(ग) बहुभुज
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं
(iii) एक वर्कशीट के सेल में दिए गए सूत्र में वह कौन-सा प्रचालक है जिसका पहले परिकलन किया जाता है|
(क) +
(ख) –
(ग) /
(घ) x
(iv) एक्सेल में विजार्ड फंक्शन आपको समर्थ बनाता है|
(क) ग्राफ रचना में
(ख) गणितीय और सांख्यिकीय क्रियाओं को करने में।
(ग) मानचित्र आलेखन में
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं।

उत्तर:
(i) (ख) बहुदंड आलेख
(ii) (ग) बहुभुज
(iii) (ग) /
(iv) (क) ग्राफ रचना में।

प्र० 2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए।
(i) एक्सेल में विजार्ड फंक्शन आपको समर्थ बनाता है?
उत्तर: एक्सेल में विजार्ड फंक्शन के द्वारा चार्ट जिसमें दंड आरेख, प्रमुखता से बनाए जाते हैं। इसके अलावा रेखा ग्राफ, आयत चित्रे आदि भी बनाए जा सकते हैं।
(ii) एक कंप्यूटर के विभिन्न भागों की हस्तेन विधियों की तुलना में कंप्यूटर के प्रयोग के क्या लाभ हैं?
उत्तर: विभिन्न प्रकार के आलेख, आरेख, चित्र, ग्राफ व मानचित्रों के निर्माण में आंकड़ों के प्रक्रमण तथा उनकी रचना में कंप्यूटर के प्रयोग ने समय की बचत की है। साथ ही त्रुटि होने संभावना भी कम रहती है जबकि हस्तेन विधि से इसमें काफी अधिक समय लगता है तथा त्रुटि की संभावना बनी रहती है।
(iii) आंकड़ा प्रक्रमण और प्रदर्शन की हस्तेन विधियों की तुलना में कंप्यूटर के प्रयोग के क्या लाभ हैं?
उत्तर: आंकड़ों के प्रक्रमण और प्रदर्शन की हस्तेन विधियों में समय अधिक लगता है तथा त्रुटियों की संभावना बनी रहती है जबकि कंप्यूटर की मदद से आंकड़ों के प्रक्रमण व प्रदर्शन में समय कम लगता है तथा उनमें सटीकता का % उच्च रहता है।
(iv) वर्कशीट क्या होती है?
उत्तर: भूगोल में कंप्यूटर के अनुप्रयोग में एम०एस० एक्सेल एक महत्त्पूर्ण सॉफ्टवेयर है। एम०एस० एक्सेल को स्प्रेड शीट प्रोग्राम भी कहा जाता है। स्प्रेडशीट एक आयताकार पेज होता है जिसे कार्यविधि पत्र (वर्कशीट) कहते हैं। इसमें 16,384 पंक्तियाँ तथा 256 स्तंभ होते हैं। स्तंभों को अंग्रेजी के अक्षर A, B, C, D आदि पहचान दी जाती है जबकि पंक्तियों को संख्या 1, 2, 3, 4, इत्यादि पहचान दी जाती है। एक पंक्ति और एक स्तंभ के संयोजन से एक सेल का निर्माण होता है जिसमें प्रविष्टियाँ अंकित की जाती हैं। और इन्हें सुरक्षित करने के लिए उपयुक्त नाम दे दिया जाता है। जरूरत पड़ने पर इसको पुनः खोलकर कार्य संपादन कर सकते हैं।

प्र० 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 125 शब्दों में दीजिए।
(i) स्थानिक व गैर-स्थानिक आंकड़ों में क्या अंतर है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए?
उत्तर: स्थानिक आंकड़े किसी स्थान के भौगोलिक व सांस्कृतिक लक्षणों को प्रतिनिधित्व करते हैं। इनको मानचित्र पर प्रदर्शित करने के लिए बिंदु, रेखाएँ तथा बहुभुज का प्रयोग करते हैं। विद्यालय, अस्पताल, कुएँ, नलकूप, कस्बे व गाँव जैसे लक्षणों को बिंदुओं के द्वारा; सड़कों, रेलवे लाइनों, नहरों, नदियों, शाक्ति व संचार पंथों को रैखिक प्रदर्शन द्वारा, तथा प्रशासकीय इकाइयों जैसे देश, जिले, राज्य व खंड, भूमि उपयोग प्रकारों, तालाबों, झीलों आदि लक्षणों को बहुभुज विधि से प्रदर्शित करते हैं। जबकि गैर-स्थानिक आंकड़े गुण न्यास को प्रदर्शित करते हैं जैसे-आपके पास अपने विद्यालय की स्थिति दर्शाने वाला मानचित्र है। तब आप विद्यालय का नाम, कक्ष संख्या, कक्षा में विद्यार्थियों की अनुसूची, पुस्तकालय, प्रयोगशालाओं, उपकरणों इत्यादि की सुविधाओं और संबंधित सूचनाओं को शामिल कर सकते हैं। इसमें आप महसूस करेंगे कि आप स्थानिक आंकड़ों के विशिष्ट गुणों की व्याख्या कर रहे होते हैं। इस तरह आप स्थानिक आंकड़ों के गुण न्यास की व्याख्या कर रहे होते हैं जिसके के कारण ये गैर-स्थानिक आंकड़े
कहलाते हैं।
(ii) भौगोलिक आंकड़ों के प्रकार कौन-से हैं?
उत्तर: भौगोलिक आंकड़ों को दो वर्गों में रखा जाता है। स्थानिक आँकड़े तथा गैर-स्थानिक आंकड़े। इनका वर्णन पहले ही प्रश्न (i) में किया जा चुका है।

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